सम्पादकीय : कब टूटेगा ताला?
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सम्पादकीय : कब टूटेगा ताला?

by
Dec 7, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Dec 2013 16:34:06

आमतौर पर होता यह है कि जम्मू की चर्चा कश्मीर में दब जाती है, मगर ऐसा पहली बार है कि बात जम्मू से उठी और मुद्दा बना कश्मीर।
जम्मू के मौलाना आजाद स्टेडियम में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अनुच्छेद 370 की प्रासंगिकता पर सवाल उठाकर एक राष्ट्रीय विमर्श की आवश्यकता जता दी है। एक ऐसी बहस जिसे कांग्रेस सहित कट्टरपंथियों को पालती सियासी ताकतें हमेशा से टालती रही हैं।
दरअसल, इस राज्य को देश और दुनिया के सामने भूल-भुलैया की तरह पेश करने वाले नहीं चाहते कि जम्मू-कश्मीर पर लगा अनुच्छेद 370 का ताला खुले। अस्थाई संवैधानिक व्यवस्था की बात पर अंधेरा बनाए रखते हुए वे नहीं चाहते कि महिलाओं और अनुसूचित-जातियों, जनजातियों को उनके हक की रोशनी मिले। राज्य की बाकी हिस्सों के साथ घाटी के दोयम बर्ताव की बातें बाहर जाएं। अन्य मतावलंबियों पर कट्टरपंथियों के अन्याय की दहलाने वाली कहानियां उजागर हों।
बकौल नेहरू, जिसे घिसते-घिसते मिट जाना था, संविधान के अस्थाई उपबंध की वही नाजुक सी कड़ी अलगाववादियों और मजहबी कट्टरपंथियों का कवच बनी खड़ी है तो सिर्फ इसलिए क्योंकि इसे कायम रखते हुए सत्ता और समर्थन के तुच्छ हित साधे गए और राष्ट्रहित को ताक पर रख दिया गया।
जम्मू-कश्मीर का विलय पत्र इस राज्य के किसी अलग दर्जे की घोषणा नहीं करता, भारतीय संविधान की पहली अनुसूची और खुद राज्य का विधान भारत का अभिन्न अंग होने की उद्घोषणा करता है फिर अलग दर्जे का सवाल कहां है? अनुच्छेद 370 का लबादा ओढ़ कौन अलगाव की आग लगाने पर आमादा है, राज्य के एक छोटे से हिस्से (कश्मीर घाटी) और सिर्फ यहीं के लोगों को पूरे राज्य के तौर पर प्रचारित करने का खेल कौन खेल रहा है, यह बात जनता को पता तो लगे।
भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर जम्मू-कश्मीर को देश से काटती, संविधान के प्रतिकूल जाती नेहरू की नीतियों के प्रखर विरोधी थे। उनके परिनिर्वाण दिवस (6 दिसम्बर) से राज्य में अनुसूचित जातियों पर हो रहे अन्याय की चर्चा का सिलसिला शुरू होना चाहिए । अपने बाल-बच्चों को विदेशों में पढ़ाते-जमाते नेशनल कांफ्रेंस और पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं के राज में महिलाओं और बच्चों को कैसे उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है, अल्पसंख्यकों की कैसी दुर्दशा है यह बात विश्व मानवाधिकार दिवस (10 दिसम्बर) पर दुनिया को पता चले तो अनुच्छेद 370 को ओढ़ने-बिछाने वालों का बिस्तर गोल होना तय है। यही वजह है कि मौलाना आजाद स्टेडियम से 370 का जिक्र होते ही सत्ता और अलगाव की मलाई पर पलते बयानवीर बौखला गए हैं।
वास्तव में यह वक्त बातों को उलझाने वालों को बहस के लिए देश के सामने खींचकर लाने का है। जम्मू-कश्मीर के लिए यदि नेहरू ने एक अस्थाई औजार का सहारा लिया तो मनमोहन सिंह अब तक क्यों उसी की टेक लगाए खड़े हैं यह तो देश की जनता को बताना ही होगा।
विडम्बना ही है भारत की संप्रभुता को नकारने, संविधान को रद्दी बताने और बात-बात पर तिरंगा जलाने वालों ने इसी देश के संविधान के एक अनुच्छेद की ढाल ले रखी है। वैसे, तारीख से जुड़ा विचित्र संयोग है कि 1 दिसम्बर, 1952 को इसी जम्मू के सचिवालय भवन पर तिरंगे की जगह राज्य का अलग झंडा फहराया गया था और राज्य सत्ता के विभाजनकारी विषाक्त इरादों की झलक दिखी थी। इस वर्ष एक दिसम्बर को जम्मू से भारतीयता के पक्ष में विमर्श की ललकार उठी है और जनता के मनों में जिज्ञासा का ज्वार उमड़ रहा है।
सरकार और समाज के लिए यह बहस जरूरी है। आइए, देखें जम्मू-कश्मीर के जिस दरवाजे पर 'अनुच्छेद का ताला' है उसके पीछे क्या खेल चल रहा है।

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