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भारतीय संस्कृति की आत्मा है वेदान्त

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Jan 4, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Jan 2014 13:23:52

.
डॉ. हरिश्चन्द्र वर्मा

वेदान्त भारत का राष्ट्रीय दर्शन है। यह भारत के धर्म, संस्कृति और इतिहास की आत्मा है। यह सनातन धर्म का सनातन आधार है। यह जीवात्मा, परमात्मा और जगत् की एकता के सिद्घान्त पर आधारित एक समतावादी अभेद-मूलक जीवन-दर्शन है, जो ह्यवसुधैव कुटुम्बकम्ह्ण के मानवतावादी चिन्तन पर केन्द्रित है। यह सिद्घांत वर्ण, जाति, राष्ट्र आदि किसी भी प्रकार के भेद-भाव से ऊपर है। यह असत् के खण्डन और सत् के मण्डन पर आधारित होने के कारण मानव-प्रकृति को अर्थ और काम से जुड़ी विकृतियों से विमुख करके, संस्कृति की उन्नयनकारी दिशा में उन्मुख और अग्रसर करने वाली मंगलमूलक चिन्तन-पद्घति है। यह मनुष्य को पाप और पतन के गर्त से निकाल कर उत्कर्ष के शिखर पर समासीन करने वाली शाश्वत विकास-योजना है।
भारत के इतिहास में जब भी संकट के युग आये, वेदान्त तभी एक संकटमोचक, नवोन्मेषकारी ऊर्जा-पुंज के रूप में प्रकट हुआ। मुस्लिम-काल में यह अपनी शक्ति, भक्ति-आन्दोलन के रूप में चरितार्थ करने में सफल रहा। ब्रिटिश-काल में यह एक विराट राष्ट्रीय  पुनर्जागरण के आन्दोलन के रूप में सक्रिय रहा। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द, बाल गंगाधर तिलक, स्वामी रामकृष्ण परमहंस तथा उनके यशस्वी शिष्य स्वामी विवेकानन्द इस आन्दोलन के प्रमुख सूत्रधार थे। इसके परवर्ती सूत्रधारों में प्रमुख थे अरविन्द घोष और महात्मा गांधी किन्तु विश्व के सामने वेदान्त के विराट, वैश्विक रूप की दिव्य झांकी प्रस्तुत करने का जो विरल श्रेय स्वामी विवेकानन्द को प्राप्त हुआ, वह किसी और को नहीं।
महाकाली के सगुण स्वरूप में निराकार ब्रह्म के प्रत्यक्ष दर्शन करने वाले सूक्ष्म-द्रष्टा स्वामी रामकृष्ण परमहंस  ने अपने नवयुवा शिष्य नरेन्द्र के व्यक्तिव में वेदान्त की अन्तर्निहित अभिनव आभा का साक्षात्कार किया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस वेदान्त को एक नितान्त नैसर्गिक व्यवहार-दर्शन मानते थे। इसीलिए वे सिद्घांत की अपेक्षा व्यवहार को और अमूर्त की अपेक्षा मूर्त को अधिक महत्व देते थे। वे दीन-दुखियों की सेवा को ही दीन-बन्धु की सच्ची सेवा और अर्चना मानते थे। पाश्चात्य विद्वान रोमां रोलां ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सम्बन्ध में लिखित अपनी पुस्तक में नरेन्द्र को विवेकानन्द बनाने का सारा श्रेय  स्वामी रामकृष्ण परमहंस को ही दिया है। स्वामी रामकृष्ण ने ही विवेकानन्द की अमरीका-यात्रा से बहुत पहले यह भविष्यवाणी कर दी थी कि नरेन्द्र अपनी विलक्षण प्रतिभा और दिव्य शक्तियों के द्वारा समूचे विश्व को हिला कर रख देगा।
सन् 1893 में, अमरीका के शिकागो नगर में आयोजित सर्व-धर्म-सम्मेलन में सचमुच ही युवा सन्त स्वामी विवेकानन्द ने अपनी विशिष्ट वेश-भूषा, खड़े होने के अनूठे अन्दाज, सम्मोहक व्यक्तिव और दिव्य भावों का विद्युत वेग से संचार करने वाली वाग्धारा के द्वारा उपस्थित श्रोताओं को विस्मित और विमुग्ध कर दिया था। अमरीका में वे एक तूफानी महात्मा तथा एक दिव्य वक्ता के रूप में विख्यात हो गये। वे सर्वधर्म-सम्मेलन में आमंत्रित सात हजार सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ वक्ता स्वीकार किये गये। वहां उनके असंख्य शिष्य बन गये तथा स्थान-स्थान पर स्वामी रामकृष्ण परमहंस की शिक्षा और सन्देश के सम्प्रसार के लिए अनेक अध्ययन-केन्द्र स्थापित हुए।
लगभग तीन वर्ष अमरीका और एक वर्ष इंग्लैण्ड में अपने वेदान्त-विभासित व्यक्तित्व की आध्यात्मिक आभा विकीर्ण करके स्वामी विवेकानन्द सन् 1897 में अपनी पुण्यभूमि भारत लौटे। स्वामी जी पाश्चात्य जगत् की वैज्ञानिक और भौतिक प्रगति से जितने प्रभावित हुए थे, उतने ही वहां  की वणिक-वृत्ति या धन-लिप्सा, पूंजीवाद, भोगवाद, व्यक्तिवाद तथा वहां के आदिवासियों के शोषण और उत्पीड़न की दानवी प्रवृत्तियों से मर्माहत भी थे। भौतिक प्रगति की ऊपरी चमक-दमक उन्हें अपने वेदान्त के अभेदवादी निकष पर प्रतिकूल प्रतीत हुई। इसका यह लाभ अवश्य हुआ कि उन्हें अपना दरिद्र और पिछड़ा हुआ भारत तीर्थ-तुल्य, पहले से भी अधिक पावन और प्रिय प्रतीत होने लगा।  
अत: वे विदेश-भ्रमण के मोह से तत्काल मुक्त हो कर भुखमरी और विदेशी दासता से ग्रस्त भारत माता के उद्घार में पूरी निष्ठा और शक्ति के साथ जुट गये। वे आध्यात्मिक जनक के रूप में राष्ट्रीय पुनर्जागरण के क्षेत्र में कमर कस कर अवतरित हुए। उनके जागरण-अभियान के दो पक्ष थे- सामाजिक विकृतियों का विनाश तथा राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चेतना का विकास।
अज्ञान की निद्रा में सोये हुए भारत को जगाने के उद्देश्य से उन्होंने स्थान-स्थान पर वेदान्त का उठो और जागो का शंखनाद गुंजित किया और देश की युवा-शक्ति को दरिद्रता, पतन तथा पराधीनता की राष्ट्रव्यापी विकट समस्याओं से अवगत कराया। उन्होंने पूरे समाज में व्याप्त भुखमरी, अज्ञान, अशिक्षा, जातिगत भेद-भाव, छुआ-छूत, शोषण, अन्याय, पतन, दुराचार आदि विकृतियों के विनाश को राष्ट्र के पुनर्जागरण की प्राथमिक आवश्यकता बतलाया।
उनका अटूट विश्वास था कि सामाजिक दुर्बलताओं से मुक्ति पाकर ही हम अपने देश को विदेशियों के शिकंजे से मुक्त करा सकते हंै और  सच्चे अथोंर् में वेदान्त द्वारा घोषित मोक्ष की अनुभूति कर सकते हैं। उनका उद्देश्य था-ह्यमैं एक ऐसे धर्म का प्रचार करना चाहता हूंह्ण, जिससे ह्यमनुष्यह्ण तैयार होता हैह्ण।
वेदान्त के प्रबल पुरोधा के रूप में वे भारत को एक सबल स्वतन्त्र, संघर्षशील, निर्भय और गौरवशाली राष्ट्र बनाना चाहते थे। नारी-शक्ति के अभ्युदय को भी वे राष्ट्रीय पुनर्जागरण का अभिन्न अंग मानते थे। वे सीता, सावित्री, दमयन्ती, गार्गी, लीलावती आदि नारियों के उदाहरण प्रस्तुत करके नारी-शक्ति के अभ्युदय के सपने को साकार करने के प्रबल पक्षधर थे।
उनकी राष्ट्रभक्ति की पराकाष्ठा का प्रत्यक्ष बोध इस तथ्य से होता है कि वे स्वयं को भारत का संक्षिप्त संस्करण मानते थे। एक सच्चे बलिदानी देशभक्त के रूप में उन्होंने गुरु गोविन्द सिंह का बड़े गौरव से उल्लेख करते हुए कहा, ह्यगुरु  गोविन्द सिंह ने धर्म के लिए अपना और अपने प्राणों से भी बढ़कर प्रियजनों की आहुती तक दे दी।ह्ण बंगाली नवयुवकों  को आत्मसुधार और देशोद्घार का सन्देश देते हुए उन्होंने  कहा था, ह्ययाद रखो, संसार में जितने भी महान कार्य हुए हैं, उन्हें साधारण जन ने ही किया है। इसलिए,  ह्यऐ गरीब बंगाली नवययुवकांे, उठो और कार्य में जुट जाओ। दृढ़ चित्त बनो और इससे भी बढ़कर पूर्ण पवित्र तथा निष्कपट बनो। विश्वास रखो कि तुम्हारा भविष्य अत्यन्त गौरवशाली है।ह्ण
स्वामी जी ह्यमुक्तिह्ण को स्वतन्त्रता आन्दोलन के यथार्थ सन्दर्भ में देखते थे। वे ह्यस्वतन्त्रताह्ण और ह्यमुक्तिह्ण में कोई अन्तर नहीं मानते थे। उनकी स्पष्ट धारणा थी- ह्यमुक्ति अथवा स्वतन्त्रता-दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, आध्यात्मिक स्वाधीनता, यही उपनिषदों का मूल मन्त्र है।ह्ण

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