आयातित विचारधाराओं का भ्रमजाल
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आयातित विचारधाराओं का भ्रमजाल

by
Jan 4, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Jan 2014 16:39:25

-शिवानंद द्विवेदी

हिटलर के प्रचारक गोयबल्स ने यह उक्ति यूं ही नहीं कही होगी कि अगर किसी झूठ को सौ बार बोला जाय तो सामने वाले को वह झूठ भी सच लगने लगता है। भारत के संदर्भ में अगर देखा जाय तो आज ये उक्ति काफी सटीक नजर आती है। भारतीय राजनीति एवं समाज के विमर्शों में दो ऐसे शब्दों का बहुतायत से प्रयोग मिलता है, जिनकी बुनियाद ही कुतकोंर् और झूठ की लफ्फाजियों पर टिकी हुई है। ये दो शब्द हैं- दक्षिणपंथ एवं फासीवाद।  ये वे शब्द हैं जिनका वर्तमान भारतीय लोकतंत्र एवं इसकी राजनीतिक-सामाजिक संरचना से कोई वास्ता नहीं है।  ये भ्रम और झूठ के बीच जिन्दा रखी गयीं वे शब्दावलियां हैं जिनको आयातित वामपंथी विचारधारा द्वारा भारतीय समाज एवं राजनीति में जहर की तरह कूट-कूट कर भर दिया गया है। अगर इन शब्दावलियों की उत्पत्ति एवं इनकी वैचारिक सिद्घांतों की तह में जायें तो ये दोनों ही शब्द दो यूरोपीय देशों की आंतरिक एवं राजनीतिक संघषोंर् की उपज नजर आयेंगे।  आज जब दुनिया के अधिकांश देशों में लोकतांत्रिक सरकारों की स्थापना हो चुकी है एवं पूरी दुनिया में सामाजिक रूप से लोकतंत्रीकरण के प्रयास चल रहे हैं, ऐसे में वामधारा वालों के पास सिवाय शब्दावलियों के नाम पर भ्रम का पुलिंदा खड़ा करने के बचता ही क्या है। भारत के  संदर्भ में अगर इन शब्दावलियों के औचित्य की बात करें तो यहां इन शब्दों का ना तो कोई वजूद है और ना ही इन शब्दावलियों के मूल सिद्घांतों पर कोई आंदोलन अथवा क्रान्ति ही हुई है। दरअसल, झूठ की बुनियाद पर टिकी सतही सच्चाई यही है  कि इन शब्दावलियों को जिन्दा रखकर वामपंथी विचारक अपने से भिन्न विचारधाराओं पर निशाना आसानी से बना पाते हैं। वामपंथी विचारकों ने इनको बहुत अधिक कु-प्रचारित किया है। भारत में जो राष्ट्रवादी होता है वही वामपंथ की इस फरेबी शब्दावली में दक्षिणपंथी घोषित कर दिया जाता है। आप तथ्यों को आधार मानकर ही देखिये तो आपको किसी ना किसी रूप में दक्षिणपंथ शब्द का प्रयोग करते भारी संख्या में वामधारा वाले विचारक ही मिलेंगे।
 इन शब्दावलियों के पीछे मूल तथ्य यह है कि सन् 1789 की फ्रांस की संसद में राजसत्ता के हिमायती लोगों को प्रेसिडेंट के दक्षिण में बैठने की जगह दी गयी जबकि फ्रांसीसी क्रान्ति के समर्थकों को बाईं तरफ स्थान मिला था। वहीं से इस दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ की उत्पत्ति हुई। दक्षिण बनाम वाम की उत्पत्ति के इन मूल कारणों को आधार मानकर क्या कोई वाम विचारक यह बताना चाहेगा कि भारतीय संसद में इस तरह की कोई बैठक व्यवस्था की गयी है? क्या भारत का कोई भी राजनीतिक दल, जिस पर दक्षिणपंथी होने का आरोप लगता है, को दक्षिणपंथी विचारधारा के मुताबिक राजसत्ता की हिमायत करते देखा गया है? सवाल ये भी है कि जिस समुदाय अथवा व्यक्ति पर आज दक्षिणपंथी होने का झूठा आरोप वामपंथी विचारक गढ़ते हैं क्या उस समुदाय ने कभी लोकतांत्रिक व्यवस्था को नकारा है ? हमें समझना होगा कि भारतीय राष्ट्रवाद एक उदार एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है।  मामला वामपंथी विचारकों का बौद्धिक फरेब एवं भ्रमजाल का है, जिसके अंदर राष्ट्रवादी समुदाय पूरी तरह से फंस चुका है। राष्ट्रवादियों की एक बुरी आदत ये है कि उनका बौद्घिक एवं राजनीतिक एजेंडा दूसरों के द्वारा प्रचारित तथ्यों पर आधारित होता है। सही एवं तर्कपूर्ण अथोंर् में देखें तो राष्ट्रवाद एवं दक्षिणपंथ दो अलग-अलग शब्द हैं जिनको वामपंथियों द्वारा एक बता कर प्रचारित किया जाता रहा है। भारतीय लोकतंत्र में साम्प्रदायिकता बनाम पंथनिरपेक्षता की बहस की गुंजाइश बेशक आज भी हो सकती है लेकिन वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ की बहस तो महज भ्रम और कुतकोंर् के ढेर पर टिकी है। भारत में सही बहस वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ की बजाय राष्ट्रवाद बनाम वामपंथ की होनी चाहिए थी। चूंकि बहस के इस मोर्चे पर वामपंथी चारों खाने चित्त नजर आयेंगे अत: उन्होंने इस पूरे विमर्श को ही वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ करार देने का बौद्घिक फरेब किया। कहीं ना कहीं वाम विचारकों द्वारा गढ़े गए इस कुतर्क को समझने की बजाय कुछ लोग शब्दावलियों के भ्रमजाल में उलझ से गए हैं।
 कुल मिलाकर अगर देखें तो तो भारत की वर्तमान राजनीतिक एवं सामाजिक संरचना में दक्षिणपंथ शब्द का ना तो कोई अर्थ दिखता है और ना ही इसका कोई तार्किक एवं ऐतिहासिक महत्व ही नजर आता है, सिवाय वामपंथी कुतर्क एवं बहुसंख्यक राष्ट्रवादियों क ी नासमझी के। वैसे भी पचास के दशक में दुनिया की सबसे प्रथम लोकतांत्रिक पद्घति से सत्ता में आई कम्युनिस्ट विचारधारा  का भारतीय लोकतंत्र के इन पैसठ सालों में क्या हश्र हुआ है, ये किसी से छुपा नहीं है। झूठ के भरोसे ही सही, जनता तक अपनी विचारधारा पहंुचा पाने में नाकामयाब रही वामपंथी विचारधारा हमेशा से शब्दों का भ्रमजाल रचती रही है।  वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ भी उसी शब्दों के मायाजाल का एक उदाहरण मात्र है, जिसने भारतीय राजनीति एवं लोकतंत्र के विमशोंर् का कोण ही उलट कर रख दिया है। 

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