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इस देश में, और विदेशों में भी, मनुष्य जाति के दुख दूर करने के लिए तथा मानव-समाज की उन्नति के लिए हमें परमात्मा की सर्वव्यापकता, और सर्वत्र समान रूप से उसकी विद्यमानता का प्रचार करना होगा। जहां भी बुराई दिखाई देती है, वहीं अज्ञान भी मौजूद रहता है। मैंने अपने ज्ञान और अनुभव द्वारा मालूम किया है और यही शास्त्रों में भी कहा गया है कि भेद-बुद्धि से ही संसार में सारे अशुभ और अभेद-बुद्धि से ही सारे शुभ फलते हैं। यदि सारी विभिन्नताओं के अंदर ईश्वर के एकत्व पर विश्वास किया जाए, तो सब प्रकार से संसार का कल्याण किया जा सकता है। यही वेदांत का सर्वोच्च आदर्श है। प्रत्येक विषय में आदर्श पर विश्वास करना एक बात है और प्रतिदिन के छोटे-छोटे कामों में उसी आदर्श के अनुसार काम करना बिल्कुल दूसरी बात है। एक ऊंचा आदर्श दिखा देना अच्छी बात है, इसमें संदेह नहीं, पर उस आदर्श तक पहुंचने का उपाय कौन सा है?
स्वभावत: यहां वही कठिन और उद्विग्न करने वाला जाति-भेद तथा समाज सुधार का सवाल आ उपस्थित होता है, जो कई सदियों से सर्वसाधारण के मन में उठता रहा है। मैं तुमसे यह बात स्पष्ट शब्दों में कह देना चाहता हूं कि मैं केवल जाति-पांति का भेद मिटाने वाला अथवा समाज-सुधारक मात्र नहीं हूं। सीधे अर्थ में जाति-भेद या समाज-सुधार से मेरा कुछ मतलब नहीं। तुम चाहे जिस जाति या समाज के क्यों न हो, उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, पर तुम किसी और जातिवाले को घृणा की द़ृष्टि से क्यों देखो? मैं केवल प्रेम और मात्र प्रेम की शिक्षा देता हूं और मेरा यह कहना विश्वात्मा की सर्व व्यापकता और समतारूपी वेदांत के सिद्धांत पर आधारित है। प्राय:पिछले एक सौ वर्ष से हमारे देश में समाज-सुधारकों और उनके तरह-तरह के समाज सुधार संबंधी प्रस्तावों की बाढ़ आ गयी है। व्यक्तिगत रूप से इन समाज सुधारकों में मुझे कोई दोष नहीं मिलता। अधिकांश अच्छे व्यक्ति और भले उद्देश्य वाले हैं। और किसी किसी विषय में उनके उद्देश्य बहुत ही प्रशंसनीय हैं। परंतु इसके साथ ही साथ यह भी बहुत ही निश्चित और प्रामाणिक बात है कि सामाजिक सुधारों के इन सौ वर्षों में सारे देश का कोई स्थायी और बहुमूल्य हित नहीं हुआ है। व्याख्यान मंचों से हजारों वक्तृताएं दी जा चुकी हैं, हिन्दू जाति और हिन्दू सभ्यता के माथे पर कलंक और निंदा की न जाने कितनी बौछारें हो चुकी हैं, परंतु इतने पर भी समाज का कोई वास्तविक उपकार नहीं हुआ है। इसका क्या कारण है? कारण ढूंढ निकालना बहुत मुश्किल काम नहीं है। यह भर्त्सना ही इसका कारण है। मैंने पहले ही तुमसे कहा है कि हमें सबसे पहले अपनी ऐतिहासिक जातीय विशेषता की रक्षा करनी होगी। मैं यह स्वीकार करता हूं कि हमें अन्यान्य जातियों से बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त करनी पड़ेगी, पर मुझे बड़े दुख के साथ कहना पड़ता है कि हमारे अधिकांश समाज-सुधार आंदोलन केवल पाश्चात्य कार्य प्रणाली के विवेकशून्य अनुकरणमात्र हैं। इस कार्य प्रणाली से भारत का कोई उपकार होना संभव नहीं है। इसलिए हमारे यहां जो सब समाज सुधार के आंदोलन हो रहे हैं, उनका कोई फल नहीं होता।
दूसरे, किसी की भर्त्सना करना किसी प्रकार भी दूसरे के हित का मार्ग का नहीं है। एक छोटा सा बच्चा भी जान सकता है कि हमारे समाज में बहुतेरे दोष हैं-और दोष भला किस समाज में नहीं है? ऐ मेरे देशवासी भाइयो! मैं इस अवसर पर तुम्हें यह बात बता देना चाहता हूं कि मैंने संसार की जितनी भिन्न-भिन्न जातियों को देखा है, उनकी तुलना करके मैं इसी निश्चय पर पहुंचा हूं कि अन्यान्य जातियों की अपेक्षा हमारी यह हिन्दू जाति ही अधिक नीतिपरायण और धार्मिक है, और हमारी सामाजिक प्रथाएं ही अपने उद्देश्य तथा कार्य प्रणाली में मानव जाति को सुखी करने में सबसे अधिक उपयुक्त हैं। इसीलिए मैं कोई सुधार नहीं चाहता। मेरा आदर्श है, राष्ट्रीय मार्ग पर समाज की उन्नति, विस्तृति तथा विकास। जब मैं देश के प्राचीन इतिहास की पर्यालोचना करता हूं, तब सारे संसार में मुझे कोई ऐसा देश नहीं दिखाई देता, जिसने भारत के समान मानव-हृदय को उन्नत और संस्कृत बनाने की चेष्टा की हो। इसीलिए, मैं अपनी हिन्दू जाति की न तो निंदा करता हूं और न अपराधी ठहराता हूं। मैं उनसे कहता हूं, जो कुछ तुमने किया है, अच्छा ही किया है, पर इससे भी अच्छा करने की चेष्टा करो। पुराने जमाने में इस देश में बहुतेरे अच्छे काम हुए हैं, पर अब भी उससे बढ़े-चढ़े काम करने का पर्याप्त समय और अवकाश है। मैं निश्चित हूं कि तुम जानते हो कि हम एक जगह एक अवस्था में चुपचाप बैठे नहीं रह सकते। यदि हम एक जगह स्थिर रहे, तो हमारी मृत्यु अनिवार्य है। हमें या तो आगे बढ़ना होगा या पीछे हटना होगा-हमें उन्नति करते रहना होगा, नहीं तो हमारी अवनति आप से आप होती जाएगी। हमारे पूर्व पुरुषों ने प्राचीन काल में बहुत बड़े-बड़े काम किये हैं, पर हमें उनकी अपेक्षा भी उच्चतर जीवन का विकास करना होगा और उनकी अपेक्षा और भी महान कार्यों की ओर अग्रसर होना पड़ेगा। अब पीछे हटकर अवनति को प्राप्त होना यह कैसे हो सकता है? ऐसा कभी नहीं हो सकता। नहीं, हम कदापि वैसा होने नहीं देंगे। पीछे हटने से हमारी जाति का अद्य:पतन और मरण होगा। अतएव अग्रसर होकर महत्तर कर्मों का अनुष्ठान करो-तुम्हारे सामने यही मेरा वक्तव्य है।
मैं किसी क्षणिक समाज सुधार का प्रचारक नहीं हूं। मैं समाज के दोषों का सुधार करने की चेष्टा नहीं कर रहा हूं। मैं तुमसे केवल इतना ही कहता हूं कि तुम आगे बढ़ों और हमारे पूर्व पुरुष समग्र मानव जाति की उन्नति के लिए जो सर्वांग सुंदर प्रणाली बता गये हैं, उसी का अवलम्बन कर उनके उद्देश्य को सम्पूर्ण रूप से कार्य में परिणत करो। तुमसे मेरा कहना यही है कि तुम लोग मानव के एकत्व और उसके नैसर्गिक ईश्वरत्व भावरूपी वेदांती आदर्श के अधिकाधिक समीप पहुंचते जाओ। यदि मेरे पास समय होता, तो मैं तुम लोगों को बड़ी प्रसन्नता के साथ यह दिखाता और बताता कि आज हमें जो कुछ कार्य करना है, उसे हजारों वर्ष पहले हमारे स्मृतिकारों ने बता दिया है। और उनकी बातों से हम यह भी जान सकते हैं कि आज हमारी जाति और समाज के आचार व्यवहार में जो सब परिवर्तन हुए हैं और होंगे, उन्हें भी उन लोगों ने आज से हजारों वर्ष पहले जान लिया था। वे भी जाति-भेद को तोड़ने वाले थे, पर आजकल की तरह नहीं। जाति- भेद को तोड़ने से उनका मतलब यह नहीं था कि शहर भर के लोग एक साथ मिलकर शराब -कबाब उड़ायें, या जितने मूर्ख और पागल हैं, वे सब चाहे जिसके साथ शादी कर लें और सारे देश को एक बहुत बड़ा पागल खाना बना दे और न उनका यही विश्वास था कि जिस देश में जितने अधिक विधवा-विवाह हों, वह देश उतना ही उन्नत समझा जाएगा। इस प्रकार से किसी जाति को उन्नत होते मुझे अभी देखना है।
ब्राह्मण ही हमारे पूर्व पुरुषों के आदर्श थे। हमारे सभी शास्त्रों में ब्राह्मण का आदर्श विशिष्ट रूप से प्रतिष्ठित है। यूरोप के बड़े-बड़े मताचार्य भी यह प्रमाणित करने के लिए हजारों रुपये खर्च कर रहे हैं कि उनके पूर्वपुरुष उच्च वंशों के थे और तब तक वे संतुष्ट नहीं होंगे जब तक अपनी वंश परंपरा किसी भयानक क्रूर शासक से स्थापित नहीं कर लेंगे, जो पहाड़ पर रहकर राही बटोहियों की ताक में रहते थे और मौका पाते ही उन पर आक्रमण कर लूट लेते थे। आभिजात्य प्रदान करने वाले इन पूर्वजों का यही पेशा था और हमारे कार्डिनल इनमें से किसी से अपनी वंश परम्परा स्थापित किये बिना संतुष्ट नहीं रहते थे। फिर दूसरी ओर भारत के बड़े से बड़े राजाओं के वंशधर इस बात की चेष्टा कर रहे हैं कि हम अमुक कौपीनधारी, सर्वस्वत्यागी, वनवासी, फल-मूलाधारी और वेदपाठी ऋषि की संतान हैं। भारतीय राजा भी अपनी वंश परम्परा स्थापित करने के लिए वहीं जाते हैं। अगर तुम अपनी वंश परम्परा किसी महर्षि से स्थापित कर सकते हो। तो ऊंची जाति के माने जाओगे, अन्यथा नहीं।….
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