चुनावी आकलन और कांग्रेस का भय
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चुनावी आकलन और कांग्रेस का भय

by
Nov 9, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Nov 2013 13:45:43

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो लोकतंत्र की जान होती है। अगर इस पर प्रतिबंध लगा दिया जाये तो फिर लोकतंत्र का क्या अर्थ रह जायेगा? कांग्रेस और उनकी केन्द्र की सरकार इसी बुनियादी अधिकार पर प्रतिबंध लगाना चाहती है, क्यों? कांग्रेस के इस कदम के चुनावी अर्थ क्या है? कांग्रेस के इस गैर लोकतांत्रिक खेल में चुनाव आयोग क्यों ता-ता थैय्या कर रहा है? क्या चुनाव आयोग की साख दांव पर नहीं है? चुनाव आयोग का काम साफ-सुथरे ढंग से चुनाव कराना है न कि कांग्रेस के दांव-पेंच का मोहरा बन कर लोकतंत्र को ही पंगु बनाना। कांग्रेस और चुनाव आयोग की मंशा चुनावी सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की है। तानाशाही और राजतांत्रिक व्यवस्था ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से नफरत करती है। इन्दिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों को निलम्बित किया था जिसका खामियाजा उन्हें 1977 में हार के रूप में भोगना पड़ा था। वर्तमान में अधोषित तौर पर देश में आपातकाल जैसी स्थितियां उत्पन्न करने में कांग्रेस लगी हुई है, जिसके कारण जनता को ह्यबोलने की स्वतंत्रताह्ण के अधिकार के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
 भारतीय संविधान का मूल तत्व और निर्णायक बिन्दु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही है। हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान की धारा ह्य19 एह्ण में अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार सुनिश्चित किया गया है। दुनिया के लिए हम प्रेरणादायी लोकतांत्रिक देश इसलिए हैं, क्योंकि हमारे यहां अभिव्यक्ति की आजादी का उत्तरदायित्व अनुकरणीय व सर्वश्रेष्ठ ढंग से गतिशील रहता है। चुनावी सर्वेक्षण पर प्रतिबंध लगाने से संविधान में दी गई ह्यअभिव्यक्ति की स्वतंत्रताह्ण का हनन होगा। 2004 में राजग यानी भाजपा और 2009 में संप्रग यानी कांग्रेस की केन्द्रीय सरकार के सामने यह प्रश्न गंभीरता के साथ उठा था पर दोनों सरकारों ने चुनावी सर्वेक्षण पर प्रतिबंध को गैर जरूरी माना था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ भी? जब दो-दो केन्द्रीय सरकारों ने विगत में चुनावी सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की किसी भी कार्यवाही को गैर लोकतांत्रिक और अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ माना था तब फिर से चुनाव सर्वेक्षण पर प्रतिबंध लगाने की एक्सरसाइज पर सवाल उठना भी गैर स्वाभाविक कैसे और क्यों समझा जाना चाहिए?
कांग्रेस को अभी से ही अगले लोकसभा चुनावों में हार का डर सता रहा है। देश के चार प्रदेशों में हो रहे विधान सभा चुनावों में भी कांग्रेस के लिए कोई उम्मीद की किरण नहीं जगमगा रही है। साफ है कि नमो-नमो की बढ़ती स्वीकार्यता से कांग्रेस के हाथ-पांव फूल गये हैं, कांग्रेस को लगता है कि उसे अब नमो-नमो की बढ़ती स्वीकार्यता से लोकतंत्र विरोधी हथकंडे ही बचा सकते हैं और उन लोकतांत्रिक मूल्यों व परम्पराओं का हनन करने वाले हथकंडों का परीक्षण भी कांग्रेस ने करना शुरू कर दिया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जमींदोज करने की मुहिम को कांग्रेेस के हथकंड़ों के तौर पर देखा जाना चाहिए। चुनाव आयोग चुनाव से पूर्व सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की इच्छा रखता है। सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी ने चुनाव सर्वेक्षणों को प्रतिबंधित करने पर अपनी सिफारिश भी चुनाव आयोग को भेज दी है, जबकि मुख्य विपक्षी दल भाजपा सहित कांग्रेस के समर्थित राकांपा ने भी चुनाव सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाने का विरोध           किया है।
तर्क दिया जा रहा है कि चुनाव सर्वेक्षणों से जनता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और मतदाता भ्रमित हो जाते हैं, जबकि अमरीका-यूरोप में चुनाव सर्वेक्षणों पर रोक नहीं है और न कभी अमरीका-यूरोप में ऐसे सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की मांग हुई है। अमरीका-यूरोप के चुनावों में सर्वेक्षण तो ज्यादा दिलचस्पी खींचते हैं और जय-पराजय के सटीक व तथ्यपूर्ण निष्कर्ष देते हैं।
चुनाव सर्वेक्षण अधिक विश्वसनीय नहीं होने पर प्रतिबंध लगाने की मांग अगर सही है तो फिर इन प्रश्नो का उत्तर भी कोई दे सकता है क्या? संसद के अंदर ढेर सारे भ्रष्ट लोग बैठे हैं, संसद के अंदर में ढेर सारे औद्योगिक घरानों के दलाल बैठे हुए हैं, संसद के अंदर अपराधी और घोटालेबाज बैठे हुए हैं,  बहुत सारे जनविरोधी भावनाएं भी आहत करने वाले सांसद हैं, तो क्या संसद का विघटन कर दिया जाये, संसद पर ही प्रतिबंध लगा दिया जाये? न्यायपालिका भी भ्रष्टाचार से अछूता कहां है, सर्वोच्च न्यायालय खुद कहता है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में कानून खरीदा और बेचा जाता है, कई न्यायाधीशों को भ्रष्टाचार और कदाचार के आरोपों के कारण इस्तीफा देना पड़ा है तो क्या न्यायपालिका पर ही प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए? रोग की पहचान जरूरी है, रोग का इलाज जरूरी है। यहां रोग की पहचान करने और रोगी का इलाज करने की जगह रोगी को ही मारने की कार्यवाही हो रही है।
चुनाव आयोग को क्या कानून बनाने या फिर संविधान संशोधन का अधिकार प्राप्त है? कानून बनाने का अधिकार किसका है? इस पर ध्यान दिये बिना हम किसी भी कानूनी प्रक्रियाओं का समाधान नहीं खोज सकते हैं। चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था जरुर है। पर चुनाव आयोग को कानून बनाने या फिर संविधान में उल्लेखित आख्यानों के पर कतरने और ह्यअभिव्यक्ति की स्वतंत्रताह्ण पर विराम लगाने जैसे अधिकार नहीं है, क्योंकि वह संसद की तरह कोई निर्वाचित संस्था नहीं है, वह तो मनोनीत संस्था मात्र है और मनोनयन भी सत्ताधारी पार्टी की इच्छा और स्वार्थ पर आधारित होते है।  टीएन शेषन जैसे विरले उदाहरण हैं, जो निष्पक्षता के लिए प्रेरित करने वाले थे। पर हमें नवीन चावला जैसे उदाहरणों से भी सबक लेना चाहिए। नवीन चावला आपातकाल के दौरान हुए रक्तपात व उत्पीड़न का दोषी थे और वह पहले संजय गांधी-इन्दिरा गांधी के ह्यकिचन कैबिनेटह्ण के सदस्य थे और बाद में सोनिया गांधी-राजीव गांधी के किचेन कैविनेट के सदस्य हो गये। नवीन चावला की पत्नी ने कांग्रेसी सांसदों के कोष से कई गुल खिलाये थे। नवीन चावला के चुनाव आयोग के अध्यक्ष होने पर कैसी राजनीति गर्मायी थी और नवीन चावला ने कैसे कांग्रेस को फायदा पहुंचाया था? यह सभी जानते हैं। सर्वोच्च न्यायालय तक इसकी गूंज हुई थी। चुनाव आयोग को सत्ताधारी पार्टी के फायदे-नुकसान पर नहीं बल्कि मतदान की साफ-सुथरी प्रक्रिया पर ध्यान देना चाहिए।
कानूनविद अपने स्वार्थ में सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ता बन बैठते हैं। वास्तव में कानूनविद को तो पैसे दीजिये, लालच दीजिये, पद की लालसा दिखाइये और उनसे अपने मनमाफिक कानून और संविधान की व्याख्या करा लीजिये। इस तरह के उदाहरण हमने बार-बार देखे हैं। फिर भी चुनाव सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाने के दो कानूनविदों के विचार यहां प्रस्तुत हैं, जिसके परीक्षण के बाद आप भी पूर्ण रूप से सहमत हो जायेंगे कि कैसे कानूनविद भाड़े के टटटू होते हैं और लालच-पद के झांसे में कैसे अपने विचार रखते हैं और बदलते हैं। महान्यायवादी गुलाम ई. वाहनवती ने केन्द्र सरकार के मनमुताबिक कानूनी सलाह दी है, कि अभिव्यक्ति की आजादी पूर्ण नहीं है और इस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। वाहनवती ने कहा है कि चुनाव सर्वेक्षण पर रोक संविधान के अनुसार सही है। यह वहीं महान्यायवादी गुलाम ई. वाहनवती हैं, जिन्होंने उच्च न्यायालय के निर्देश के बावजूद कोयला घोटाले की जांच रपट बदलवायी थी और उच्च न्यायालय में झूठ बोला था कि कोयला घोटाले की जांच रपट में कोई छेड़छाड़ नही हुई है, जबकि दूसरे कानूनविद सोली जे सोराबाजी ने 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को चुनाव सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाने के खिलाफ कानूनी-संवैधानिक सलाह दी थी। तब सोला जे सोराबाजी महान्यायवादी थे और उन्होने अटल बिहारी वाजपयी सरकार को साफ कहा था कि चुनाव सर्वेक्षण पर प्रतिबंध लगाने से अभिव्यक्ति की स्वतंतत्रा पर प्रश्नचिन्ह लग जायेगा।
खुद वर्तमान कांग्रेसनीत केन्द्र सरकार ने 2009 में ह्यचुनाव सर्वेक्षणह्ण पर प्रतिबंध लगाने से इनकार कर दिया था। सिर्फ पूर्व सर्वेक्षण पर ही प्रतिबंध लगाया था। 2009 में संप्रग यानी कांग्रेस सरकार ने चुनाव सर्वेक्षण पर प्रतिबंध लगाने से इनकार क्यों किया था? इसका जवाब भी कांग्रेसी सरकार को देना चाहिए। राजनीतिक प्रश्न यह है कि 2009 में कांग्रेस खुद चुनाव सर्वेक्षण से बढ़त हासिल करने की स्थिति में खड़ी थी और मुख्य विपक्षी दल अपनी विंसंगतियों के चक्रव्यूह में फंसे थे। अगर 2009 में कांग्रेस की बुरी स्थिति होती और चुनाव सर्वेक्षण कांग्रेस के खिलाफ होते तो निश्चित तौर पर कांग्रेस की केन्द्रीय सरकार उसी समय एक्जिट पोल की तरह चुनाव सर्वेक्षण पर भी प्रतिबंध लगाने के लिए कानूनी और संवैधानिक कसरत करती।
 चुनाव सर्वेक्षण कैसे विश्वसनीय हों, कैसे सटीक और तथ्यपूर्ण चुनाव निष्कर्ष तक पहुंचे, इस पर कभी भी गंभीरतापूर्वक विचार ही नहीं किया गया है। साथ ही सर्वेक्षण करने वालों को भी पूरी पारदर्शिता लाने की जरूरत होगी, चुनावी निष्कर्ष के तर्क व आधारपूर्ण बातें बतानी होगी। चुनाव सर्वेक्षण पर प्रतिबंध तो किसी भी कीमत पर लोकतांत्रिक दुनिया स्वीकार नहीं कर सकती है। विष्णुगुप्त

 

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