पटेल निंदा में जुटे नूरानी
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पटेल निंदा में जुटे नूरानी

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Dec 7, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Dec 2013 16:47:30

पटेल और नेहरू में कौन सच्चा सेकुलर राष्ट्रवादी था और कौन नहीं, यह बहस प्रारंभ होने के पहले दिन से ही इस विषय पर मैं मुस्लिम विद्वान ए.जी.नूरानी की प्रतिक्रिया की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहा था। 92 वर्ष की आयु पार कर जाने पर भी ए.जी.नूरानी की कलम अविराम चल रही है। चालीस-पचास से अधिक पुस्तकें वे प्रकाशित कर चुके हैं। अभी भी दो-चार महीने में उनकी एक नयी पुस्तक आ जाती है। चेन्नै से प्रकाशित और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार एन.राम द्वारा सम्पादित अंग्रेजी पाक्षिक फ्रंटलाइन के लगभग प्रत्येक अंक में नूरानी की कलम से लिखी लम्बी-लम्बी पुस्तक समीक्षाएं पढ़ने को मिल जाती हैं।
उनकी मूल निष्ठा
उनके विषय सुनिश्चित हैं। उनकी मूल निष्ठा इस्लाम में है और वे इस्लामी विचारधारा, इतिहास व भारत व विश्व भर के मुसलमानों से सम्बंधित प्रश्नों पर ही अपना लेखन केन्द्रित रखते हैं। लम्बे समय से उनको पढ़ते रहने के कारण मैं समझ जाता हूं कि वे किस निष्कर्ष पर पहुंचने वाले हैं। पर, फिर भी उनको पढ़ने में आनंद आता है क्योंकि वे उस निष्कर्ष पर पाठक को पहुंचाने के लिए तथ्यों और संदर्भों का अम्बार लगा देते हैं और सामान्य पाठक उस अम्बार में खो जाता है। उन्होंने किन तथ्यों और संदर्भों को दबा दिया, किनको कैसे मोड़ दिया इसे वही समझ सकता है जिसका उस विषय पर उतना ही व्यापक अध्ययन हो। पाठकों की सोच को एक दायरे में बांधने के लिए वे अपने मनचाहे विषयों पर संदर्भ सामग्री का संकलन और प्रकाशन भी करते हैं। उन्होंने भारतीय मुसलमानों पर दस्तावेजी प्रमाण, कश्मीर विवाद, अयोध्या विवाद पर दस्तावेजी संग्रह कई खंडों में प्रकाशित किये हैं तो हमारे ह्यमहनत्ता बिना परिणामह्ण वृत्ति के शोधकर्त्ताओं के लिए सहजता से प्राप्त संदर्भ ग्रंथ बन गये हैं। इस्लाम के प्रति निष्ठा और मुस्लिम समाज के प्रति आत्मीयता के कारण नूरानी स्वाभाविक ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा और सावरकर आदि राष्ट्रवादियों को मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिक मानते हैं। उनकी यह दृष्टि ह्यसावरकर एंड हिन्दुत्व, दि गोडसे कनेक्शनह्ण व ह्यदि आर.एस.एस एंड दि बीजेपीह्ण  शीर्षक पुस्तकों में देखी जा सकती है। ये दोनों पुस्तक सीपीएम के प्रकाशन गृह लेफ्टवर्ड ने प्रकाशित की है। उनकी सहज सहानुभूति जिन्ना के साथ है, इसलिए वे मन से गांधी विरोधी हैं। उनकी यह गांधी विरोधी भावना शहीद भगत सिंह तथा ह्यजिन्ना एंड तिलकह्ण जैसी पुस्तकों में झलकती है। वे लोकमान्य तिलक को जिन्ना के प्रशंसक और गांधी को जिन्ना के विरोधी के रूप में चित्रित करते हैं। उनकी नवीनतम रचना का शीर्षक है ह्यडेस्ट्रक्शन आफ हैदराबादह्ण जिसमें वे सरदार पटेल पर निजाम के विरुद्ध सैनिक कार्रवाई और हैदराबाद राज्य के निर्दोष मुसलमानों के कत्लेआम का आरोप लगाते हैं। अयोध्या विवाद, कश्मीर विवाद व हैदराबाद वाली पुस्तकें एक अन्य वामपंथी प्रकाशन गृह तूलिका से प्रकाशित हुई हैं। फ्रंटलाइन पाक्षिक, लेफ्टवर्ड एवं तूलिका से नूरानी के रिश्ते देखकर यह भ्रम पैदा हो सकता है कि शायद वे कम्युनिस्ट आंदोलन का अंग हैं या रहे हैं। किंतु उनके लेखन में ऐसा प्रमाण नहीं मिलता। यह कहना कठिन है कि नूरानी कम्युनिस्टों का हस्तेमाल कर रहे हैं या कम्युनिस्ट मुस्लिम वोटों को रिझाने के लिए वयोवृद्ध नूरानी का। किंतु इसमें संदेह नहीं कि नूरानी का लेखन उद्देश्यपूर्ण है, उसकी दिशा सुनिश्चित है, और तथ्यों व संदर्भों से भरा होने के कारण सामान्य पाठक को प्रभावित करने में सक्षम है। अत: मेरे मन में लम्बे समय से यह जानने की उत्कंठा रही है कि मुम्बई में एडवोकेट के नाते अपनी यात्रा आरंभ करने वाले नूरानी की कार्यशैली क्या है, उनके संदर्भ-केन्द्र का स्वरूप क्या है, लेखन में उनके सहायकों की संख्या कितनी है और उनकी पृष्ठभूमि क्या है? ए.जी.नूरानी के नाम से छपने वाला प्रभूत लेखन क्या उनकी अपनी कलम से निकलता है या केवल उनके मार्गदर्शन में लिखा जाता है। मैंने मुम्बई स्थित अपने कई साथियों से यह खोजबीन करने की प्रार्थना की किंतु वे अन्य कार्यों में इतना अधिक व्यस्त हैं कि वे इस निरर्थक काम को प्राथमिकता नहीं दे पाये।
अब आएं नेहरू और पटेल के तुलनात्मक मूल्यांकन पर फ्रंटलाइन (दिसम्बर ़13, 2013) में प्रकाशित उनके पन्द्रह पृष्ठ लम्बे ताजा लेख पर। इस अंक का पटेल और नेहरू के चित्रों और पटेल, नेहरू एंड मोदी शीर्षक से सज्जित मुखपृष्ठ ही उस लेख की दिशा एवं  निष्कर्ष की इन शब्दों में घोषणा कर देता है-
ह्यऐतिहासिक दस्तावेज प्रगट करते हैं कि मनुष्य के नाते सरदार वल्लभ भाई पटेल की दृष्टि घोर साम्प्रदायिक थी, जबकि जवाहरलाल नेहरू सेकुलर राष्ट्रवाद का प्रतीक थे। इससे स्पष्ट हो जाता है कि संघ परिवार एक की पूजा करता है और दूसरे को घृणा करता है।ह्ण
ए.जी.नूरानी का पटेल के विरुद्ध और नेहरू के पक्ष में यह फतवा तो तनिक भी अनपेक्षित नहीं है पर इस फतवे को जारी करने के लिए उन्होंने जो विशाल संदर्भ सामग्री जुटायी है वह सामान्य पाठक को चमत्कृत करने वाली है। उसे पढ़ने में सचमुच मजा आता है। लेख का शीर्षक स्वयं घोषणा करता है, ह्यपटेल का सम्प्रदायवाद-एक दस्तावेजी रिकार्डह्ण। लेख की दिशा को स्पष्ट करने वाली प्रारंभिक टिप्पणी कहती है,ह्यइंडियन राष्ट्रवादियों से सर्वथा भिन्न स्वयंभू हिन्दू राष्ट्रवादियों का एक षड्यंत्री गिरोह लगातार सरदार वल्लभ भाई पटेल का स्तुतिगान करता रहा है क्योंकि वह उन्हें अपना दिली दोस्त समझता है। उनका यह स्तुतिगान निरपेक्ष न होकर नेहरू विरोध से प्रेरित है।ह्ण क्यों? इसका उत्तर जवाहरलाल नेहरू के 5 जनवरी, 1961 के इस उद्गार में मिल जाता है कि ह्यबहुसंख्यक समाज के सम्प्रदायवाद को राष्ट्रवाद का आवरण मिल जाता है।

एकमेव राष्ट्रवादी
पटेल के सम्प्रदायवाद को उजागर करने के लिए लेखक नूरानी सरदार के राज्यों के विलय, कश्मीर की रक्षा, हैदराबाद में निजाम के षड्यंत्रों को विफल करने, विभाजन की विभीषिका के समय मुस्लिम शरणार्थियों के बारे  में नेहरू और पटेल की परस्पर विरोधी नीतियों, भारत छोड़ो आंदोलन के समय पटेल के आकलन आदि को ध्वस्त करने का प्रयास करता है। वह पटेल की उपलब्धियों को अस्वीकार करता है और उनकी विफलताओं का बखान करता है-जैसे गांधी जी की प्राणरक्षा करने में असफल रहना, आजाद और नेहरू का विरोध करना, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए नेहरू के पीठ पीछे कांग्रेस के दरवाजे खोलने का प्रयास करना। वह जगह-जगह नेहरू से कहलवाता है कि ह्यभारत को खतरा कम्युनिज्म से नहीं, बल्कि दक्षिणपंथी हिन्दू सम्प्रदायवाद से है।ह्ण लेखक की दृष्टि में नेहरू और आजाद एकमेव राष्ट्रवादी हैं, बाकी पूरा कांग्रेस नेतृत्व-राजेन्द्र प्रसाद, सरदार बल्देव सिंह, गोविंद वल्लभपंत, बंगाल के मुख्यमंत्री विधान चन्द्र राय और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल आदि हिन्दू सम्प्रदायवादी हैं। लेखक विभाजन के पश्चात नेहरू के मुस्लिम समर्थक और सरदार पटेल के मुस्लिम विरोधी कथनों को संदर्भ से काटकर उद्धृत करता जाता है। लेखक पटेल को व्यक्तिश: ईमानदार मानते हुए भी और अनेक प्रशंसनीय गुणों के होते भी ह्यछोटा और कमीनाह्ण घोषित कर देता है जबकि नेहरू को गंभीर कमियों एवं भारी विफलताओं के बावजूद महान की श्रेणी में रख देता है। लेखक कहीं भी राष्ट्रवाद और सम्प्रदायवाद की व्याख्या का प्रयास नहीं करता। उसकी दृष्टि में मुस्लिम हितों की रक्षा ही राष्ट्रवाद एवं सेकुलरिज्म है, जबकि भारतीय इतिहास व संस्कृति के प्रति आस्था और भारत की अखंडता की चिंता हिन्दू सम्प्रदायवाद या राष्ट्रवाद है। वह मुस्लिम पृथकतावाद एवं देश विभाजन के आंदोलन के प्रति मौन अपना लेता है। इन सब विषयों पर उसकी तर्क शैली की व्यापक समीक्षा आवश्यक है। इस लेख में हम उसका प्रयास नहीं कर रहे हैं। यहां तो हम पाठकों का ध्यान उस विपुल स्रोत-साम्रगी की ओर आकर्षित करना चाहते हैं जिसका उपयोग लेखक ने अपने निष्कर्षों को सिद्ध करने के लिए किया है। वह ब्रिटिश सरकार द्वारा तेरह खंडों में प्रकाशित ह्यट्रांसफर आफ पावरह्ण नामक विशाल ग्रंथ और दुर्गादास द्वारा दस खंडों में सम्पादित ह्यसरदार पटेल का पत्राचारह्ण शीर्षक अंग्रेजी ग्रंथमाला का उपयोग करता है। अपनी पुस्तकों के अतिरिक्त कई पाकिस्तानी प्रकाशनों का हवाला देता है। हिन्दुस्तान टाइम्स, टाइम्स आफ इंडिया और हिन्दू, इंडियन एक्सप्रेस आदि दैनिक पत्रों को उद्धृत करता है। फ्रेंच लेखक क्रिस्टोफर जेफरोलटे, वाल्टर एंडरसन की ह्यब्रदरहुड इन सेफ्रनह्ण, योगेन्द्र मलिक व वी.बी.सिंह आदि द्वारा भाजपा और संघ पर लिखी पुस्तकों का हवाला देता है। भारत में ब्रिटेन के पहले उच्चायुक्त आर्चीबाल्ड नेई, पूर्व विदेश सचिव वाई.डी.गुनडेविया के संस्मरणों का सहारा लेता है। लेखक की दृष्टि में हिन्दू मुस्लिम प्रश्न पर नेहरू जी और राजगोपालाचारी के विचार समान थे, जबकि डा.राजेन्द्र प्रसाद 1947 से 1950 तक मंत्रिमंडल में पटेल के साम्प्रदायिक एजेंडा को आगे बढ़ाने में सहयोग करते रहे। वह देशी रियासतों के विलय का पूरा श्रेय लार्ड माउंटबेटन और वी.पी.मेनन को देता है। चीन नीति पर सरदार के नेहरू के नाम प्रसिद्ध पत्र (नवम्बर 7, 1950) का लेखक सर गिरजा शंकर वाजपेयी को बताता है बिना यह स्पष्ट किये कि यह पत्र पटेल के हस्ताक्षरों से नेहरू को क्यों भेजा गया। सरदार को मुस्लिम विरोधी सिद्ध करने के लिए आसफ अली और मौलाना आजाद की साक्षियां पर्याप्त हैं। गांधी हत्या के लिए सरदार को दोषी ठहराने के लिए लेखक उन दिनों के समाजवादी नेता जयप्रकाश को उद्धृत करता है बिना यह समीक्षा किये कि आगे चलकर जयप्रकाश नारायण ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रशंसा में क्या कहा और राममनोहर लोहिया ने सरदार को गलत समझने की अपनी भूल को सार्वजनिक मंच से क्यों स्वीकार किया।
वस्तुत: ए.जी.नूरानी का यह लम्बा लेख उनकी विचारधारा और इतिहास को विकृत करने की उनकी बौद्धिकता को बेनकाब करने का प्रतीक्षित अवसर प्रदान करता है। हम यथासंभव इस दिशा में प्रयास करेंगे। सरदार की पुण्यतिथि (15 दिसम्बर) पर हमारी विनम्र श्रद्धांजलि होगी।            (5 दिसम्बर, 2013) देवेन्द्र स्वरूप  

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