सरल-सुबोध विवेक जीवन
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सरल-सुबोध विवेक जीवन

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Jan 4, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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आपातकाल की पीड़ा बयान करती पुस्तक

दिंनाक: 04 Jan 2014 13:12:34

तंत्र्योपरांत के भारतीय इतिहास में 1975-76 के 18 महीने  काले धब्बे की तरह हैं। इस कलंक को जितना भी मिटाने का प्रयास किया गया यह उतना ही अधिक स्याह होता गया है। भारतीय समाज में एक हजार वर्ष से अधिक विदेशी हस्तक्षेप से जब छुटकारा मिला तो भारतीय जन मानस लोकतंत्र की मौलिक धारणाओं से  भी इतना जुड़ा कि जब जनतांत्रिक व्यवस्थाओं पर आघात हुआ तो आम आदमी भी तड़प उठा और उसने व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर न केवल आहत होने की पीड़ा का स्वर नाद किया बल्कि आपातकाल का विरोध हिंसक और अहिंसक दोनों रूपों से सहन किया है। इस अंधकारमय 18 महीने के कालखण्ड में साहित्यकारों का मन भी रोया, चिल्लाया और चिंघाड़ा है।

 भारतीय जनमानस की वेदना को साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में बखूबी अभिव्यक्ति दी है। एक आंकलन के अनुसार विभिन्न भारतीय भाषाओं में 5 हजार से अधिक कविताएं लोकतंत्र पर आघात के विरुद्घ लिखी गई है। शायद यह आंकलन अधूरा है क्योंकि कितनी ही कविताएं केवल या तो लिख दी गई या तो लिख पढ़कर विस्मृत हो गई। फिर भी जिन कविताओं का संकलन हुआ वह उस काल के जनमानस पर शोध का एक सशक्त स्त्रोत बन गई हैं। डॉ़ अरुण कुमार भगत ने इन्हीं कविताओं का व्यवस्थित रूप से विश्लेषण करके आपातकालीन काव्य: एक अनुशीलन पुस्तक की रचना की है। इस प्रकार के शोध ऐतिहासिक संदर्भों के परिप्रेक्ष्य को जानने के लिए आवश्यक होने के बावजूद उचित मात्रा और गुणवत्ता के अनुसार अभी तक नहीं हुए हैं। डॉ़ भगत का शोध साहित्य और पत्रकारिता के आयामों में एक नया अंर्तसंबंध स्थापित करता हुआ दिखता है।  पुस्तक के पहले दो अध्यायों में उस काल के राजनैतिक और सामाजिक परिदृश्य पर विस्तृत टिप्पणी है, जिससे साफ जाहिर होता है कि  डॉ़ भगत स्वयं लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर उस समय के शासन के आक्रमणों से आहत हैं और उसके विरोधी हैं। शोधकर्ता का बिना पक्ष जाहिर किये शोध करना अच्छा है या नहीं यह विषय चर्चा का हो सकता है।
 पुस्तक में डॉ़ भगत के अंदर छिपा हुआ शोधकर्ता बार-बार दृष्टिगत होता है। अर्न्तवस्तु-विश्लेषण की प्रक्रिया को अपनाते हुए उन्होंने तीसरे अध्याय में कविताओं में निहित विरोध की व्याख्या की और वहां भी उन्होंने उन रचनाओं को संदर्भित किया जिनसे स्पष्ट सिद्घ होता है कि उनमें वीर रस की ललकार और व्यवस्था को दी चुनौती निहित है।  हालांकि अरुण भगत ने इस विषय पर साफ तौर से नहीं लिखा है परन्तु उस समय की कविताओं में जनमानस को जागृत करने और कुछ कर दिखाने के लिए भी प्रेरित किया गया है। लोकतंत्र की पुन: स्थापना के लिए जिस प्रकार जनमानस उठ खड़ा हुआ था उसमें इन कविताओं की अवश्य ही महती भूमिका रही है।
 चतुर्थ अध्याय में अरुण भगत ने उस समय की कविताओं में जो निराशा, पीड़ा और अवसाद की विषय-वस्तु का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया है वह पढ़ने में जहां रुचिकर लगता है वहीं कई जगह तो मन भर भी उठता है। इन कविताओं से शासन की शक्ति से रचनाकार के मन में जो भय और कड़वाहट पैदा होती है वह साफ झलकती है और लेखक की टिप्पणी तो कविताओं के मर्म को और तीव्र कर  देती है।
 इस पुस्तक में शायद एक पहलू पहली बार ही सामने आया है वह है अपने पर और परिस्थितियों पर स्वयं ही हंसने की कला। आपातकालीन कविताओं में अरुण भगत ने व्यंग्य ढूंढ ही लिया है और कृष्ण, शिव आदि को भी निष्क्रिय दिखाते हुए समाज को आइना दिखाना खुद अपना मजाक उड़ाता हुआ दिखता है। ऐसा माना जाता है कि आपात काल की कविताओं में व्यंग्य पर टिप्पणी और विश्लेषण शायद पहली बार ही इस पुस्तक में सामने आये हैं।
 कुल मिलाकर साहित्य और संवाद के शोध का एक अच्छा उदाहरण अरुण भगत ने इस पुस्तक के माध्यम से प्रस्तुत किया है जो अन्य शोधकर्ताओं के लिए अनुकरणीय हो सकता है। हालांकि एक कमीं इस पुस्तक में अवश्य लगती है। साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग आपातकाल में जिम्मेदार व्यक्तियों की चाटुकारिता में व्यस्त हो गया था। यह एक बड़ा वर्ग था और उसने अपनी कलम, मस्तिष्क और रचना-धर्म को व्यक्तिगत लाभ के लिए प्रयोग किया था। ऐसी कविताओं का विश्लेषण यदि इस पुस्तक में नही है ंतो एक अन्य पुस्तक के माध्यम से अरुण भगत इसे करें तो एक और आयाम स्थापित           कर लेंगे।  प्रो़ बृज किशोर कुठियाला

पुस्तक का नाम    –    आपातकालीन काव्य
लेखक            –    डॉ. अरुण कुमार भगत
मूल्य      –    192 रु., पृष्ठ – 400
प्रकाशक         –     श्रुति पब्लिकेशन
        गाजियाबाद (उ.प्र.)
        फोन-9818387111

इस वर्ष विवेकानंद की सार्द्ध सती चल रही है। देश भर में इस उपलक्ष्य में अनेक आयोजनों के साथ-साथ सैकड़ों पुस्तकें भी प्रकाशित होकर आई हैं। सभी लेखकों ने अपनी-अपनी दृष्टि में स्वामी विवेकानंद के चरित्र का वर्णन किया, उनके दर्शन, विचारों और संदेश का अर्थ बताया है। निश्चित ही उन सभी पुस्तकों का अपना महत्व है लेकिन विवेकानंद जैसे विराट व्यक्तित्व के संपूर्ण जीवन को अत्यंत संक्षप्तिता के साथ वर्णन करना वास्तव में आसान नहीं है। हाल में प्रकाशित होकर आई छोटी-सी पुस्तक ह्यविवेक जीवनह्ण में डॉ. सुशील गुप्ता ने यह कार्य बहुत सुंदर ढंग से किया है। उन्होंने स्वामी जी के जीवन की लगभग सभी प्रमुख घटनाओं को समेटने के साथ ही उनके संदेश और शिक्षाओं को भी पुस्तक के अंत में जोड़ दिया है। निश्चित ही इन सबको पढ़ते हुए विवेकानंद के व्यक्तित्व और उनके कायोंर्/ संदेशों के बारे में विस्तार से जानकारी नहीं मिल पाती है लेकिन यह पुस्तक उनके विषय में और अधिक जानने-पढ़ने के लिए  प्रेरित  जरुर करती है। इस लिहाज से यह पुस्तक विद्यार्थियों और युवाओं के लिए अधिक उपयोगी साबित हो              सकती है।
समीक्ष्य पुस्तक कुल पांच खण्डों में विभक्त है। पहले खण्ड को 40 लघु खण्डों में विभाजित किया गया। इसमें उनके जन्म, परिवार वंश, शिक्षा, गुरु मिलन, वैराग्य, अमरीका भ्रमण, रामकृष्ण मिशन की स्थापना मानव सेवा के लिए समर्पण से लेकर  शरीर त्याग तक की घटनाओं को संलिप्तता के साथ लिपिबद्ध किया गया है। पुस्तक की भाषा-शैली बोधगम्य है। उनके जीवन की घटनाओं को कालक्रमानुसार लिखा गया है। पुस्तक के दूसरे खण्ड में स्वामी विवेकानंद के बारे में महापुरुषों की भक्ति की गई है। महात्मा गांधी,तिलक, सुभाष चंद्रबोस और महर्षि अरविंद जैसे महापुरुषों की टिप्पणी से भी स्वामी विवेकानंद की महानता के कई आयाम उजागर होते हैं। महात्मा गांधी का तो यह भी कहना था कि उनके भीतर के देशप्रेम की भावना को हजारों गुना बढ़ाने में स्वामी जी के साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान था। पुस्तक के अगले खण्ड में शिकागो धर्मसभा में स्वामी जी द्वारा किए गए ऐतिहासिक उद्बोधन को संक्षप्ति रूप में संकलित किया गया है। इसके आगे के खण्ड में स्वामी जी द्वारा की गई भविष्यवाणियोंऔर उनकी सत्यता को सोदाहरण प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक के अंतिम खण्ड में स्वामी जी की महत्वपूर्ण शिक्षाएं और सूत्रों को संकलित किया गया है।
 उस युग में ही स्वामी जी ने हमें अपने जीवन   में पाश्चात्य जगत की चकाचौंध से सावधान होने के लिए कह दिया था। आज देश व समाज के समक्ष जिस प्रकार की चुनौतियां है, उनके लिए कहीं न कही हमारी स्वार्थपरता और अनैतिकता अधार्मिकता ही जिम्मेदार है। स्वामी जी को युवा शक्ति पर सबसे ज्यादा भरोसा था। लेकिन आज की युवा पीढ़ी ही सुविधाभोगिता में इतनी लिप्त हो चुकी है कि उसे देशसमाज की चिंता ही जैसे नहीं रही। ऐसे जटिल समय में स्वामी विवेकानंद के संदेश, शिक्षाएं हमारे लिए  पहले के मुकाबले ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं।
स्वामी जी ने अपने संक्षिप्त जीवन में जो महान  कार्य किए वे हमारे लिए आज भी प्रेरक बने हुए हैं। निश्चित ही स्वामी जी को समझने में यह पुस्तक कारगर साबित हो सकती है।

पुस्तक का नाम-    विवेक जीवन
लेखक         –       डॉ. सुशील गुप्ता
मूल्य          –    35 रुपए
पृष्ठ           –     62
प्रकाशक     –     सुरुचि प्रकाशन
    झण्डेवाला, नई दिल्ली-110055
 विभूश्री

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