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पाञ्चजन्य के प्रथम सम्पादक अटल जी के जन्म दिवस (25 दिसम्बर) पर विशेष
सोचना पड़ता है कि उनके मन की विराटता और ह्रदय की गहराई की तुलना किससे करें। अटल जी को जिन्होंने बहुत नजदीक से जाना और साथ में शायद दुनिया भर घूमे, उन कुछ सौभाग्यशालियों में मैं भी हूं। उनसे जिद करना, नाराज होना, उनसे असहमति के स्वर पाञ्चजन्य में भी मुखर करना और फिर भी उनके मन में उनके प्रिय बने रहना। यह आज केवल स्मृति की बात है। क्योंकि अब तो केवल, केवल और केवल ठकुर सुहाती का समय है। रज्जू भैया और अटल जी, दो ऐसे युगपुरुष हुए जो न आलोचना सुनने से संकोच करते थे, न ही वक्त पर सही निर्णय लेने से डरते थे। इसलिए वे कार्यकर्ताओं के मन में बसे। इसीलिए कोई प्रचार हो या न हो, कोई भी कार्यकर्ता देश के किसी भी कोने में होगा उसे अपनी खुशी और उदासी के क्षणों में अटल जी और रज्जू भैया की बहुत याद आती है।
पोकरण 2 का परीक्षण उनकी चट्टानी दृढ़ता और राष्ट्र रक्षा की उद्दाम इच्छा का प्रतीक था। किस प्रकार तनिक सी भी दुनिया भर में आहट न होने देते हुए उन्होंने अमरीका की चुनौती और धमकियों को रौंद कर पोकरण में जय पताका फहराई। यह उनके जैसे हिम्मत वाले स्वयंसेवक प्रधानमंत्री के बस की ही बात थी। अमरीका ने भारत का अतिशय विरोध किया, प्रतिबंध लगाए, सुपर कम्प्यूटर देने से इनकार किया, हमारे परमाणु कार्यक्रमों के लिए गुरुजल (हेवी वाटर) की आपूर्ति रोक दी, सैन्य उपकरण और आवश्यक सामरिक सामग्री पर रोक लगा दी। अमरीका के चलते पूरा यूरोप हमारे विरुद्ध खड़ा हो गया। लेकिन अटल जी टस से मस नहीं हुए। प्रो. विजय भाटकर जैसे वैज्ञानिकों के नेतृत्व में सुपर कम्प्यूटर अमरीका की लागत से दसवें हिस्से में भारत ने खुद बना लिया। अपने स्वदेशी क्रायोजैनिक इंजन का भी विकास किया। अमरीका को खुद हमारे समक्ष दोस्ती के लिए आना पड़ा। लेकिन हम अमरीका के पास अनुनय-विनय के साथ नहीं गए।
कारगिल युद्ध के समय भी उन्होंने वही जीवटता दिखाई। स्वयं मोर्चों पर सैनिकों का मनोबल बढ़ाने गये। पाकिस्तान को करारा जवाब देने में सेना के हाथ रोके नहीं और जब अमरीका की शरण में गये पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अमरीका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने व्हाइट हाउस बुलाया और संदेशा भेजा कि अटल जी भी वार्ता के लिए आएं तो भारत के प्रधानमंत्री श्री अटल जी ने साफ मना कर दिया और कहा कि यह हमारा मामला है, इसे हम खुद सुलझाएंगे।
जिस हिम्मत से वे रक्षा के संबंध में दुनिया के समक्ष चट्टानी दृढ़ता के साथ खड़े हो जाते थे उसी हिम्मत के साथ शांति के लिए भी लीक से हटकर फैसले करने की उनमें सामर्थ्य थी। परवेज मुशर्रफ के बार-बार आग्रह करने पर अंतत: उन्हें भारत बुलाया जाए, इसका परामर्श आडवाणी जी ने ही दिया था। मुझे याद है भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के एक कार्यक्रम में भाग लेने मार्च 2001 में आडवाणी जी के साथ मैं मसूरी जा रहा था तो रास्ते में गाड़ी में ही उन्होंने पूछा, तरुण आपको क्या लगता है, अगर परवेज मुशर्रफ को हम बुला लें तो जनता में क्या प्रतिक्रिया होगी? मैंने कहा, जनता मुशर्रफ के आने पर नाराज नहीं होगी, लेकिन मुशर्रफ से कठोरता से बात हो तब। आडवाणी जी ने अटल जी को सलाह दी जो उन्होंने मान ली। मुशर्रफ बेहद घटिया किस्म के फौजी हैं। वाघा सीमा पर जब अटल जी लाहौर बस यात्रा लेकर गये थे तो मुशर्रफ ने उन्हें सलामी नहीं दी थी। हमारे तत्कालीन वायुसेना अध्यक्ष श्री यशवंत टिपनिस ने भी मुशर्रफ के दिल्ली आने पर सलामी नहीं दी और देशभक्तों का मनोबल बढ़ाया। काश पूर्व वायुसेनाध्यक्ष टिपनिस को उनके योग्य महत्वपूर्ण पद और अलंकरण मिला होता। आगरा में मुशर्रफ ने बेईमानी दिखाई और अटल जी ने उन्हें बैरंग वापस भेजा।
स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के माध्यम से पूरे देश को एकता के सूत्र में बांध एक अद्भुत राजमार्ग क्रांति का अटल जी ने श्रीगणेश किया। एक ग्रांट रोड के लिए शेरशाह सूरी को इतना अधिक मान और महत्व दिया जाता है। अटल जी ने शेरशाह सूरी से सौ गुना बड़ा क्रांतिकारी काम किया। यही असाधारण और अभूतपूर्व अध्याय संचार के क्षेत्र में लिखा गया। जब अटल जी ने पूरे देश में मोबाइल टेलीफोन का नया युग रचा। आज जो हर व्यक्ति के हाथ में मोबाइल फोन तथा इंटरनेट क्रांति का वातावरण दिखता है उसके जनक अटल जी ही हैं।
उनको गुस्सा नहीं आता था। पर जब किसी बात पर वे बहुत अधिक आहत होते थे तो चुप हो जाते थे। कुछ ऐसे प्रसंग भी हुए जब वे अपने ही विचार परिवार के शिखर पुरुषों के प्रति कठोरता भरे आलोचना के शब्द कह सकते थे, लेकिन वे मन के दर्द को भीतर ही भीतर पी गये। मैंने कहा था उनसे कि अटल जी, आप सच्चे महापुरुष हैं। आप चाहते तो बहुत कुछ बोल जाते और जनता आपका बोलना न्यायोचित भी मान लेती। लेकिन आपने न बोलकर एक स्वयंसेवक की मर्यादा और परिवार की गरिमा को बचा लिया।
वे पाञ्चजन्य के प्रथम पाठक थे। ह्यधर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रेह्ण विशेषांक के प्रथम पृष्ठ पर काशी के डोम राजा के निवास पर जगद्गुरु शंकराचार्य वासुदेवानन्द सरस्वती जी और विश्व हिन्दू परिषद् के तत्कालीन अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल सहित अनेक श्रेष्ठजन को भोजन करते समय का चित्र छापा गया था। हिन्दू धर्म में अस्पृश्यता, कुरीतियों तथा पाखण्ड के विरुद्ध हमने जमकर लिखा था। वह अंक अविस्मरणीय बना और प्रधानमंत्री कार्यालय से अचानक फोन आया कि पीएम बात करेंगे। उधर से वही उनकी चिरपरिचित आवाज थी- विजय जी, बधाई। बहुत अच्छा अंक निकाला। ऐसा ही लिखना चाहिए। हमारा पूरा सम्पादकीय विभाग गद्गद् हो गया। पाञ्चजन्य पढ़कर वे अक्सर अपनी प्रतिक्रिया देते थे। एक बार स्वदेशी अंक में हमने भारत माता के चीरहरण का प्रतीक चित्र छापा और लिखा कि विदेशी धन और विदेशी मन भारत की अस्मिता पर कैसे प्रहार कर रहा है। अंक बाजार में पहुंचते ही प्रधानमंत्री कार्यालय से अटल जी का फोन आया- विजय जी यह ठीक नहीं किया। भारत माता का चीरहरण हो और हम जिन्दा रहें, ऐसा कैसे हो सकता है। नीतियों में मतभेद को अतिवादी भाषा में नहीं लिखना चाहिए।
कांग्रेस पर प्रहार करते समय श्रीमती सोनिया गांधी पर भी प्रहार होते थे। अटल जी ने हमें रोका और कहा, कांग्रेस को धराशायी करना है, उसके कार्यक्रमों और नीतियों पर प्रहार कीजिए। किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप या प्रहार करना हमारी राजनीतिक भाषा का अंग नहीं होना चाहिए।
पाञ्चजन्य की स्वर्ण जयंती स्वयं में एक अभिनव कालखण्ड की सर्जना कर गयी। स्वाभाविक रूप से स्वर्ण जयंती समिति की अध्यक्षता के लिए अटल जी से बेहतर और उचित कोई नाम हो ही नहीं सकता था। दुनिया में ऐसे कितने समाचार पत्र होंगे जिनके संस्थापक, सम्पादक प्रधानमंत्री भी बनें, और ऐसा संयोग दुनिया में और किसे मिला होगा कि जब वे प्रथम सम्पादक प्रधानमंत्री पद पर हों तभी उस समाचार पत्र की स्वर्ण जयंती भी मनायी जा रही हो। अटल जी ने तुरंत हमारा आग्रह माना और प्रधानमंत्री निवास में पाञ्चजन्य स्वर्ण जयंती के कार्यक्रमों की परिकल्पना और क्रियान्वयन के संबंध में दर्जनों बैठकें हुईं। अत्यन्त व्यस्तता के क्षणों में भी पाञ्चजन्य के लिए समय देने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया। पाञ्चजन्य नचिकेता पुरस्कार स्वयं में भारतीय पत्रकारिता के क्षेत्र में यशस्वी घटनाक्रम बना गये। उनका हमेशा यह आग्रह रहता था कि यह पुरस्कार घरेलू किस्म के नहीं बनने चाहिए। संपूर्ण देश में जो भी देश के हित में लिख रहा हो, भले ही वह हमारी विचारधारा से सहमत हो या असहमत हो, उसे सम्मानित करना पाञ्चजन्य की परम्परा का हिस्सा बनना चाहिए। ऐसा ही हुआ।
अजातशत्रु अटल जी भारतीय राजधर्म के ऋषितुल्य कीर्तिपुरुष हैं। वेदना को सहकर राष्ट्र की पीड़ा को हरना उन्होंने सिखाया। पांच वर्ष पूर्व उनकी अस्वस्थता की जैसे ही सूचना मिली तो मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उनके पास जाने से पहले फोन किया तो वे मंद-मंद हंसे और कहने लगे- ऐसा तो होता ही है। जब मैं मिलने गया तो उन्होंने एक दोहा सुनाया-
देह धरन को दण्ड है, सब काहु हो होय।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से, मूरख भुगते रोय।
बहुत ही दार्शनिक बात कह दी उन्होंने। मैंने पूछा, यह किसका है। बोले पता नहीं, मेरे पिताजी सुनाया करते थे।
ह्यरग-रग हिन्दू मेरा परिचयह्ण लिखने वाले अटल जी ने पूज्य रज्जू भैया की उपस्थिति में पाञ्चजन्य लेखक सम्मेलन में बहुत मन से गा कर, ह्यगगन में लहरता है भगवा हमाराह्ण गीत जब सुनाया तो उन क्षणों का रोमांच हमारे मन और तन में स्थायी होकर बस गया। संघ धारा पर लिखा उनका गीत ह्यकेशव के आजीवन तप की यह पवित्रतम धारा, साठ सहस ही नहीं तरेगा इससे भारत साराह्ण आज भी करोड़ों स्वयंसेवकों को तरंगायित करता है।
अटल जी बस अटल जी हैं। लाखों कार्यकर्ताओं के लिए एक आत्मीय पितृपुरुष। अद्भुत कवि, लेखक, पत्रकार, साहित्यकार, सम्पादक और राजऋषि। वे शतायु हों, शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करें। यही परमपिता परमात्मा से प्रार्थना है।
-तरुण विजय (लेखक राज्यसभा सांसद और पाञ्चजन्य के पूर्व सम्पादक हैं)
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