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हाल ही में सम्पन्न हुए हिन्दी भाषी क्षेत्र के चार राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव अपने गर्भ में महत्वपूर्ण संकेत छिपाए हुए हैं। ये संकेत है:-
पहला- मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा शासन में थी, लेकिन इन दोनों राज्यों में सत्ता विरोध (एंटी इन्कम्बेंसी) का कारक दिखाई नहीं पड़ा। इसके विपरीत राजस्थान और दिल्ली में, जहां कांग्रेस सत्ता में थी, सत्ता विरोधी लहर अत्यंत प्रबल थी। स्थापित सरकार की सफलता की कसौटी है सत्ता विरोधी भावना को न पनपने देना। इस कसौटी पर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकारें खरी उतरीं जबकि राजस्थान और दिल्ली की सरकारें विफल रहीं।
दूसरा-नरेन्द्र मोदी का विरोध करने वाली ताकतें मोदी के प्रभाव को भले ही कम करके आंके, इन चुनावों के परिणामों पर मोदी का काफी प्रभाव रहा है और वह भारत की राजनीति के केन्द्र में और अधिक मजबूत बन कर उभरे हैं। आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी फैक्टर का कितना असर रहेगा, इस बारे में राजनीतिक विश्लेषकों में चर्चा और तेज़ हो गई है।
तीसरा- भाजपा के पास अनेक राज्यों में कद्दावर नेता हैं, जिनकी सशक्त जननेता के रूप में पहचान है, जबकि कांग्रेस में शक्तिशाली और व्यापक प्रभाव वाले राज्य स्तरीय नेताओं का अभाव है। नेहरू परिवार की वंशवादी राजनीति और निर्णय लेने की शक्ति का सोनिया-राहुल के हाथ में सिमट जाना एक हद तक इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है। इसके विपरीत भाजपा में निर्णय लेने का तंत्र और पद्घति सामूहिक और संघात्मक है, जिसमें राज्य इकाइयों की राय को उचित सम्मान दिया जाता हर।
चौथा- राष्ट्रीय स्तर पर नरेन्द्र मोदी के मुकाबले राहुल हल्के पड़ते हैं। मोदी की मुद्दों को उठाने, राजनीतिक स्थिति का विश्लेषण करने और भाषण की शैली, ये तीनों चीजें जनता को राहुल के मुकाबले अधिक प्रभावित करती है। कांग्रेस के सामने आने वाले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के तोड़ का नेतृत्व पेश करने की चुनौती मौजूद है।
पांचवां, विकास और सुशासन चुनाव के असली मुद्दे हैं। खाद्य सुरक्षा जैसे मोहक उपायों से मतदाता को बहकाना संभव नहीं। संसद और विधान सभा में लोक कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा कर देने या कानून पास कर देने भर से जागरूक मतदाता संतुष्ट नहीं हो सकता। लोक कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा से काम नहीं चलेगा, इन्हें नीचे तक पहंुचाने का कुशल, ईमानदार और प्रभावी ह्यडिलीवरी' सिस्टम बनाना होगा।
छटा- भ्रष्टाचार और महंगाई चुनाव के वास्तविक मुद्दे हैं। इन्हे नजरन्दाज करना या हल्के ढंग से लेना आत्मघाती होगा। जनता आर्थिक विकास की दर या आंकड़ों के रूप में विकास की दुहाई से संतुष्ट होने को तैयार नहीं, वह आर्थिक विकास को अपने जीवन की स्थिति में बदलाव के रूप में और बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता के रूप में देखना चाहती है।
सातवां- दिल्ली में भाजपा कांग्रेस के 15 वर्षों के शासन की ह्यएंटी इन्कम्बेंसी काह्ण वैसा फायदा नहीं उठा सकी जैसा उसने राजस्थान में कांग्रेसी शासन की पांच वर्षों की ह्यएंटी इन्कम्बेंसीह्ण का उठाया। दिल्ली के चुनाव परिणामों के कुछ और संकेत भी हैंं ह्यआपह्ण पार्टी ने कमजोर वर्गों में विशेष रूप से दलित समाज में बड़े पैमाने पर सेंध लगाकार कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचाया और दिल्ली की राजनीति में बसपा को भी प्रभावहीन बना दिया। शायद दलित और कामगार वर्ग में ह्यआपह्ण के झाड़ू चुनाव चिह्न की भावात्मक अपील ने भी असर दिखाया है। मध्यवर्ग के खासे बड़े हिस्से में भी ह्यआपह्ण ने संेध लगाई है, पर जैसे-तैसे भाजपा अपना परम्परागत मध्यवर्गीय वोट काफ़ी हद तक बचा लाई है। यदि ऐसा न होता तो भाजपा 23सीटों से बढ़कर 32 तक न पहुंचती और सबसे बड़े दल के रूप में न उभरती। लेकिन सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बावजूद भी भाजपा को 2013 के चुनावों में अपने प्रदर्शन पर तटस्थतापूर्वक और गहराई से विचार करने की जरूरत है क्योंकि 2008 के मुकाबले उसके वोट प्रतिशत में 3़8 प्रतिशत की कमी हुई है।
दिल्ली के मतदाता ने जो जनादेश दिया है उसकी व्याख्या कैसे की जाए? यह सच है कि मतदाता ने किसी भी पार्टी को सदन में बहुमत नहीं दिया, लेकिन यह भी सच है कि उसने भाजपा और ह्यआपह्ण को मिलाकर 70 से 60 सीटें दी हैं, भाजपा+अकाली दल को 32 और ह्यआपह्ण को 28, कांग्रेस जिसे 2008 में 43 सीटें मिली थीं, वह 2013 में महज़ 8 सीटों पर सिमट कर रह गई। साफ है कि मतदाता बदलाव चाहता था और जनादेश की एक ही व्याख्या हो सकती है ओर वह है बदलाव के लिए जनादेश। भाजपा को 33 प्रतिशत और आप पार्टी को 29 प्रतिशत वोट मिला हे। इन दोनों के वोट प्रतिशत को मिला लें तो यह 62 प्रतिशत बैठता है यानी 62 प्रतिशत मतदाताओं ने कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया है, क्या इन आंकड़ों से यह साफ नहीं हो जाता कि जनादेश स्पष्ट है, बदलाव के लिए जनादेश। ओम प्रकाश कोहली
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