|
उल्लेखनीय है कि विकसित देश अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में यह दबाव बना रहे थे कि भारत द्वारा अपने खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों में सीमा से ज्यादा सब्सिडी दी जा रही है, जिसे वे विवाद में घसीट सकते हैं। देश में खाद्य सुरक्षा संबंधी बड़े-बड़े वादों के बाद भारत सरकार के पास कोई विकल्प नहीं था कि वे विकसित देशों की चुनौती को न माने, क्योंकि ऐसा करने पर देश में खाद्य सुरक्षा कानून और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम ही खटाई में पड़ जाता। सम्मेलन से पहले विकसित देश यहां तक तो मानने के लिए तैयार थे कि चार साल की शांति धारा लागू हो जाये, जिसके अनुसार खाद्य सुरक्षा और सार्वजनिक खाद्यान्न भण्डारण पर यदि कुल उत्पादन के मूल्य का 10 प्रतिशत से ऊ पर हो जाए तो भी, चार साल तक अमरीका, यूरोप और अन्य विकसित देश उसे डब्ल्यू़ टी़ ओ़ में चुनौती नहीं देंगे।
तीन दिसम्बर से प्रारंभ इस सम्मेलन में वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा के नेतृत्व में भारतीय प्रतिनिधि मंडल इस बाबत अड़ा रहा कि यह शांति धारा उसे स्वीकार नहीं है। इस बाबत खुलासा करते हुए, बाली कन्वेन्शन सेंटर, जहां यह सम्मेलन चल रहा था, 1000 लोगों की क्षमता वाले खचाखच भरे हाल में आनंद शर्मा ने जोर देकर कहा कि खाद्य सुरक्षा के मसले पर कोई समझौता नहीं हो सकता। आनंद शर्मा ने यह भी कहा कि डब्ल्यू़ टी़ ओ. के नियम विकासशील देशों और खासतौर पर भारत विरोधी हैं, इसलिए उसमें बदलाव करना होगा। उनके खुलासे के अनुसार सब्सिडी का हिसाब करते हुए, खाद्यान्नों की कीमत का आधार वर्ष 1988 (यानी 25 वर्ष पुराना) है, जिसका कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि उसके बाद देश और दुनिया में खाद्यान्नों की कीमतें कई गुणा बढ़ चुकी हैं। इसलिए उस आधार को लिया जाता है तो सब्सिडी की सीमा का उल्लंघन स्वाभाविक है, लेकिन वास्तव में वह सही नहीं है। इस आधार को बदलना होगा।
लेकिन 5 दिसम्बर की रात को अमरीका के विदेश व्यापार मंत्री के साथ बातचीत, मीडिया की खबरों के अनुसार इंडोनेशिया (जो सम्मेलन का मेजबान देश था) के राष्ट्रपति का डा़ मनमोहन सिंह को टेलीफोन, कुछ ऐसे घटनाक्रम हुए कि भारत के रुख में नरमी आ गई और भारत ने तमाम तर्कों को दरकिनार कर दिया और समझौते का अंतिम मसौदा तैयार हो गया और वह 6 दिसंबर की सुबह तक घोषित हो गया।
इस मसौदे (अंतिम फैसले) को जिसे भारत सरकार जीत का नाम दे रही है, वह वास्तव में भारत की हार है। जिस बात को जीत के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, वह है कि सब्सिडी संबंधी विवादों का अब स्थायी हल निकलने जा रहा है। अब स्थायी हल निकलने तक भारत की खाद्यान्न भण्डारण को विकसित देश चुनौती नहीं देंगे। लेकिन वास्तविकता यह है कि अभी तक इस बाबत किसी देश ने भारत के खिलाफ कोई भी विवाद डब्ल्यू़ टी़ ओ़ में डाला नहीं है। भविष्य में भी विकसित देशों के रुख के चलते इस बाबत कोई आशंका नहीं देखी जा रही थी।
खाद्य सुरक्षा पर रहेगी विदेशी नजर
समझौते का जो अंतिम मसौदा तैयार हुआ है, उसके अनुसार शांति धारा में पारदर्शिता का प्रावधान लागू किया गया है, जिसके अनुसार भारत सहित सभी विकासशील देशों को अपनी सार्वजनिक भण्डारण पर सब्सिडी के बारे में तमाम जानकारी डब्ल्यू.टी़ ओ. को देनी होगी और डब्ल्यू.टी़ ओ.की कृषि कमेटी उस जानकारी का मुआयना करेगी। इस प्रावधान का मतलब यह था कि, इस दौरान भारत को हर वर्ष डब्ल्यू.टी़ ओ. के समक्ष अपने समस्त खाद्य सुरक्षा खर्च की मात्रा, संरचना और उसके लिए एजेंसियों का ब्यौरा देना होगा और यह स्वीकार भी करना होगा कि वे नियमानुसार सब्सिडी की सीमा से ज्यादा खर्च कर रहे हैं। यही नहीं अन्य सदस्य देश भारत के कार्यक्रमों का निरीक्षण कर सकेंगे (यानि गलती पाए जाने पर उसे विवाद में घसीटा जा सकेगा)। देश के अंदरूनी मामलों में इस प्रकार की विदेशी नजर और हस्तक्षेप संम्प्रभुता के क्षरण का द्योतक है।
खाद्य सुरक्षा लागू नहीं हो सकता
समझौते के अनुसार आज की तिथि तक खाद्य सुरक्षा उद्देश्य से जो सार्वजनिक भण्डारण कार्यक्रम चल रहे हैं या घोषित कार्यक्रम जिनकी अधिसूचना नहीं हुई है, अब लागू नहीं हो पायेंगे। यही नहीं इस समझौते में खाद्य सुरक्षा के लिए परंपरागत खाद्यान्नों को ही शामिल किया गया है। लेकिन यदि भविष्य में खान-पान की आदतें बदलती हैं, तो नए प्रकार के खाद्य पदार्थों को उस खाद्य सुरक्षा के प्रावधानों में शामिल नहीं किया जा सकेगा। यही नहीं यह समझौता इस प्रकार से बना है कि यदि अनजाने में भी सब्सिडी प्राप्त खाद्यान्न निर्यात बाजार में चले जाते हैं, तो भी उसको विवादित माना जाएगा।
दोहा विकास वार्ताओं का अंत
पिछले छ: सम्मेलनों से दोहा विकास वार्ताओं की आशा बनी हुई थी, जिसके अनुसार डब्ल्यू.टी़ ओ. में हुए अभी तक के समझौतों में विकासशील देशों को जो असमान व्यवहार मिल रहा था और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में उन्हें नुकसान झेलना पड़ रहा था, उसका निराकरण हो सकेगा। लेकिन इस समझौते के बाद अंतरराष्ट्रीय व्यापार सुविधा का जो समझौता किया गया है, उसके अनुसार अब आगामी वार्ताओं को दोहा चक्र से लगभग बाहर कर दिया गया है, जिसके चलते अमरीका और यूरोप के देश अब अपने मन मुताबिक दोहा चक्र को समाप्त करवाते हुए अंतरराष्ट्रीय व्यापार वार्ताओं में नए मुद्दें शामिल करवाने में सफल हो जायेंगे।
व्यापार सुविधा नहीं आयात सुविधा
बाली में जिस व्यापार सुविधा के समझौते को अंतिम रूप से मान्य किया गया है, वह वास्तव में विकसित देशों से आने वाले साजोसामान के लिए तमाम प्रकार की सुविधाओं का समझौता है। इसका मतलब यह है कि अब बंदरगाहों पर प्रक्रियाओं को कम करना होगा, जिससे अमीर देशों से आने वाले आयात सुविधापूर्वक भारत में प्रवेश कर सकें। उल्लेखनीय है कि भारत में आज अंतरराष्ट्रीय व्यापार घाटा जीडीपी के 10 प्रतिशत से ज्यादा पहुंच चुका है, जिसके चलते हमें भुगतान संकट से जूझना पड़ रहा है और रुपया दिन-प्रतिदिन कमजोर होता जा रहा है। अमीर देशों से आने वाले आयातों को तमाम सुविधायें देने से भारत में आयातों की बाढ़ आ सकती है, जिसके कारण भुगतान संकट और ज्यादा गहरा हो सकता है।
यही नहीं भारत समेत विकासशील देशों के लिए यह सुविधायें प्रदान करने के लिए तमाम प्रकार के ढ़ांचागत निवेश की जरूरत होगी, जिस पर अब भारी खर्च करना पड़ेगा। आज जब भारत समेत विकासशील देश अपने लोगों को बुनियादी सुविधायें भी नहीं दे पा रहे हैं ऐसे में अपने बजट का एक बड़ा हिस्सा इस समझौते को लागू करने के लिए खर्च करना पड़ेगा।
यानी कहा जा सकता है कि भारतीय प्रतिनिधि मंडल ने बाली में जो ह्यजीतह्ण हासिल की है, वह खाद्य सुरक्षा कानून को जैसे-तैसे लागू करवाने संबंधी सरकार की जीत है, लेकिन इसके साथ ही देश की संम्प्रभुता का क्षरण हुआ है। भविष्य में गरीब जनता के लिए खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों को बढ़ाने पर रोक लगी है। यह समझौता आयातों को बढ़ाने वाला और भुगतान संकट को गहराने वाला है। डॉ़ अश्विनी महाजन
लेखक पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं
टिप्पणियाँ