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गृह मंत्रालय ने उच्चतम न्यायालय में दाखिल अपने शपथ पत्र में कहा-शहरों में रहने वाले उनके ह्यबुद्धिजीवीह्ण समर्थक हैं नक्सल लड़ाकों से ज्यादा खतरनाक
वर्ष 2009 में दिल्ली पुलिस के विशेष प्रकोष्ठ ने माओवादी नेता कोबाद गांधी को गिरफ्तार किया था
बुद्धिजीवियों का नक्सलियों से सीधा संबंध साबित करना होता है मुश्किल
अप्रैल 2010 में नक्सलियों द्वारा दंतेवाड़ा में 76 जवानों की निर्ममता से हत्या कर दी गई थी
नक्सलियों का जिक्र आते ही अबूझमाड़, दंतेवाड़ा, बस्तर और दंडकाराण्य ध्यान आ जाते हैं। अभी तक वनवासी और जंगली इलाकों में निर्ममता से सुरक्षा बलों और मासूम लोगों की हत्या करने वाले नक्सलियों से ज्यादा खतरनाक उन्हें नक्सल विचारधारा से जोड़ने वाले उनके तथाकथित बुद्धिजीवी हैं। नक्सलवाद का जो जहर अभी तक कुछ ही क्षेत्र में फैला था वह अब शहरों और विश्वविद्यालयों में जडं़े जमा रहा है। कुछ गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) मानवाधिकार हनन केा मुद्दा बनाकर नक्सल विचारधारा को प्रोत्साहित करने में जुटे हैं। बुद्धिजीवी पढ़े-लिखे और मासूम नौजवानों को बरगलाकर उन्हें नक्सल आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। गृह मंत्रालय ने स्वयं इस बात को स्वीकार किया है। उसकी तरफ से उच्चतम न्यायालय में शपथ पत्र दाखिल कर कहा गया है कि नक्सलियों से ज्यादा खतरनाक उनके वे बुद्धिजीवी समर्थक हैं, जो शहरों में रहते हैं और भोले -भाले युवकों को नक्सली लड़ाका बनने के लिए तैयार करते हैं।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2009 में दिल्ली पुलिस के विशेष प्रकोष्ठ ने दिल्ली के जनकपुरी इलाके के एक घर से माओवादी नेता कोबाद गांधी को गिरफ्तार किया था। उसके पास से भारी मात्रा मेंआपत्तिजनक दस्तावेज बरामद हुए थे।
उच्चतम न्यायालय में गृहमंत्रालय की तरफ से दिए गए शपथ पत्र से वामपंथी बुद्धिजीवियों के दोहरे चरित्र का पता चलता है। उदाहरण के लिए वर्तमान में सेकुलर संप्रग सरकार में नक्सल बुद्धिजीवियों को सबसे अधिक समर्थन व सहयोग मिलता नजर आता है। वर्तमान सरकार ने अनेक नक्सल विचारधारा के समर्थक बुद्धिजीवियों को पुरस्कृत किया और अनेकों को सरकारी पदों पर भी बिठाया। नक्सली गतिविधियों में शामिल रहने के आरोपी रहे डा. विनायक सेन को वर्तमान सरकार ने योजना आयोग की एक समिति का सदस्य बनाया हुआ है।
कुछ समय पूर्व मल्कानगिरी के जिलाधिकारी वी. कृष्णाराजू को मुक्त कराने के बदले जिन आठ नक्सलियों को सरकार ने रिहा किया था, उनमें एक बड़े नक्सली नेता अक्की राजू हरगोपाल की पत्नी ए. पद्मा भी शामिल थी, जो अमन वेदिका नाम के एक अनाथालय का प्रबंधन करती है, जो सोनिया सरकार की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हर्ष मंदर द्वारा संचालित एनजीओ है। इस तरह के अनेक नक्सल समर्थक राष्ट्र विरोधी एनजीओ, संस्थाएं व कथित बुद्धिजीवी सरकारी शह पाकर नक्सल प्रभावित, पिछड़े, वनवासी क्षेत्रों में सक्रिय हैं। इनमें से कई एनजीओ ईसाई मिशनरियों द्वारा भी संचालित किए जाते हैं।
अप्रैल 2010 में नक्सलियों द्वारा दंतेवाड़ा में 76 जवानों की निर्ममता से हत्या कर दी गई थी। तब भी इन नक्सल समर्थक बुद्धिजीवियों ने मीडिया में खुलेआम उसे उचित ठहराने का प्रयास किया था। दिग्विजय सिंह ने तो नक्सलियों के खिलाफ किसी भी सैनिक कार्रवाई करने का विरोध किया था। पिछले वर्ष कुख्यात नक्सली कमांडर कोटेश्वर राज उर्फ किशन जी की पुलिस मुठभेड़ के दौरान मौत हो गई थी। तब उसकी शव यात्रा उसके गृहनगर पेड्डा पल्ली (आंध्र प्रदेश) में निकाली गई थी। जिसमें कांग्रेसी सांसद जी. विवेक, तेलंगाना राष्ट्र समिति के विधायक ई. राजेंद्र समेत कई नेता, लेखक, गायक, सामाजिक कार्यकर्ता व वामपंथी शामिल हुए थे। पिछले 45 वर्षों के नक्सली-माओवादी हिंसा के इतिहास ने स्पष्ट कर दिया है कि नक्सली आंदोलन सत्ता संघर्ष और लूटमार से अधिक कुछ नहीं है। जैसा कि नक्सली नेता कानू सान्याल ने स्पष्ट लिखा था-सशस्त्र संघर्ष जमीन के लिए नहीं, राजसत्ता के लिए(लिबरेशन, नवंबर-1968)। इंडियन एक्सप्रेस के 29 सितंबर 1996 के अंक में छपी खबर के अनुसार-भारतीय नक्सली संगठनों का आतंकी संगठन लश्कर ए तैयबा से भी समझौता हो चुका है। इसी के चलते कारगिल पर हमले के समय नक्सलियों, माओवादियों और इनके समर्थक बुद्धिजीवियों ने पाक सेना और जिहादी आतंकवादियों से बातचीत की सलाह दी थी। नक्सलियों की क्रू रता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गत 10 जनवरी 2013 को झारखंड के लातेहर में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के एक जवान को मारने के बाद उसके मृत शरीर में उच्च तकनीक का बम लगाकर नरसंहार करने की योजना बनाई थी। पोस्टमार्टम के समय चिकित्सकों को शक हुआ और उनकी योजना विफल हो गई। वास्तव में नक्सल माओवादियों के प्रेरणा पुरुष विदेशी हिंसक व क्रू र तानाशाह रहे हैं। जैसे चीन का माओ, कंबोडिया का पोलपोट, रोमानिया का चैसेस्क्यू, हंगरी का कादर, पूर्वी जर्मनी का होनेकर, रूस के लेनिन व स्टालिन आदि।
उच्चतम न्यायालय में दाखिल अपने शपथ पत्र में गृह मंत्रालय ने कहा है कि नक्सलियों से लड़ने के लिए कोई नया कानून बनाने की आवश्यकता नहीं है। उनसे मौजूदा गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम कानून के तहत आसानी से निपटा जा सकता है। शपथ पत्र में शहरों में रहने वाले नक्सल समर्थक बुद्धिजीवियों को नक्सली लड़ाकों से ज्यादा खतरनाक करार दिया गया है। गृह मंत्रालय के अनुसार शहरों में बैठे नक्सली समर्थक बुद्धिजीवी न सिर्फ सुरक्षा बलों की कार्रवाई पर मानवाधिकार उल्लंघन की हायतौबा मचाते हैं, बल्कि नक्सलियों में शामिल होने के लिए नए युवाओं की भर्ती में सहयोग भी करते हैं। इस तरह के बुद्धिजीवियों का नक्सलियों से सीधा रिश्ता साबित करना मुश्किल होता है। गृह मंत्रालय का कहना है कि ऐसे ही बुद्धिजीवियों की वजह से नक्सल आंदोलन अभी तक जिंदा है।
नक्सली लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। उन्होंने वर्ष 2001 से अभी तक छह हजार लोगों को पुलिस का जासूस बताकर मार डाला है। नक्सलियों के हाथों मारे गए लोगों में ज्यादातर गरीब वनवासी थे। इसके अलावा अभी तक वे दो हजार सुरक्षाकर्मियों को भी मार चुके हैं। उनका उद्देश्य लोकतांत्रिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकना है। इसके लिए वे अपने प्रभाव वाले इलाकों में विकास के काम में बाधक बन रहे हैं। मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि कानून-व्यवस्था राज्य का विषय होने के कारण नक्सलियों से लड़ने की मुख्य जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। केंद्र और राज्य सरकारों के समेकित प्रयास का ही नतीजा है कि नक्सली हिंसा में गुणात्मक कमी आई है।
मुखौटा संगठन हो बेनकाब
गृह मंत्रालय ने नक्सलियों को प्रोत्साहित करने के लिए बने गैर सरकारी संगठनों और उनके व्यक्तियों पर नजर रखने के लिए कहा है। पिछले दिनों नक्सल प्रभावित 27 जिलों के पुलिस प्रमुखों की बैठक के दौरान उन्हें निर्देश दिए गए हैं कि यदि ऐसे संगठनों और लोगों द्वारा माओवादियों को प्रोत्साहित किया जा रहा है तो उनकी फाइल तैयार कर उन्हें गिरफ्तार किया जाए।
उल्लेखनीय है कि पुलिस प्रमुखों ने दो दिवसीय बैठक में गृह मंत्रालय को बताया था कि नक्सल विरोधी अभियान में सबसे बड़ी दिक्कत ऐसे ही संगठन पैदा कर रहे हैं। कोई भी अभियान चलता है तो ये संगठन उसे मानवाधिकार हनन का मुद्दा बनाकर हंगामा खड़ाकर उस अभियान को नाकाम करने की कोशिश करते हैं। इससे माओवादियों को नैतिक बल मिलता है। गृह मंत्रालय ने कहा है कि ऐसे संगठनों की पड़ताल हो, उनके प्रवक्ताओं के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार किया जाना चाहिए। डा. सुशील गुप्ता
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