जम्मू-कश्मीर का अनकहा अध्याय
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जम्मू-कश्मीर का अनकहा अध्याय

by
Dec 14, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 14 Dec 2013 14:07:17

 

जम्मू-कश्मीर की राजनीति को लेकर विवाद कभी शान्त नहीं होता। लेकिन दुर्भाग्य से यह सारा विवाद अभी भी इसी विषय पर अटका रहता है कि 26 अक्तूबर, 1947 को रियासत में संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू करने के लिये, जब भारत सरकार के रियासती मंत्रालय द्वारा तैयार किये गये मानक विलय पत्र पर महाराजा हरि सिंह ने हस्ताक्षर किये थे, तब यह हस्ताक्षर सशर्त थे या बिना किसी शर्त के। अचरज है, महाराजा हरि सिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद, उसके आंशिक या सशर्त होने को लेकर कभी प्रश्न नहीं उठाया , लेकिन जिन की इस विलय में कोई वैधानिक हैसियत नहीं थी, वे आज तक यह प्रश्न उठाते रहते हैं । पिछले दिनों जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संघीय संविधान के अनुच्छेद 370  पर नये सिरे से बहस की जरुरत पर जोर दिया तो राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस अनुच्छेद 370 को रियासत के विलय के साथ जोड़ना शुरू कर दिया।  इस बहस के शुरू होने से ठीक पहले जाने माने समाजशास्त्री डॉ. कुलदीप चन्द्र अग्निहोत्री की इस विषय पर नई पुस्तक ह्यजम्मू-कश्मीरह्ण की अनकही कहानी का बाजार में आ जाना संयोग ही कहा जायेगा। अग्निहोत्री की इस पुस्तक में अनेक संकेत मिलते हैं कि पंडित जवाहर लाल नेहरू और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला, दोनों मिल कर किस प्रकार जम्मू-कश्मीर को एक स्वायत्त राज्य बनाने के चक्कर में थे। प्रजा परिषद का जन आन्दोलन, जिस का नेतृत्व उस समय शेरे डुग्गर पंडित प्रेम नाथ डोगरा कर रहे थे, उन दोनों की इस योजना में दीवार बन कर खड़ा हो गया। यह ठीक है कि इस आन्दोलन में भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी समेत 16 लोगों ने आत्मबलिदान का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया।
 लेकिन दुर्भाग्य से प्रजा परिषद के इस ऐतिहासिक आन्दोलन को जान बूझकर सरकार ने हाशिये पर रखने का प्रयास किया और किसी सीमा तक उसे इसमें सफलता भी मिली । डॉ. कुलदीप अग्निहोत्री को इस बात का श्रेय जायेगा कि उन्होंने वैज्ञानिक ढंग से इस आन्दोलन का अध्ययन किया और जम्मू-कश्मीर की अनकही कहानी पुस्तक की रचना की।  इसमें कोई शक नहीं कि प्रजा परिषद के आन्दोलन ने राज्य की संवैधानिक एकीकरण की प्रक्रिया को त्वरित किया।
विवेच्य पुस्तक में प्रजा परिषद के आन्दोलन की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हुये आन्दोलन का विस्तृत इतिहास दिया गया है। विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने में हुई देरी का जिक्र करते हुये वे लिखते हैं- ह्यजवाहर लाल नेहरू रियासत को भारत में स्वीकारने के लिये तैयार थे, यदि महाराजा हरि सिंह अधिमिलन से पहले रियासत की सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंप दें। स्पष्ट था , नेहरू राष्ट्रीय हितों की बजाए व्यक्तिगत मित्रता को अधिक महत्व दे रहे थे। लेकिन लगता है नेहरू के समय जो नीति व्यक्तिगत हितों को ध्यान में रखकर अपनाई जा रही थी, आज वही नीति वोट बैंक को ध्यान में रखकर अपनाई जा रही है।ह्ण ग्रन्थ में इस बात की विस्तार से चर्चा की गई है कि किस प्रकार सरदार पटेल ने अपनी सूझबूझ से कश्मीर में सेना भेज कर माउंटबेटन की योजना को असफल किया। माउंटबेटन की इच्छा थी कि भारतीय सेना के पहुंचने से पहले कबायली कश्मीर घाटी पर कब्जा कर लें।  जिस समय नेहरू सेना भेजने से विश्व भर में क्या प्रतिक्रिया होगी, इसी को सोच कर पसीना पसीना हो रहे थे, पटेल उस समय सेना भेजने की तैयारी में लगे हुये थे।
 पुस्तक में 1952 में जम्मू में हुये छात्र आन्दोलन का विस्तार से एक अलग अध्याय में जिक्र किया गया है। यह आन्दोलन सरकारी कालेज में राष्ट्रीय ध्वज के स्थान पर ह्यनेशनल कान्फ्रेंसह्ण का झंडा फहराने पर हुआ था। आजकल इस आन्दोलन की चर्चा कम होती है, लेकिन इसी छात्र आन्दोलन ने राज्य के भावी इतिहास की दिशा तय कर दी थी। पांचवें और छठे अध्याय में प्रजा परिषद आन्दोलन के विस्तार, सरकारी दमन और जन संकल्प का वर्णन है। सातवें अध्याय में प्रजा परिषद् आन्दोलन के समर्थन में अन्य राजनीतिक दलों, खासकर जनसंघ द्वारा देश के शेष हिस्सों में चलाये गये आन्दोलन की जानकारी दी गई है। एक अलग अध्याय में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और नेहरू में इस आन्दोलन को लेकर किये गये पत्राचार का विश्लेषण किया गया है। मुखर्जी की रहस्यमय मौत के बाद प्रजा परिषद का आन्दोलन समाप्त हो गया था, लेकिन प्रजा परिषद उसके कई साल बाद भी प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रही।
  जैसा कि लेखक ने भूमिका में लिखा ही है कि राज्य की राजनीति में आज तक सर्वाधिक चर्चा नेशनल कान्फ्रेंस की हुई है, जिसने न तो जनता के निचले तबके तक सत्ता का लोकतंत्रीकरण किया और न ही पार्टी के भीतर लोकतंत्र को पनपने दिया। इस पार्टी ने राज्य में डोगराशाही की जगह अब्दुल्लाशाही स्थापित करने की कोशिश की और उसके लिये पंडित नेहरू की सहायता ली। प्रदेश में अब्दुल्लाशाही जड़ें तभी जम सकती थीं यदि उसे कुछ समय के लिये अनुच्छेद  370 के माध्यम से इनसुलेट कर दिया जाता। लेकिन आज शेख के वारिसों और नेशनल कान्फ्रेंस के तमाम प्रयासों के बावजूद राज्य में लोकतंत्र की जड़ें मजबूती से जम गई हैं।
कुल मिला कर आज जब जम्मू कश्मीर एक बार फिर चर्चा में है, उस समय यह पुस्तक बहस को आगे बढ़ाने व उसको सही दिशा देने में सहायक सिद्घ हो सकती है।

पुस्तक का नाम    –    जम्मू-कश्मीर की
          अनकही कहानी
लेखक             –      कुलदीप चंद्र अग्निहोत्री
मूल्य      –    175 रु.,  पृष्ठ – 280
प्रकाशक         –     प्रभात प्रकाशन
        4/19,आसफ अली रोड,             
        नई दिल्ली – 110002

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