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कांग्रेस और रा.स्व. संघ
कांग्रेस का लक्ष्य था स्वराज और स्वराज्य की परिभाषा की जाती थी कि भारत ब्रिटिश साम्राज्य का एक उपनिवेश बन कर रहेगा। डा़ हेडगेवार चाहते थे कि कांग्रेस अपना लक्ष्य स्वराज की बजाए ह्य पूर्ण स्वातंत्र्यह्ण निर्धारित करे। इसके लिए उन्होंने सन् 1920 के नागपुर अधिवेशन से प्रयत्न आरंभ किया। उनके सतत प्रयत्न के फलस्वरूप 9 वर्ष के बाद लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस ने ह्य पूर्ण स्वातंत्र्यह्ण का लक्ष्य घोषित किया। प्रस्तुत है इन वर्षों की प्रयत्न यात्रा का विवरण। गतांक से आगे
विशुद्ध स्वातंत्र्य, पूर्ण स्वाधीनता, पूर्ण स्वराज्य आदि इन सभी शब्दावलियों का एक ही हेतु था-कांग्रेस की अब तक चली आ रही औपनिवेशिक दर्जे की अवधारणा को ध्वस्त करना, भारत को ब्रिटिश शासन के पंजे से पूर्णतया मुक्त करने की दिशा निर्धारित करना। अत: यह विचार उत्तरोत्तर शक्ति प्राप्त करता गया और अनेक प्रभावशाली लोग धीरे-धीरे इस मत के बनते गए।
जवाहर लाल नेहरू
दिसम्बर 1927 के मद्रास अधिवेशन में जवाहर लाल नेहरू ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव रखा। उस समय गांधी वहां नहीं थे। गांधी इस प्रस्ताव को पसंद करते हैं या नहीं कोई नहीं जानता था। इसलिए किसी भी नेता ने इसके पक्ष या विपक्ष में कुछ नहीं बोला। इस प्रकार बिना विचार हुए ही प्रस्ताव पारित हुआ। जवाहर लाल नेहरू जी को इससे बड़ा दु:ख हुआ। यह तो पारित न होने के ही बराबर था। इसके कुछ ही दिन बाद जवाहर लाल नेहरू को गांधी का 4 जनवरी 1928 का लिखा पत्र मिला जिसमें लिखा था-तुम बहुत ही तेज जा रहे हो…तुमने जो प्रस्ताव तैयार किए और पास कराए, उनमें से अधिकांश के लिए एक साल की देर थी। फलत: इसके बाद 3 मई 1928 को सुभाष चन्द्र बोस ने भी महाराष्ट्र प्रांतीय सम्मेलन पूना में अपने अध्यक्षीय भाषण में पूर्ण स्वातंत्र्य का उद़घोष कर दिया।
सुभाष चन्द्र बोस
दिसम्बर 1928 में कोलकाता अधिवेशन में गांधी जी ने प्रस्ताव रखा कि दिसम्बर 1929 तक यदि ब्रिटिश सरकार भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य का दर्जा नहीं देती तो कांग्रेस एक अहिंसक असहयोग आंदोलन शुरू कर देगी। सुभाष चन्द्र बोस ने इस प्रस्ताव में औपनिवेशिक स्वराज्य के स्थान पर संशोधन पेश किया कि कांग्रेस पूर्ण स्वराज्य से कम किसी भी दर्जे से संतुष्ट न होगी। इस संशोधन पर मतदान हुआ। संशोधन के पक्ष में 973 तथा विपक्ष में 1350 मत पड़े, फलत: संशोधन गिर गया। इसका सीधा अर्थ था कि तब तक कांग्रेस के 973 अखिल भारतीय प्रतिनिधि पूर्ण स्वराज्य के पक्ष में हो चुके थे।
डा.हेडगेवार भी इस अधिवेशन में मध्य प्रांत की कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य के नाते उपस्थित थे। स्वाभाविक ही उन्होंने भी इस संशोधन के पक्ष में पर्याप्त प्रयास किया होगा। सुभाष चन्द्र बोस से उनका लम्बा विचार विमर्श भी इसी अधिवेशन के दौरान बाबा राव सावरकर की उपस्थिति में हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि बहुमत इस संशोधन के पक्ष में ही था, लेकिन गांधी जी के समर्थकों ने प्रचार किया था कि यदि यह संशोधन पास हो गया तो गांधी जी कांग्रेस छोड़ देंगे। इस प्रचार के कारण दुर्बलमना कांग्रेसी संशोधन के पक्ष में खड़े होने का साहस नहीं जुटा पाए और सुभाष चन्द बोस का संशोधन गिर गया। सुभाष ने स्पष्ट आरोप लगाया था कि मतदान यदि निष्पक्षता व स्वतंत्रता से कराया जाता तो संशोधन कदापि न गिरता।
कांग्रेस के लक्ष्य के शुद्धिकरण का यह तीसरा प्रयास था। सुभाष चन्द्र बोस और गांधी जी का मतभेद इस प्रस्ताव से ही आरंभ हुआ था। आश्चर्य की बात यह है कि स्वराज्य में ही विशुद्ध स्वातंत्र्य का समावेश हो जाता है, 1920 में ऐसा करने वाले गांधी जी ने ही औपनिवेशिक स्वराज्य का प्रस्ताव रखा और इतना ही नहीं तो मतदान के समय उसे निजी प्रतिष्ठा का प्रश्न भी बना लिया। इससे यह सिद्ध होता है कि स्वराज्य की अवधारणा के बारे में गांधी जी स्वयं ही स्पष्ट नहीं थे।
अंग्रेजों ने भारत को औपनिवेशिक दर्जा न देना था, न दिया। वे तो इसे लालीपाप के रूप में कांग्रेस नेताओं को दिखाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे थे। एक वर्ष बीतने को आ रहा था। कलकत्ता प्रस्ताव के अनुसार अहिंसक असहयोग आंदोलन चलाने के सिवाय कोई चारा न था। परंतु आंदोलन की प्रेरणा क्या होगी? लोग आंदोलन में क्यों शामिल होंगे? क्या औपनिवेशिक स्वराज्य के लिए? लेकिन नई पीढ़ी तो इसके पूर्णत: विरुद्ध हो चुकी थी। पुरानी पीढ़ी के भी अधिकांश लोग इसे भारत के लिए अपमानास्पद मानने लगे थे। महात्मा गांधी औरा मोतीलाल नेहरू जैसे कुछ वरिष्ठ लोग ही बचे थे, जो अभी तक इससे चिपके हुए थे। लेकिन इनके पास भी औपनिवेशिक स्वराज्य के पक्ष में और पूर्ण स्वराज्य के विरोध में ऐसे तर्क नहीं थे, जिन्हें वे लोगों में गले उतार सकें। इसके विपरीत पूर्ण स्वराज्य अथवा पूर्ण स्वातंत्र्य कहने पर किसी तर्क की आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि वह जन-जन की स्वाभाविक आकांक्षा थी। ब्रिटेन के ताज की छत्र छाया में रहने वाला राज्य स्वराज्य कैसे हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर वरिष्ठजन दे नहीं पाते थे। उन्हें लगने लगा कि उनकी वरिष्ठता का प्रभा मंडल अब सिकुड़ने लगा है, वह प्रभावहीन होता जा रहा है। अत: मजबूर होकर उन्हें अपना हठ छोड़ना पड़ा।
भगत सिंह
एक और घटना ने भी गांधी जी को अपनी अवधारणा बदलने के लिए बाध्य कर दिया। 9 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केन्द्रीय असेम्बली में बम का धमाका कर दिया स्वराज्य से पूर्ण स्वराज्य अथवा पूर्ण स्वतंत्रता तक की यह यात्रा नौ वर्ष में पूरी हुई। यदि कांग्रेस 1920 में नागपुर अधिवेशन के समय ही पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य को अपना लेती तो देश का इतिहास कुछ और ही होता।
31 दिसम्बर की अर्धरात्रि को रावी के तट पर पूर्ण स्वतंत्रता की शपथ ली गई। स्वाभाविक ही इसकी सर्वाधिक प्रसन्नता जिसको हुई, वे थे डा.हेडगेवार। अत: डाक्टर जी ने सभी संघ शाखाओं को एक परिपत्र भेजा। उसमें लिखा था-
संघ शाखाओं में कांगे्रस का अभिनंदन
ह्यइस वर्ष कांग्रेस का ध्येय पूर्ण स्वतंत्रता निश्चित हो जाने के कारण कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने घोषणा की है कि रविवार 26 जनवरी 1930 हिन्दुस्थान भर में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाए। अखिल भारतीय राष्ट्रीय सभा ने अपना स्वतंत्रता का ध्येय स्वीकार किया है, यह देखकर अपने को अत्यानंद होना स्वाभाविक है। वह ध्येय अपने सामने रखने वाली किसी भी संस्था के साथ सहयोग करना अपना कर्तव्य है। अत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सब शाखाएं रविवार दिनांक 26 जनवरी 1930 को सायंकाल ठीक 6 बजे अपने संघ स्थान पर शाखा के सभी स्वयंसेवकों की सभा करके राष्ट्रीय ध्वज अर्थात् भगवे झंडे का वंदन करें। व्याख्यान के रूप में स्वतंत्रता की कल्पना तथा प्रत्येक को यही ध्येय अपने सामने क्यों रखना चाहिए, यह विशद करके बताएं और कांग्रेस के द्वारा स्वतंत्रता के ध्येय का पुरस्कार करने के लिए अभिनंदन का समारोह पूरा करें।ह्ण तद्नुसार सभी शाखाओं में स्वतंत्रता दिवस मनाया गया था। पोवाडे, शोभायात्रा, व्याख्यान तथा श्रद्धानंद साप्ताहिक में से स्वतंत्रता विषयक लेखों का वाचन एवं वंदे मातरम का उदघोष आदि भिन्न भिन्न प्रकार के कार्यक्रम इस अवसर पर हुए थे। (समाप्त) कृष्णानंद सागर
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