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किश्तवाड़ दंगे के दोषी किचलू की ताजपोशी!

by
Dec 28, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 28 Dec 2013 15:27:54

-आशुतोष भटनागर

 दिल्ली में 'आप' के सरकार बनाने और न बनाने की बहस में जब मीडिया उलझी थी, जम्मू-कश्मीर में परदे के पीछे कुछ और ही खिचड़ी पक रही थी। किश्तवाड़ की हिंसा की जांच के लिये बनाये गये एक सदस्यीय आयोग ने अपनी अंतरिम जांच रपट सरकार को सौंपी और आनन-फानन में सज्जाद अहमद किचलू को मंत्री पद की शपथ दिला दी गयी।
 गत 9 अगस्त को ईद के दिन जम्मू मण्डल के एक हिस्से किश्तवाड़ में भारी हिंसा हुई थी जिसमें अल्पसंख्यक हिन्दुओं को बड़ी मात्रा में जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा था। घटना के दिन राज्य के गृह राज्य मंत्री और स्थानीय विधायक सज्जाद अहमद किचलू किश्तवाड़ में मौजूद थे। उनकी मौजूदगी के बावजूद दिन भर हिंसा का तांडव चलता रहा और प्रशासन हाथ पर हाथ धरे तमाशा देखता रहा।
 समूचे जम्मू मण्डल में घटना पर तीखी प्रतिक्रिया हुई। परिणामस्वरूप मौके पर मौजूद गृह राज्य मंत्री से इस्तीफा लेना पड़ा। राज्य के इतिहास को देखते हुए यह अभूतपूर्व घटना थी। सेवानिवृत्त न्यायाधीश आर.सी. गांधी को घटना की जांच के लिये नियुक्त किया गया। यद्यपि उनकी नियुक्ति के समय ही सरकार की मंशा पर सवाल उठाये गये थे, अंतरिम रपट ने इस शंका की पुष्टि कर दी। अंतरिम रपट सौंपे जाने का समय भी संदेह को बढ़ाने में सहायक है। बहरहाल, जम्मू मण्डल एक बार फिर आक्रोश में है और केन्द्र सरकार तमाशबीन बनी हुई है।
 आयोग के अनुसार उसके समक्ष तीन सौ से अधिक शपथपत्र और पचास-साठ प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही के आधार पर गांधी ने निष्कर्ष निकाला कि पूरे घटना क्रम में पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारी अपने कर्तव्यों के पालन तथा कानून-व्यवस्था की बहाली में असफल रहे वहीं मौके पर मौजूद मंत्री को उन्होंने निर्दोष ही नहीं पाया बल्कि पीडि़त भी माना।
चूंकि जांच अभी जारी है, घटना से जुड़े अन्य तथ्य अभी सामने आ सकते हैं, यह माना जा सकता है कि समग्रता में देखे जाने पर आयोग के निष्कर्ष आगे चल कर बदल भी सकते हैं। ऐसी स्थिति में सरकार ने अपने ही बनाये आयोग को जांच पूरी करने का मौका न देकर उससे अंतरिम रपट लेने और उसके आधार पर किचलू को पुन: मंत्री बनाने की जो जल्दी दिखायी है वह निश्चित रूप से संदेह पैदा करती है।
 इसका दूसरा पहलू वही हो सकता है  जिसकी ओर बसपा, भाजपा तथा अन्य संगठन इशारा कर रहे हैं। वह है सरकार का यह विश्वास कि तथ्य कुछ भी आ जाएं रपट के निष्कर्ष वहीं रहेंगे जो अभी हैं। अर्थात, किसी भी हाल में सरकार आयोग से किचलू के निर्दोष होने का प्रमाण हासिल कर ही लेगी। इसलिये अंतरिम रपट और समग्र रपट में किचलू के संदर्भ में कोई अंतर न आने के विश्वास के कारण ही सरकार ने उन्हें दोबारा मंत्री बनाने और गृह मंत्रालय ही सौंपने का निर्णय किया। अंतरिम रपट के अनुसार भले ही किचलू इस प्रकरण में कहीं शामिल नहीं थे, लेकिन यहां प्रश्न यह भी उठता है जब दंगाई दिन भर लूट और आगजनी करते रहे और गृह राज्य मंत्री के प्रत्यक्ष मौजूद होते हुए भी पुलिस और स्थानीय प्रशासन नाकारा बना रहा तो क्या यह मंत्री की अक्षम कार्यशैली और गैर-जिम्मेदाराना रवैये को उजागर नहीं करता?  वे अगर वहां मौजूद थे तो आखिर क्या कर रहे थे ? क्या उनके पास दंगे पर नियंत्रण पाने से भी अधिक महत्वपूर्ण कोई काम था ? अथवा उन्हें यह विश्वास था कि जम्मू-कश्मीर में लुटने और मरने वाले हिन्दू अल्पसंख्यकों की न राज्य और केन्द्र सरकार को कोई परवाह है और न ही कथित मानवाधिकारवादियों के दिल उनकी चीखों से पसीजते हैं ?
किचलू ही नहीं, उमर को भी यह तो भरोसा होगा ही कि मुजफ्फरनगर के शिविरों में मुआवजा लेने के बाद भी डटे लोगों के आंसू पोंछने के लिये राज्य सरकार की आंख बचा कर जाने वाले कांग्रेस के युवराज किश्तवाड़ के पीडि़तों के बीच कभी नहीं आयेंगे। बल्कि इसके विपरीत, कांग्रेस का एक धड़ा इस बात से प्रसन्न है। उसे लगता है कि किचलू को मंत्री बनाये जाने के बाद अब कांग्रेस के कोटे से राज्य सरकार में लोक निर्माण विभाग के मंत्री रहे जी.एम. सरूरी को फिर से मंत्री बनाये जाने का रास्ता साफ हो
गया है।
 उल्लेखनीय है कि डोडा से विधायक जी.एम. सरूरी की बेटी की जगह पर एमबीबीएस की प्रवेश परीक्षा दे रहे मुन्ना भाई के पकड़े जाने के बाद सरूरी को मंत्रिमंडल से बाहर किया गया था। अब यह तय है कि किचलू की तरह ही सरूरी भी जांच में निर्दोष साबित हों और उमर के पास उन्हें पुन: मंत्रिमंडल में न लेने का कोई बहाना न बचे।
सच तो यह है कि किश्तवाड़ की घटना ने जम्मू मण्डल में जैसी गुस्से की लहर पैदा की थी वह अप्रत्याशित थी। घटना की आग उमर को लपेटे, इससे पहले उन्होंने किचलू को मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखा कर उस आग पर तात्कालिक तौर पर काबू पाने की कोशिश की थी, लेकिन सत्तारूढ़ गठबंधन के दलों, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस, दोनों को ही इस राजनैतिक वास्तविकता का ज्ञान है कि आरोपी मंत्रियों के साथ वर्ष 2014 में होने वाले लोकसभा और विधान सभा चुनावों में जाना कठिन है। इसलिये दोनों ही दल अपने-अपने मंत्रियों के दाग छुड़ा कर उन्हें फिर से मंत्री बनाये जाने के लिये बेचैन हैं। अगर किचलू मंत्री बन गये हैं तो सरूरी का मंत्री बनना भी अब कुछ समय की ही बात है।
उधर किश्तवाड़ में जिन लोगों की दुकानें लूटीं और जलायी गईं, उनकी अपनी पीड़ा है।  उन्हें न उचित मुआवजा मिला है और न ही अपराधियों पर कार्रवाई हुई है। ऐसे में यह उम्मीद करना कि वे सब कुछ भूल कर अपने-अपने विधायकों को एक बार फिर चुनेंगे, यह दूर की कौड़ी है। जिस तरह पहले रामबन और उसके बाद किश्तवाड़ में घटनाएं हुई हैं उससे स्थानीय नागरिकों में यह भय समाता जा रहा है कि अब जम्मू अलगाववादियों के निशाने पर है। खास तौर पर किश्तवाड़ का तो कोई भी अल्पसंख्यक हिन्दू इसे अचानक हुई घटना मानने को तैयार नहीं है। जिस तरह हजारों लोग इकट्ठे होकर कई किलोमीटर तक तोड़-फोड़ करते आगे बढ़ते रहे और प्रशासन खामोश रहा, दिन-दहाड़े दुकानें जलती और लुटती रहीं और प्रशासन तमाशा देखता रहा वह किसी गहरी साजिश की तरफ इशारा कर रही हैं।
सज्जाद किचलू स्थानीय विधायक हैं इसलिये उनके वहां मौजूद होने में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है, किन्तु उनके मौजूद रहते हुए भी प्रशासन अगर चुप्पी साधे रहता है तो यह बिना उनकी इच्छा के संभव नहीं था। यदि उनके कहने पर भी प्रशासन ने कुछ नहीं किया तो सरकार द्वारा दोषी अधिकारियों पर कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिये थी। ऐसा नहीं हुआ तो जनता यह निष्कर्ष निकालने के लिये स्वतंत्र है कि दाल में कहीं कुछ काला है और यह काला अलगाववाद के साथ मिल कर अंधेरे को और अधिक गहरा कर सकता है।
 आयोग द्वारा अंतरिम रपट सौंपे जाने के लिये 22 दिसंबर का दिन चुना गया जब सारे देश की निगाहें दिल्ली सरकार के गठन को लेकर हो रही कसरत पर टिकी थीं। मुख्यमंत्री ने बिना समय गंवाये जिस तरह आनन-फानन में किचलू को शपथ ग्रहण करवायी वह किसी को भी संदेह में डालने के लिये काफी है। सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या यह कश्मीर की तरह ही जम्मू से भी अल्पसंख्यक जनसंख्या को पलायन करने के लिये विवश करने की चाल तो नहीं? आखिर कश्मीर में भी तो आतंकवाद इस तरह कदम-दर-कदम ही आगे बढ़ा था। 

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