आतंकग्रस्त कश्मीर में महिलाओं के अधिकार
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आतंकग्रस्त कश्मीर में महिलाओं के अधिकार

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Dec 7, 2013, 12:00 am IST
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दिंनाक: 07 Dec 2013 16:37:44

1989 में कश्मीर में आतंकवाद का दौर प्रारंभ हुआ। इसका पहला असर हिन्दू महिलाओं पर पड़ा, पर मुस्लिम महिलाएं भी इससे अछूती नहीं रहीं। कश्मीर घाटी में आतंकवादी अन्धाधुंध गोलियों की बौछार कर और राकेट लान्चर से अनगिनत लोगों को मौत के घाट उतार रहे थे। अनगिनत आदमियों को मार डाला गया। कई महिलाओं की भी हत्या की गई। जैसे- शीला टिक्कू, जो गृहिणी थीं, को 1 दिसम्बर, 1989 को श्रीनगर में मार डाला गया। एन.एम पाल, जो बीएसएफ में काम करते थे, की पत्नी को भी मार डाला गया। सरला भट्ट अनन्तनाग की रहने वाली महिला थीं। वह शेरे कश्मीर इस्टीट्यूट, श्रीनगर में नर्स का कार्य करती थीं। उन्हें भी आतंकवादियों ने मारा। उनका दोष था देशभक्ति। शेरे कश्मीर इन्स्टीट्यूट के तत्कालीन चिकित्सा अधीक्षक डा. गुरु के संरक्षण में रात को आतंकवादी बीमारों के बिस्तरों पर आराम करते थे और वहीं बन्दूक नीचे रखते थे। देशप्रेम के कारण एक दिन सरला पास के सीमा सुरक्षा बल की चौकी पर सूचना देने के लिए गईं। उसी रात तलाशी के दौरान उन आतंकवादियों को पकड़ा गया। बाद में जब उन्हें पता चला कि पुलिस को सरला भट्ट नर्स द्वारा सूचना दी गई थी, तब आतंकवादियों ने 3 दिन तक उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया और अन्त में उनके शरीर को तीन टुकड़ों में काटकर अस्पताल के मुख्य द्वार के बाहर फेंक दिया। सोपोर के प्रोफेसर कुन्दन लाल गंजू और उनकी पत्नी प्राना गंजू को आतंकवादियों ने पकड़ कर अपने शिविर में रखा। वहां प्राना गंजू के साथ समूहिक बलात्कार करके बेदर्दी से दोनों को मारकर वितस्ता नदी में उनकी लाश फेंक दी।
श्रीमती जी.एल. गंजू, जो अध्यापिका थीं। जून 1990 में उनका कत्ल कर दिया गया। कत्ल से पहले उनके साथ भी वही किया गया, जो सब महिलाओं के साथ किया गया था। पुलवामा की बबली और उसकी सास रूपावती के साथ पहले दुर्व्यवहार किया गया और 1 जुलाई, 1990 को उन दोनों को भी मार दिया गया। उसी दिन अन्य दो महिलाओं तेजा दर और गिरिजा दर को भी मार डाला गया। करन नगर, श्रीनगर में एक महिला चिकित्सक डा. साहनी का 16 जुलाई 1990 को सिर्फ इसलिए कत्ल कर दिया गया क्योंकि वह असहाय मुस्लिम महिलाओं का गर्भपात करवाती थीं। आतंकवादियों द्वारा बलात्कार करने के कारण ही ये महिलाएं गर्भवती हो जाती थीं। 17 अगस्त 1990 को बलजीत कौर की भी हत्या कर दी गई। बबली रैना को सोपोर में अगस्त 1990 में घर के सामने ही सामूहिक बलात्कार करके मार डाला गया। गान्दरबल की गिरिजा और आलीकदल की उषा तथा नीता  इन तीनों का भी बलात्कार के बाद कत्ल कर दिया गया। 25 जरवरी 1998 को वन्दहामा में 5 हिन्दू घरों से 25 लोगों को चुना गया। वहीं आतंकवादी गए और पहले चाय वगैरह पीकर सबको बाहर निकाला। यहां तक कि 2 छोटे अबोध बच्चों को बाहर घसीट कर लाए। बाहर लाकर 25 जनवरी को 25 लोगों की निर्मम हत्या करके 26 जनवरी को देश को ह्यतोहफाह्ण दिया। छोटी देवी पत्नी मोती लाल, सीमा कुमारी पुत्री मोती लाल, सारिका, जो पुलिस कांस्टेबल थी, विजय कुमारी, संजय कुमार, नीमू, शादीलाल, आशा, ज्योति, मीनाक्षी, विष्णु भट्ट, बदरीनाथ इन सभी की निर्मम हत्या कर दी गई।
कानून-व्यवस्था और मानवाधिकार की छांव तले यह हिन्दू महिलाओं का हाल था, लेकिन मुस्लिम महिलाएं भी सुरक्षित नहीं थीं। रात-रात भर आतंकवादी खाने और रहने के साथ-साथ घर की बहू-बेटियों के साथ बलात्कार करते थे। किसी के हस्तक्षेप करने पर बन्दूक का शिकार बना देते थे। इस खुलेआम बलात्कार में ज्यादातर मध्यम और  गरीब मुस्लिम परिवार प्रभावित हुए। पुलवामा में शीरीन का बच्चा उसका दूध पी रहा था और आतंकवादी अपने जिस्म को शांत करने के लिए उसका खून पी रहे थे। बाद में एक संस्था बनाई गई जिसका नाम ह्यदुखत्तरानी ई मिल्लतह्ण रखा गया।  जिन गरीब परिवारों में एक-दो लड़कियां होती थीं उनमें से बड़ी लड़की को इस संस्था में शामिल कर लिया जाता था। ये महिलाएं जिहाद में भाग लेने के लिए ट्रेनिंग लेती थीं। ट्रेनिंग के दौरान हिन्दुओं के खाली मकानों में इनका बलात्कार किया जाता था। इसकी सूचना स्थानीय मुसलमानों ने सरकार तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं को दी। वह दबी जुबान में मदद की गुहार कर रहे थे, क्योंकि खुले तौर पर मदद मांगने पर वह डरते थे कि उन्हें भी मार डाला न जाए। इस ट्रेनिंग के दौरान प्रतिरोध करने वाली कई मुस्लिम लड़कियों को बलात्कार करके कत्ल कर दिया गया।
कश्मीर में आरंभ में महिलाओं के पढ़ने की कोई व्यवस्था नहीं थी। सबसे पहले फियोसाफिकल सोसाइटी की अध्यक्ष डॉ. ऐनी बेसेन्ट ने 1905 में कश्मीर आकर तत्कालीन महाराजा प्रताप सिंह को एक कालेज खोलने के लिए प्रेरित किया, जहां लड़कियों को उचित शिक्षा दी जा सके। कालेज खोला गया और इसका नाम हिन्दू कालेज रखा गया। इस कालेज के लिए अनुदान बनारस से भी आता था। उन दिनों ऐनी बेसेन्ट बनारस में ही रहती थीं।
उनकी प्रेरणा के फलस्वरूप वुमेन वेल्फेयर ट्रस्ट की स्थापना की गई। इसी प्रेरणा के फलस्वरूप सबसे पहला स्कूल ह्यवसन्ता गर्ल्स स्कूलह्ण की स्थापना की गई। इसके बाद कश्यप गर्ल्स स्कूल की स्थापना की गई। जहां लड़कियों को शिक्षा देने का कार्य प्रारंभ किया गया। इसके बाद कई सरकारी स्कूल खोले गए, लेकिन समाज के ठेकेदारों ने महिलाओं को घर की चारदीवारी में बंद रखने पर जोर दिया। शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाने वाली लड़कियों के मां-बाप पर दबाव भी डाला गया। आम आदमी की बच्चियों का स्कूल तो छूट गया, लेकिन अमीर और रसूक वाले परिवार की लड़कियों की पढ़ाई बन्द नहीं हुई।
1947 में देश आजाद होने के बाद वास्तव में वहां जागृति आई। दस्तकारी तथा शिक्षा के कई केन्द्र खोले गए, लेकिन कट्टर मुल्लाओं ने घर में ही महिलाओं को रखना पसन्द किया, विशेषकर लड़कियों को शिक्षा देना उन्हें पसन्द नहीं था। वे कुरान की शिक्षा तक उन्हें सीमित रखना चाहते थे।
समाज के ठेकेदारों ने तथा मौलवी मुल्लाओं ने मदरसों में केवल मजहबी शिक्षा देने पर बल दिया। हालांकि आजादी के बाद इस पद्धति में थोड़ा सुधार हुआ था। फियोसाफिकल वेलफेयर ट्रस्ट के कारण वसन्ता, फिर कश्यप और जवाहर मिडिल स्कूल जो मुस्लिम लड़कियों के लिए विशेष रूप से था। मुस्लिम महिलाओं में शिक्षा का प्रसार करने के लिए हिन्दुओं का विशेष प्रभाव तथा महत्व रहा है। इस्लामिया कालेज फार वुमेन सोपोर में प्रो. सर्वानन्द टस्सू थे। आतंकवाद से पहले जितने भी हिन्दू स्कूल या केन्द्र चल रहे थे उन सबमें साठ प्रतिशत मुस्लिम लड़कियों की उपस्थिति होती थी। श्रीनगर का ललद्द मेमोरियल स्कूल, रूपा देवी शारदा पीठ रघुनाथ मंदिर के स्कूल में पंडित परमानन्द ने मुस्लिम लड़कियों को संस्कृत की शिक्षा भी दी है।
यद्यपि शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने अपने दौरे के दौरान मुस्लिम बहुल पिछड़ा इलाका डोडा में 1951 में अपनी इच्छानुसार लड़कियों का गर्ल्स हाई स्कूल खोलने का वादा किया। उसके लिए उन्होंने सेवानिवृत्त शिक्षक पंडित ताराचन्द सप्रू को नियुक्त कर वहां भेजा। उन्हें नौकरी पर पुन: नियुक्त कर लड़कियों को शिक्षित करने की जिम्मेदारी सौंपी। डोडा क्षेत्र के लोग आज भी उनके शैक्षिक अनुदान सहयोग को याद करते हैं।   

लेकिन आतंकवाद की आंधी में न शिक्षक रहे, न पढ़ने वाले, क्योंकि अपनी लड़की को खुलेआम कोई भी बलात्कार करवा के मौत की नींद नहीं देना चाहता। शिक्षा ग्रहण करती लड़कियों पर तरह-तरह की पाबंदी और बुर्का पहनना अनिवार्य करके मुल्लाओं और मौलवियों ने नए-नए कानून बनाए। इन आए दिन के कानूनों का विरोध करने के लिए न तो कानून है, न ही मानवाधिकारवादी। कभी-कभी ऐसा महसूस होता है कि भारत के मानचित्र में कश्मीर केवल मानचित्र में है, लेकिन वहां की वास्तविकता भी वहीं दफन हो जाती है।
सामाजिक संदर्भ में कश्मीर में धारा 370 के अन्तर्गत अगर वहां बाहर से कोई लड़की विवाह करके आती है, वह वहां की नागरिक बन जाती है। उसे सभी अधिकार दिए जाते हैं। फारूख अब्दुल्ला की पत्नी यद्यपि वह लन्दन की हैंाप, उन्हें सभी अधिकार दिए गए हैं। उमर अब्दुल्ला की पत्नी हिन्दू है। वह भी जम्मू कश्मीर की नागरिक हो गईं, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री बक्शी गुलाम मोहम्मद की नातिन जिसने पंजाब के तत्कालीन गर्वनर सुरेन्द्रनाथ के बेटे के साथ विवाह किया। उसको पिता की सम्पत्ति में कोई अधिकार नहीं दिया गया।
करण सिंह की बड़ी बेटी कुमारी ज्योत्सना का विवाह उत्तर प्रदेश के एक छोटे से राजघराने में हुआ। उनको अपने पिता की सम्पत्ति में कोई अधिकार नहीं मिला, जबकि उनकी भाभी ग्वालियर की राजकुमारी को सारा अधिकार मिल गया। उल्लेखनीय है कि करण सिंह के बेटे विक्रमादित्य सिंह का विवाह ग्वालियर राजघराने के माधव राव सिंधिया की बेटी चित्रांगदा राजे से हुआ है।
केन्द्रीय मंत्री शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर, जो सोपोर की रहने वाली हैं, भी अपनी पैतृक सम्पत्ति से बेदखल हो गई हैं। पिछले दिनों उन्होंने अपनी पीड़ा एक टी.वी. चैनल में व्यक्त की है।
जम्मू-कश्मीर की जो बेटियां रियासत से बाहर विवाह करती हैं, उनका कश्मीर में कुछ भी नहीं बचता है।
इसके बारे में पैंथर्स पार्टी के नेता डा. भीम सिंह ने एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर की थी और सुना गया है कि यह फैसला उनके हक में हुआ है।
उमर अब्दुल्ला की बहन सारा केन्द्रीय मंत्री सचिन पायलट की पत्नी हैं। इनका अधिकार वहां कोई जमीन खरीदने के लिए नहीं है।
आखिर यह कैसा मजाक है? लोकतांत्रिक देश भारत के लिए अलग-अलग कानून क्यों?  कहां हैं मानवाधिकारवादी, जो बेटियों का हक दिला सकें। इतना ही नहीं संगीत को सीखना भी कश्मीर में लड़कियों के लिए गुनाह है। प्रारंभ से गीत गाने वाली महिलाओं को इज्जत की नजर से नहीं देखा जाता था। राह चलती इन महिलाओं को ह्यगाने वालियांह्ण कह कर पुकारा जाता था। संगीत की साधना का विरोध आज भी वहां के मुल्ला-मौलवी करते हैं। अभी हाल ही में 7 सितम्बर 2013 को श्रीनगर में जुबीन मेहता का संगीत कार्यक्रम था, पूरा शहर कर्फ्यू में था। कोई कहीं बाहर आ जा नहीं सकता था, क्योंकि सामाजिक कार्यकर्ताओं और इन फिरकापरस्त लोगों ने बन्द का एलान किया था। कई दिन से वहां दहशत का माहौल था। पद पर आसीन लोगों ने उस संगीत का लुत्फ उठाया, लेकिन सुरक्षा के साथ। कट्टरवादियों के इस विरोध पर वे संगीतकार भी चुप रहे, जो कहते हैं कि संगीत का कोई मजहब नहीं होता है। मानवाधिकारी भी चुप रहे।   

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