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आंकड़ों के लिहाज से भाजपा की जीत जितनी बड़ी उससे ज्यादा बड़ी हार कांग्रेस की
वर्ष 2008 के मुकाबले कांग्रेस का मत प्रतिशत बढ़ा, बावजूद इसके सीटें हुई कम
इस बार के चुनाव में मोदी लहर का असर युवाओं के सिर पर चढ़कर बोला
ग्रामीण महिलाओं, किसानों और बुजुर्ग लोगों पर चला शिवराज का जादू
रणनीतिकारों और चुनावों विश्लेषकों की उम्मीदों से सीटें मिली भाजपा को
भाजपा के 10 मंत्रियों समेत कई विधायकों के हारने पर भी मिला बहुमा
पांच राज्यों के चुनाव परिणाम सामने हैं। विश्लेषण और मूल्यांकन के दौर जारी हंै। श्रेय लेने की मारा-मारी भी है। श्रेय देने की भी होड़ लगी है, ताकि देने वाले का भविष्य स्वर्णिम हो सके, लेकिन चुनावी आंकड़ों और तथ्यों का विश्लेषण लोकतंत्र, शासन, राजनीतिक संगठन और विचारधारा के साथ ही मुद्दों की कसौटी पर किया जाना भी जरूरी है। पांचों राज्यों के चुनाव में मध्यप्रदेश का परिणाम सबसे भिन्न और अनोखा है। दस वर्षों तक सत्ता में रहते हुए, सत्ताधारी दल के प्रति इस प्रकार का परिणाम गहन और गंभीर विश्लेषण की अपेक्षा करता है। सत्ता विरोधी लहर होने के बावजूद सत्ताधारी दल को इस प्रकार के प्रचंड जनसमर्थन के कई मायने हो सकते हैं।
इस चुनाव में पक्ष-विपक्ष के लिए कई समानताएं थीं। मसलन सरकार की बजाए दोनों दल स्थानीय ह्यएंटी इनकम्बेंसीह्ण का सामना कर रहे थे। विधायक चाहे भाजपा का हो या कांग्रेस का दोनों के प्रति नाराजगी थी। यही कारण है कि भाजपा के 10 मंत्रियों सहित कई विधायक चारों खाने चित हो गए, वहीं विपक्षी दल कांग्रेस के भी कई विधायक हारे। बगावत और आंतरिक कलह से दोनों दल परेशान रहे। लेकिन टिकट बंटवारे तक भाजपा में बगावत के सुर ज्यादा थे, कांग्रेस में कम। लेकिन जैसे ही प्रत्याशियों की अंतिम घोषणा हुई, कांग्रेस में बगावत और विद्रोह बढ़ता ही गया। भाजपा ने अपने घर की टूट-फूट की जल्दी मरम्मत कर ली, कांग्रेस अंतिम समय तक अपने आप को संभाल नहीं पाई। सरकार बनने की संभावना ने भाजपा के बगावत प्रबंधन को बड़ी ताकत दी, लेकिन कांग्रेस के बागियों ने आलाकमान से लेकर क्षत्रपों तक को चुनौती दे डाली, दम हो तो मैनेज करके दिखाओ। कांग्रेस की खेत को कांग्रेसी बागड़ ही खा गई। कांग्रेस के नेताओं ने ही अपने नारे को अपभ्रंश बना दिया ह्यहम सबकी यही पुकार कांग्रेस नहीं इस बार ह्ण मध्यप्रदेश के कांग्रेसी क्षत्रप एक-दूसरे को निपटाने की खुशी मना रहे हैं। आलाकमान सिर पीट रहा है। एक अन्य बात जो दोनों दलों में समान थी वह है कार्यकताअरं की उदासीन सक्रियता। भाजपा और कांग्रेस के कार्यकताअरं की बजाए उम्मीदवारों और क्षत्रपों के कार्यकर्ता ही सक्रिय रहे। अगर दोनों दलों के कार्यकर्ता सक्रिय होते तो मतदान 72.58 प्रतिशत की बजाये 75 प्रतिशत से कहीं अधिक होता।
भाजपा को प्राप्त मत और सीटों के आंकड़े बताते हैं कि भाजपा को जितनी बड़ी जीत हासिल हुई है उससे कहीं बड़ी हार कांग्रेस को मिली है। कांग्रेस की हार इस लिहाज से भी बड़ी है कि इसकी कीमत उसे आने वाले लोकसभा चुनाव में चुकानी पड़ेगी। हालांकि कांग्रेस को 2008 की तुलना में 3.4 प्रतिशत अधिक मत प्राप्त हुए हैं, फिर भी उसकी सीटें कम हो गई। वर्ष 2008 में कांग्रेस को सिर्फ 0.75 प्रतिशत अधिक वोट मिले थे और उसकी सीटें 38 से बढ़कर 71 हो गई थी। उल्लेखनीय है कि 2008 में उमा भारती की पार्टी भाजश को 4.71 प्रतिशत मत मिले थे। उमा भारती ने इन्हीं आंकड़ों के आधार पर यह दावा किया था कि वर्ष 2003, 2008 और 2013 में भाजपा की सरकार में उनकी अहम भूमिका रही। भाजपा नेतृत्व सार्वजनिक रूप से माने या न माने लेकिन दबी जुबान वे भी यह स्वीकार करते हैं कि 2003 में कांग्रेस विरोधी लहर उमा भारती के नेतृत्व के कारण प्रचंड बहुमत में परिणत हुई थी। जहां तक वर्ष 2008 की बात है तो अगर भाजश को मिला वोट अगर कांग्रेस के पाले में चला गया होता तो तब भाजपा की सरकार मुश्किल में होती। वर्षों निर्वासन के बाद चुनाव के पूर्व उमा भारती भाजपा में थीं। मध्यप्रदेश में उन्हें भले ही कोई जिम्मेदारी या दायित्व न मिला हो लेकिन भाजपा का वोट वापस भाजपा में आने के कारण काफी लाभ मिला है।
इस विधानसभा चुनाव में मोदी, शिवराज और उमा फैक्टर को नकारा नहीं जा सकता। युवा और नये मतदाताओं पर मोदी का जादू सिर चढ़कर बोला। शिवराज सिंह का जादू ग्रामीण महिलाओं, किसानों और बजुर्गों पर चला। शिवराज की लोकप्रियता ने सरकार और स्थानीय सत्ता-विरोध को धत्ता बता दिया। एन्टी इनकंबेंसी को न्यूट्रल करने में शिवराज की लोकप्रियता की बड़ी भूमिका रही। इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्रत्याशियों से नाराजगी के बावजूद शिवराज सरकार और मोदी के कारण भाजपा को वोट मिला। उमा भारती की उपस्थिति के कारण भाजपा का वोट भाजपा को वापस मिल गया। बाकी जो कसर थी वह कांग्रेस के भीतरीघात ने पूरी कर दी। इस सफलता की उम्मीद भाजपा को भी नहीं थी। भाजपा के नेता, रणनीतिकार और चुनाव विश्लेषक भी सदभावना के साथ भाजपा को 130 से 135 तक सीट दे पा रहे थे। किसी को भी कांग्रेस के भीतरीघात, मोदी और शिवराज के प्रभाव का इतना अंदाजा नहीं था, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि भाजपा इतनी बड़ी जीत को कैसे पचा पाएगी। 2003 के प्रचंड बहुमत को पचा पाने में भाजपा को नाको चने चबाने पड़े थे। इस बहुमत को हजम करने में तीन-तीन मुख्यमंत्री लगे। राजनीति का इतिहास यही है कि प्रचंड बहुमत सदैव संगठन को कमजोर करता है, कैडर, कार्यकर्ता और समर्थक के बीच का अंतर खत्म हो जाता है। सत्ता की बुराइयां संगठन को संक्रमित करती है। नेतृत्व ही नहीं, नेता और सामान्य कार्यकर्ता भी सरलता, सहजता, समर्पण, सदभाव, शिष्टता, सजगता, सादगी और सदाचार का त्याग कर अहंकार, ईष्या, विद्वेष, असहिष्णुता, अशिष्टता, निष्क्रियता, निष्ठुरता और असहजता का वरण करने लगते हैं। नेता कार्यकर्ता से और कार्यकर्ता आम लोगों से दूर हो जाते हैं। सत्ता का यही पहलू समय के साथ यही सत्ता-संगठन विरोधी लहर पैदा करता है। सरकार चलाने के साथ भाजपा को इसका भी उपाए तलाशना होगा। शिवराज सिंह चौहान को व्यक्तिगत तौर पर और सरकार के मुखिया के नाते भी जनता, कार्यकर्ता और संगठन की कसौटी पर खरा उतना होगा। उनके नेतृत्व में भाजपा ने इतिहास बनाया है। यह इतिहास बना रहे, लंबा सफर तय करे यह भी आवश्यक है। शिवराज को कुशाग्र दिमाग और बड़े दिल का नेता बने रहना होगा। मध्यप्रदेश भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं का गढ़ है। शिवराज के समक्ष सभी साधने और साथ लेकर चलने की बड़ी चुनौती है। बड़ी जीत का सिरमौर बनने के बाद यह चुनौती और बड़ी हो गई है। विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए सेमीफाइनल की जीत है। देश राजनीतिक परिवर्तन के मुहाने पर है। यह परिवर्तन इतिहास बनाने वाला होगा। इस इतिहास में मध्यप्रदेश का भी एक बड़ा अध्याय होगा। सेमीफाइनल में प्रधानमंत्री के भाजपा उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने अपनी भूमिका का निर्वाह बखूबी किया है। अब बारी मध्यप्रदेश के शिवराज सिंह चौहान की है। देखना है कि फाइनल में शिवराज के नेतृत्व में कैसा अध्याय लिखाजाता है। अनिल सौमित्र
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