छह महीने दफ्तर न आना इस अपराध का 'प्रायश्चित' कैसे!
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छह महीने दफ्तर न आना इस अपराध का 'प्रायश्चित' कैसे!

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Nov 23, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 Nov 2013 15:43:10

आज भारत के मीडिया की अग्निपरीक्षा है।  एक युवा प्रशिक्षु ने आरोप लगाया था कि एक सेवानिवृत्त जज ने उसकी तरफ गलत इरादे से कदम बढ़ाए थे। मीडिया ने उसे खूब बढ़-चढ़कर छापा था। भारत के मुख्य  न्यायाधीश ने इस मामले की पड़ताल करके रपट देने के लिए तीन जजों की जांच बैठा दी। मीडिया का एक वर्ग नाराज है कि गुजरात में पुलिस एक युवा महिला का संरक्षण या उस पर कथित नजर रख रही है, भले ही यह उसके या उसके परिवार की रजामंदी से किया जा रहा है।
गोवा की घटना, जिससे तरुण तेजपाल और एक युवा पत्रकार जुड़ी है, एक बिल्कुल अलग ही तरह का मामला है। पीडि़ता की शिकायत सीधे सीधे बलात्कार का मामला बनाती है। न्यायमूर्ति वर्मा समिति की सिफारिशों के बाद संसद ने बलात्कार की परिभाषा में संशोधन किया था। पीडि़ता की ईमेल में बलात्कार के अपराध के वे लक्षण सीधे सीधे शामिल हैं जो संसद द्वारा संशोधित कानून में हैं। आखिर अपराध की रपट क्यों नहीं दर्ज कराने दी गई? क्या पीडि़ता पर कोई दबाव डाला गया था कि शिकायत दर्ज न कराए? बलात्कार के अपराध का यह प्रायश्चित कैसे हो सकता है कि अपराधी छह महीने दफ्तर नहीं आएगा? तरुण तेजपाल और शोमा चौधरी के बीच जिस तरह गुपचुप करार ने बलात्कार का दंड मिलने की संभावना को रफादफा करने की कोशिश की, ऐसा तो पहले कभी सुनने मे नहीं आया। शोमा चौधरी इतने यकीनी तौर पर कैसे कह सकती हैं कि पीडि़ता पुलिस के सामने पेश नहीं होगी? क्या वह युवा कर्मचारी पर जुर्म को छुपाने का दबाव डालने के चलते सबूत के साथ छेड़छाड़ करने की दोषी नहीं हैं?
दिल्ली में निर्भया के सामूहिक बलात्कार के बाद जनांदोलन में शिकायत उभरी थी कि यौन अपराध हमेशा आधे-अधूरे दर्ज किए जाते हैं। क्या इस मामले में यही हो रहा है? अपराधी के कांग्रेस से तार जुड़े हुए हैं, सिर्फ इसीलिए देश पी़ चिदम्बरम की ज्ञान बघारने वाली सलाहों, कपिल सिब्बल के कटु वचनों और मनीष तिवारी के बड़बोले ट्वीट्स से वंचित है। 
हाल में मनीष तिवारी गोवा में थे। वहां उन्होंने हिटलर खोज निकाला था। खेद है कि वे गोवा में एक सीरियल बलात्कारी को नहीं खोज पाए। इसके साथ ही, हम सबको यह देखने का इंतजार रहेगा कि मीडिया को अपराध की गहनता के अनुपात में गुस्सा आता है कि नहीं। या युवा पत्रकारों पर सच को छुपाने के लिए पत्रकारिता वाले दबाव डाले जाएंगे। हो सकता है सेकुलर यौनाचार के संबंध में कुछ करने-बोलने का अलग पैमाना हो। हम सबको यह देखने का इंतजार है कि युवा महिला सच के साथ खड़ी होती है कि नहीं।
-वरिष्ठ भाजपा नेता अरुण जेटली
फेसबुक पर
 यह दोमुंहापन नहीं तो क्या है!
तहलका की प्रबन्ध संपादक शोमा चौधरी ने 20 नवम्बर को तमाम टीवी चैनलों पर तरुण तेजपाल के ह्यप्रायश्चितह्ण को ऐसा प्रचारित करने की कोशिश की मानो तेजपाल ने छह महीने दफ्तर न जाकर खुद को बेदाग साबित करने का बड़ा ह्यकाबिलेतारीफह्ण कदम उठाया हो। चौधरी बलात्कार के समकक्ष इस मामले को रफादफा करने की पूरी जुगत भिड़ाती दिखीं। उन्होंने अपनी ओर से ही कह दिया कि पीडि़ता पुलिस के सामने पेश नहीं होगी। शोमा की कथनी और करनी में कितना फर्क है, इसे दिखाने के लिए दो उदाहरण काफी हैं।
गोवा में हुए तहलका के उस ह्यथिंक फेस्ट-2013ह्ण में इन्हीं चौधरी ने कथित यौन काण्ड के ठीक अगली सुबह एक परिचर्चा का संचालन किया था, जिसका विषय था-ह्यपशु तो हमारे ही बीच में है-बलात्कार के पीडि़तों की दास्तानह्ण। उसमें चौधरी ने बड़ी गंभीरता से बड़ी बड़ी बातें करते हुए कहा था कि बलात्कार के 98 फीसदी मामलों में अपराधी पीडि़त की जान पहचान वाले ही होते हैं। उन्होंने आगे कहा था कि हम अपने बीच मौजूद इन पशुओं को ही अनदेखा कर देते हैं।
13 नवम्बर को अपने एक ट्वीट में शोमा ने लिखा था-ह्यरंजीत सिन्हा को उनकी ह्यबलात्कार का मजाह्ण लेने वाली टिप्पणी के चलते उनके पद से हट जाना चाहिए। यह सोच कर ही डर लगता है कि वे ऐसी टिप्पणी को सही ठहराने की सोच तक सकते हैं।ह्ण
तेजपाल को अपने किए की सजा दिलाने की मुहिम छेड़ने की बजाय शोमा तेजपाल के ह्यप्रायश्चितह्ण को महिमामंडित करने का सोच तक सकती हैं, यह न केवल तहलका में काम करने वाली और महिला पत्रकारों में भय पैदा कर गया होगा बल्कि यह ह्यथिंक फेस्टह्ण के आयोजन के पीछे के मानसिक उथलेपन को भी रेखांकित कर देता है।   पाञ्चजन्य ब्यूरो

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