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26 अक्तूबर 1970 को प्रकाशित आलेख की दूसरी किस्त

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Dec 28, 2013, 12:00 am IST
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सरदार ने विभाजन क्यों स्वीकारा

दिंनाक: 28 Dec 2013 14:52:17

15 दिसम्बर 2013 के अंक में 'पटेल निन्दा में जुटे नूरानी' शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसमें यह बताया गया था कि देश के कुछ बुद्धिजीवी यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि नेहरू और पटेल के बीच कोई मतभेद नहीं था। लेकिन इतिहास साक्षी है कि कुछ मुद्दों पर सरदार पटेल के मतभेद नेहरू ही नहीं, गांधी जी से भी थे। इन मतभेदों के बारे में पाञ्चजन्य ने बहुत वर्ष पहले (सत्तर के दशक में) कुछ शोधपूर्ण आलेख प्रकाशित किए थे।  उन्हीं  लेखों को एक बार पुन:  प्रकाशित किया जा रहा है। सरदार पटेल, नेहरू और गांधी जी के रिश्तों को बताने वाली श्रृंखला की दूसरी किस्त प्रस्तुत है।

गतांक से आगे 
गांधी जी से मतभेद होते हुए भी सरदार एक अनुशासित सैनिक के नाते व्यक्तिगत सत्याग्रह में जेल गये। किंतु जब वे यरवदा जेल में थे उसी समय अप्रैल 1941 से अमदाबाद में एक भीषण हिन्दू मुस्लिम दंगा हुआ जिसमें हिन्दुओं ने जानमाल की बहुत क्षति उठायी। सरदार को जब जेल में इस दंगे की सूचना मिली तो उन्हें बहुत व्यथा हुई। उनके मन में प्रश्नों का तूफान उठ खड़ा हुआ। 'मुस्लिम उपद्रवकारियों में इतना साहस कहां से आया? ब्रिटिश अधिकारियों ने उनका उत्पात क्यों नहीं रोका? हिन्दुओं ने इतनी कायरता का परिचय क्यों दिया? इस दंगे में जितने हिन्दू मारे गए यदि उसके आधे भी साहस के साथ प्रतिरोध करने के लिए खड़े हो जाते तो क्या मरने वालों की संख्या कम नहीं हो जाती?'
किंतु सरदार इन प्रश्नों का उत्तर देने से पहले ही पुन: भारत छोड़ो आंदोलन के अन्तर्गत कारावास में पहुंच गये। 1945 में जब वे बाहर निकले तो घटनाचक्र बहुत आगे बढ़ चुका था। द्वितीय महायुद्ध में विजयी होकर भी अंग्रेज एक दुर्बल एवं तृतीय श्रेणी की शक्ति के रूप में बाहर निकले थे। अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों एवं आंतरिक दुर्बलताओं के दबाव में उन्हें भारत को स्वतंत्रता देने की दिशा में सोचना पड़ रहा था। किंतु इधर कांग्रेस का नेतृत्व बूढ़ा और थका हुआ था। उसके नेतृत्व में आस्था रखने वाला हिन्दू समाज असंगठित, निशस्त्र एवं कायर अहिंसा में जकड़ा हुआ पड़ा था। और उधर 1939 से 1945 तक कांग्रेस नेतृत्व के ब्रिटिश सरकार से संघर्ष का लाभ उठाकर मुस्लिम लीग के नेतृत्व में मुस्लिम समाज पूर्ण तथा संगठित एवं सशस्त्र हो चुका था। मुस्लिम समाज हिंसक शक्ति के सहारे मातृभूमि का विभाजन करने के लिए कटिबद्ध था।
इस पृष्ठभूमि में अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण के लिए समझौता वार्ताओं का एक लम्बा क्रम प्रारंभ हुआ। और उस दौरान यथार्थवादी पटेल का गांधी जी की भावुक एवं अव्यावहारिक नीतियों से मतभेद गहरा होता चला गया। कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक के संदर्भ में गांधी जी ने 1 जुलाई, 1946 को सरदार को लिखा 'आज की बातचीत मुझे अच्छी नहीं लगी। इसमें किसी का दोष नहीं। आप जानते हो कि आपके बहुत से कार्यों को समझने में मैं असफल रहा हूं..आप कार्य समिति में गरमी में बोलते हो, मुझे यह पसंद नहीं। किंतु मुझे दीख रहा है कि हम भिन्न दिशाओं में जा रहे हैं।'
सरदार ने इसके उत्तर में लिखा ह्यइस बार दिल्ली का वातावरण अविश्वास और संदेह से भरा हुआ प्रतीत हुआ। गरमी भी खूब थी। और हमारा तंत्र भी बेसुरा था। अब तो ईश्वर करे सो सही।ह्ण… 22 जुलाई, 1946 को सरदार ने गांधी जी को लिखा कि ह्यकांग्रेस की ऊपर से भले ही शोभा हो परंतु लोगों पर से उसका काबू उठ गया दीखता है।'
नोआखाली से गांधी की चिट्ठी
इसके पश्चात् ही अंतरिम सरकार बनी जिसमें सरदार ने गृह मंत्रालय संभाला। मुस्लिम लीग ने ह्यसीधी कार्रवाईह्ण के रूप में हिंसक सामर्थ्य का प्रदर्शन किया। पंजाब से लेकर पूर्वी बंगाल तक साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठी। हजारों निर्दोष हिन्दू पशुता की बलि चढ़ गये। सरदार ने गृहमंत्री होकर भी अपने को असहाय पाया। उन्होंने देखा कि किस प्रकार समस्त ब्रिटिश अधिकारी एवं उनके द्वारा नियंत्रित प्रशासकीय तंत्र मुस्लिम हिंसा की पीठ थपथपा रहा था। गांधी जी नोआखली में पड़े थे। वहां सरदार के विरुद्ध उनके कान भरे जाने लगे। इस बीच सरदार की स्पष्ट इच्छा के विरुद्ध नेहरू जी की दुर्बुद्धि के कारण मुस्लिम लीग को अंतरिम सरकार में प्रवेश करने का अवसर मिल गया। अंदर से अंतरिम सरकार को ध्वस्त करने और बाहर हिंसा के वातावरण को और गर्म करने के लीगी कुचक्र तेज हो गये। गृहमंत्री के नाते सरदार ने दृढ़ता से काम लेना चाहा। किंतु नेहरू और मौलाना आजाद सरदार के विरुद्ध हो गये। नेहरू जी स्वयं नोआखाली गये। उन्होंने गांधी जी के कान खूब भरे। गांधी जी ने 30 दिसम्बर 1946 को सरदार को एक पत्र में लिखा: ह्यआपके बारे में बहुत असंतोष सुना। बहुत में अतिशयोक्ति हो तो वह अनजाने में है। आपके भाषण लोगों को नाखुश करने वाले और उकसाने वाले होते हैं। आपने हिंसा अहिंसा का भेद नहीं रखा। तलवार का जवाब तलवार से देने का न्याय आप लोगों को सिखाते हैं। जब मौका मिलता है मुस्लिम लीग का अपमान करने से नहीं चूकते। यह सब सच हो तो बहुत हानिकारक है। पदों से चिपटे रहने की बात यदि आप कहते हैं, तो वह चुभने वाली है। जो सुना वह विचार करने के लिए आपके सामने रखा है। यह समय बहुत नाजुक है। हम जरा भी पटरी से उतरे कि नाश ही समझिये। कार्यकारिणी में जो एकरूपता होनी चाहिए वह नहीं है।'
इसके उत्तर में सरदार ने गांधी जी को 7 जनवरी, 1947 को जो पत्र भेजा वह बहुत ही मर्मस्पर्शी है। उन्होंने लिखा: ह्यआपका पत्र मिला। पढ़कर दुख तो हुआ। परंतु आपने तो जो समाचार मिले और शिकायतें सुनीं, उन पर भरोसा करके लिखा। उसमें लिखी हुई शिकायतें झूठी तो हैं ही। परंतु कुछ तो ऐसी हैं जो समझ में नहीं आ सकतीं।'
ह्यमैं पद से चिपका रहना चाहता हूं, यह आरोप बिल्कुल बनावटी है। जवाहरलाल पद छोड़ने की बार-बार धमकी देते हैं, जिसका मैंने विरोध किया है। कारण, इससे कांग्रेस की प्रतिष्ठा कम होती है और अधिकारियों पर बुरा असर पड़ता है। पहले छोड़ने का निश्चय करना चाहिए। बार-बार खाली धमकी देने से वाईसराय की नजर में इज्जत खो दी और अब वह मानता नहीं है। केवल ह्यब्लफह्ण के सिवा इन धमकियों में कुछ सच्चाई नहीं होगी, तभी तो उसने मुझसे अपना ह्यपोर्टफोलियोह्ण छोड़ने का आग्रह किया। तब मैंने तुरंत हट जाने की बात की और उसका परिणाम ठीक हुआ। मुझे यहां चिपके रहने से क्या लाभ? मैं तो रोग शय्या पर पड़ा हूं। मुक्त हो सकूं तो खुश हो जाऊं। इसलिए आपने यह शिकायत कैसे सुनी, यह समझ में नहीं आया।…'
'यह तो किसी लीग वाले ने भी नहीं कहा कि मैं लीग का बार-बार अपमान करता हूं।… तलवार का जवाब तलवार से देने के विषय में लम्बे वाक्यों में से एक ही टुकड़ा उठाकर शिकायत की गयी है।…'

पंजाब के बंटवारे का निर्णय
मुस्लिम लीग के उत्पात बढ़ते गये। 2 मार्च को पंजाब में खिज्रहयात खां मंत्रिमंडल का पतन हो गया एवं मुस्लिम लीग की सरकार बनी। केशधारी एवं गैर केशधारी हिन्दुओं पर चारों ओर से हमले होने लगे। सरदार ने अब तक अपना कर्तव्य निर्धारित कर लिया था। 8 मार्च, 1947 को उनकी प्रेरणा से कांग्रेस कार्यसमिति ने पंजाब को हिन्दू मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में बंटवारे का प्रस्ताव पारित कर दिया। यह एक प्रकार से देश विभाजन को स्वीकार करना था। गांधी जी उस समय बिहार में थे। उन्होंने इस प्रस्ताव को पढ़कर उसकी सार्वजनिक आलोचना की और 22 मार्च, 1947 को सरदार को पत्र लिखकर पूछा ह्यपंजाब का आपका प्रस्ताव समझा सकें तो समझाइये। मुझे समझ में नहीं आता।'
सरदार ने झुंझला कर उत्तर दिया ह्यपंजाब संबंधी प्रस्ताव को आपको समझा पाना कठिन ही है। यह प्रस्ताव बहुत सोच विचार के उपरांत स्वीकार किया गया। कोई काम जल्दबाजी  में या बिना सोचे विचारे नहीं किया गया। आपका विचार उसके विरुद्ध है यह हमें समाचार पत्रों से ही पता चला। किंतु जो आप ठीक समझते हैं वह व्यक्त करने के आप पूर्ण अधिकारी हैं। '
नेहरू जी ने भी गांधी जी के पत्र का उत्तर देते हुए लिखा कि यह प्रस्ताव वास्तविकता पर आधारित है और मि.जिन्ना की पाकिस्तान की मांग का यही एकमात्र उत्तर हो सकता है।
विभाजन स्वीकार क्यों किया?
किंतु सरकार के विभाजन के पक्ष में निर्णय के पीछे जो अनुभवपूत चिंतन विद्यमान था उसे उन्होंने अपने एक विश्वस्त सहयोगी श्री कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी के समक्ष व्यक्त किया था। सरदार से अपने इस ऐतिहासिक वार्तालाप को लेखबद्ध करते हुए मंुशी जी ने लिखा है:
'1947 में मैं और सरदार नई दिल्ली में श्री घनश्याम दास बिड़ला के अतिथि थे। जब कभी सरदार मूड में होते तो प्रात:कालीन भ्रमण के समय वे मुझसे अपने मस्तिष्क में घूम रही समस्याओं की चर्चा करते। एक दिन टहलते हुए, मानो मुझे चिढ़ाने के लिए वे बोले ह्यओ अखंड हिन्दुस्तानी!अब हम भारत का विभाजन करने जा रहे हैं।ह्ण वे संभवत: किसी मीटिंग में होकर आये थे। मुझे बड़ा धक्का लगा। क्योंकि वे विभाजन का सदा ही कड़ा विरोध करते रहे थे और राजा जी के विभाजन समर्थक विचारों की कड़ी आलोचना करते थे। तब उन्होंने अपने निर्णय का औचित्य मुझे समझाना प्रारंभ किया।
उन्होंने दो तर्क रखे। एक था कि ह्यकांग्रेस अहिंसा के प्रति वचनबद्ध होने के कारण विभाजन का प्रतिरोध नहीं कर सकेगी। प्रतिरोध करने का अर्थ होगा कांग्रेस की मृत्यु और मुस्लिम लीग से व्यापक हिंसा के स्तर पर एक लम्बा संघर्ष, वह भी तब जब कि ब्रिटिश सरकार का देश पर पुलिस तथा सेना के माध्यम से पूर्ण नियंत्रण है।ह्ण
ह्यदूसरा तर्क था कि यदि विभाजन को स्वीकार नहीं किया जाता तो नगरों और गांवों में भी लम्बा साम्प्रदायिक संघर्ष चलेगा। यहां तक कि सेना और पुलिस भी साम्प्रदायिक आधार पर बंट जाएगी। यदि यह संघर्ष टाला न जा सका तो हिन्दू अधिक असंगठित एवं कम कट्टर होने के कारण एक सुदृढ़ संगठन के अभाव में पराजित हो जाएंगे। अत: यदि यह संघर्ष होना ही है तो एक दूसरे से संगठित सरकारों के आधार पर निपटना ही सर्वोत्तम उपाय है। संभवत: दो सरकारों के बीच समझौता होना आसान होगा, बजाय देश भर में बिखरी हुई दो सम्प्रदायों की बीच होने के।'
मुंशी जी ने लिखा है कि ह्यतब तक मुझे हिन्दू मुस्लिम दंगों का पर्याप्त कटु अनुभव प्राप्त हो चुका था। मैंने देखा था कि ब्रिटिश अधिकारी सदैव मुसलमानों का साथ देते थे और हिन्दुओं को हमेशा बहुत हानि उठानी पड़ती थी। उदयपुर की सेना की प्रत्यक्ष जानकारी के कारण मेरे मन में संदेह उत्पन्न हो चुका था कि देशी रियासतों की सेनायें अपने क्षेत्र में ही साम्प्रदायिक दानव को कुचल पाएंगी कि नहीं।'
इस वार्तालाप से स्पष्ट है कि सरदार ने विभाजन को संगठित मुस्लिम हिंसा के समक्ष असंगठित अहिंसक हिन्दू समाज की क्षणिक पराजय के रूप में ही स्वीकार किया और उन्होंने खंडित भारत में एक सुदृढ़, शक्तिशाली, वीर, राष्ट्रभक्त समाज की रचना कर इस पराजय को विजय में परिवर्तित करने का सपना अपने मन में संजो रखा था। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 3 वर्षों के अपने जीवनकाल में उन्होंने भारत की एकता और सुदृढ़ता के लिए जो कुछ किया उसके बदले में उन्हें अपने ही सहयोगियों के जिस अविश्वास एवं षड्यंत्रों को झेलना पड़ा और अंतत: एक व्यथित, भग्न ह्ृदय को लेकर वे इस संसार से गये वह भारतीय इतिहास का एक बहुत ही पीड़ादायक पृष्ठ है।       जारी

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