संपादकीय : पूजा सिर्फ कुनबे की
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संपादकीय : पूजा सिर्फ कुनबे की

by
Nov 9, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Nov 2013 15:01:02

पूजा सिर्फ कुनबे की देश में केन्द्रीय सत्ता के विरुद्ध बहती हवा और मीडिया में आ रहे राज्य विधानसभा चुनावों के रुझानों से यूपीए की मुख्य घटक, कांग्रेस पार्टी बुरी तरह बेचैन है। 'ओपिनियन पोल' को प्रतिबंधित करने से लेकर उजले चेहरों की कलंक कथाओं को दबाने तक के लिए एड़ी-चोटी का जोर दिल्ली से लगाया जा रहा है। दरअसल, कांग्रेस की यह छटपटाहट उस वंशवादी तिलिस्म की टूटन से पैदा हुई  है जिसे पार्टी के भीतर, खुद पार्टी से भी ऊपर मान लिया गया था और जिसे अब जनता ने नकारना शुरू कर दिया है।पार्टी प्रबंधकों की परेशानी यह है कि अब राहुल की रैलियों से जनता गायब दिखती है, सोनिया का भाषण भावनात्मक हिलोर नहीं जगा पाता और प्रियंका का जिक्र छिड़ते ही देश भर में लोग 'वाड्रा' के कामधंधे के बारे में चर्चा करने लगते हैं।वास्तव में, जो दल स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले जनभावनाओं का साझा मंच हुआ करता था उसे सिर्फ एक परिवार तक केंद्रित करने की कोशिश ही पार्टी के आधार की सिकुड़न और राष्ट्रव्यापी भ्रष्टाचारी सड़न की वजह बनी है।भले औपचारिक बयान जारी ना हों परंतु यह सत्य है कि लोकतंत्र को राजतंत्र की तरह पूजती 'कुनबा कांग्रेस' ने आज तक किसी ऐसे जननायक को स्वीकार नहीं किया जिसकी छाया भी पार्टी के 'राज परिवार' से बड़ी दिखती हो। वंशवाद के रोग का इससे स्पष्ट लक्षण क्या होगा कि स्वतंत्रता के इतने वर्ष बाद भी राष्ट्र गठन के नायक, पहले गृहमंत्री सरदार पटेल को देश द्वारा दी जा रही आदरांजलि उसे खल रही है और गुजरात में प्रस्तावित सरदार की गगनचुंबी प्रतिमा उसे दिल्ली तक डरा रही है।जननायकों से छल की बात कांग्रेस जितना जोर लगाकर नकारती है तथ्यों की फांस पार्टी के गले में उतनी ही बुरी तरह अटकती है। किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता का पैमाना क्या हो सकता है- प्राप्त शक्ति, उसके द्वारा प्रदर्शित योग्यता, चारित्रिक दृढ़ता या ये सभी कुछ। वल्लभ भाई पटेल के व्यक्तित्व में इसमें से क्या नहीं था? आज यदि जनता पूछती है कि देश के पहले उपप्रधानमंत्री का नाम सर्वोच्च नागरिक सम्मान के लिए दशकों तक क्यों लटकाया गया, तो कांग्रेस को कोई जवाब नहीं सूझता। हालांकि पदक और अलंकरण किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता मापने का एकमात्र पैमाना नहीं हो सकते, परंतु यदि यह राष्ट्र गौरव में योगदान के तौर पर परिभाषित हों और संस्तुतियां शीर्ष से होती हों तो सरदार सरीखे नाम पर आकलन जरूरी हो जाता है।स्वतंत्रता से पूर्व अपनी धारदार वकालत की धाक जमाने वाला, मेहनत की कमाई से उच्चशिक्षा के लिए विदेश जाने वाला, ग्राम संगठन की जमीनी  समझ के सहारे किसानों और पिछड़ी जातियों की ताकत को जगा बारडोली जैसा आंदोलन खड़ा करने वाला, स्वतंत्रता प्राप्त होने पर करीब साढ़े पांच सौ रियासतों का भारत में विलय कराने वाला जननायक भारत रत्न के लिए आखिर याद भी किया गया तो किस वक्त! तब, जब एक ही परिवार को तीसरा तमगा चढ़ाया जा रहा था?वैसे, परिवार की वेदी पर शेष जननायकों से छल का यह इकलौता उदाहरण नहीं है। भारत रत्न की कसौटी पर देश के संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर के साथ भी कुछ ऐसा ही अन्याय हुआ। नेहरू और इंदिरा को उनके जीते जी भारत रत्न बनाया गया जबकि अंबेडकर के योगदान को उनकी मृत्यु के 34 वर्ष बाद दर्ज किया गया।भारतीय लोकतंत्र में व्यक्ति, वंश और विरासत का विमर्श शुरू होते ही उसका विवादों में घिरना तय है। सत्ता की 'घराना परंपरा' जनता की आंखें खोलने वाले ऐसे खलल को सहन करे भी तो कैसे? मगर क्या यह सच है नहीं कि लाला लाजपत राय, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, शहीद भगत सिंह जैसे अनगिनत चमकते नक्षत्रों की ज्योति भी एक ही परिवार को बारम्बार पूजते सरकारी विज्ञापनों की चकाचौंध में धुंधला दी गई।बहरहाल, मीडिया में छिड़ी बहस के बहाने सरदार का वह नायकत्व, जिसने पार्टी के भीतर लोकप्रियता में नेहरू को कहीं पीछे छोड़ दिया था, जनता के मनों में फिर जीवंत हो उठा है। इसके साथ उजागर हो गया है 'कुनबा कांग्रेस' के शासन का वह शंकालु स्वभाव जहां प्रजा और तंत्र में फर्क के सहारे ही राजकाज चलता है।'ओपिनियन पोल' पर रोक लगाने, कालिख के कारोबारों की सूचियां छिपाने और सरदार सरीखे नायकों की प्रतिमाओं पर बौखलाने से देश भर में चलने वाला विमर्श अब थमता नहीं दिखता।लोकतंत्र में व्यक्ति का कद उसके पद और वंश से तय नहीं होता, इस एक छोटी सी बात को कांग्रेस पचा नहीं पा रही और शायद यही वजह है कि लोगों को अब उसका शासन करना भी नहीं पच रहा। 

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