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कांग्रेस और रा.स्व. संघ
कांग्रेस का लक्ष्य था स्वराज और स्वराज्य की परिभाषा की जाती थी कि भारत ब्रिटिश साम्राज्य का एक उपनिवेश बन कर रहेगा। डा़ हेडगेवार चाहते थे कि कांग्रेस अपना लक्ष्य स्वराज की बजाए ह्य पूर्ण स्वातंत्र्यह्ण निर्धारित करे। इसके लिए उन्होंने सन् 1920 के नागपुर अधिवेशन से प्रयत्न आरंभ किया। उनके सतत प्रयत्न के फलस्वरूप 9 वर्ष के बाद लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस ने ह्य पूर्ण स्वातंत्र्यह्ण का लक्ष्य घोषित किया। प्रस्तुत है इन वर्षों की प्रयत्न यात्रा का विवरण। गतांक से आगे
लिखित वक्तव्य में शायद पूरी बात स्पष्ट न हुई हो, अत: खचाखच भरे न्यायालय में बाकी कसर उन्होंने अपने भाषण से पूरी कर दी। वे बोले-
ह्य…हिन्दुस्थान हिन्दुस्थान के लोगों का ही है। अत: हमें हिन्दुस्थान में स्वराज्य चाहिए। यही बहुधा मेरे व्याख्यानों का विषय रहता है। परंतु इतने से काम नहीं चलता। स्वराज्य कैसे प्राप्त करना चाहिए, यह भी लोगों को बताना होता है। नहीं तो यथा राजा तथा प्रजा के न्याय के अनुसार हमारे लोग अंग्रेजों का अनुकरण करने लगेंगे। अंग्रेज तो अपने देश के राज्य से संतुष्ट न होकर दूसरे के देश पर डाका डालकर, वहां के लोगों को गुलाम बना कर उन पर राज्य करने को, तथा स्वयं की स्वतंत्रता पर यदि आपत्ति आयी तो तलवार निकाल कर रक्त की नदियां बहाने को तैयार रहते हैं। यह अभी हाल के महायुद्ध से सबको पता चल चुका है। अत: हमें लोगों को बताना पड़ता है कि बंधुओं-तुम अंग्रेजों के इस राक्षसी गुण का अनुकरण मत करना। केवल शांति के मार्ग से ही स्वराज्य प्राप्त करो तथा स्वराज्य मिलने के बाद किसी दूसरे के देश पर चढ़ाई न करते हुए अपने ही देश में संतुष्ट रहो।ह्ण यह बात लोगों के मन में जमाने के लिए मैं उन्हें यह तत्व भी समझाता हूं कि एक देश के लोगों का दूसरे देश के लोगों पर राज्य करना अन्याय है। उस समय प्रचलित राजनीति से संबंध आ जाता है। कारण, अपने इस प्रियतम देश पर दुर्दैव से पराये अंग्रेज लोग अन्याय से राज्य कर रहे हैं, यह हमें प्रत्यक्ष दिख रहा है। वास्तव में ऐसा कोई नियम है क्या, जिसके अन्तर्गत एक देश के लोगों को दूसरे देश पर राज्य करने का अधिकार प्राप्त होता हो?
ह्यसरकारी वकील साहब! आपसे मेरा यह प्रश्न है। क्या आप इस प्रश्न का उत्तर मुझे देंगे? क्या यह बात निसर्ग के नियम के विरुद्ध नहीं है? यदि यह तत्व सही है कि एक देश के लोगों को दूसरे पर राज्य करने का अधिकार नहीं है तो फिर हिन्दुस्थान के लोगों को अपने पैरों के नीचे दबाकर उन पर राज्य करने का अधिकार अंग्रेजों को किसने दिया? अंग्रेज लोग इस देश के नहीं हैं न? फिर हिन्दू भूमि के लोगों को गुलाम बनाकर हिन्दुस्थान के हम मालिक हैं ऐसा कहना न्याय की, नीति का तथा धर्म का खून नहीं है क्या?ह्ण
ह्यइंग्लैंड को परतंत्र करके उस पर राज्य करने की हमें इच्छा नहीं है। परंतु जिस प्रकार इंग्लैंड के लोग इंग्लैंड में और जर्मनी के लोग जर्मनी में राज्य करते हैं, वैसे ही हम हिन्दुस्थान के लोग हिन्दुस्थान के स्वामी होकर राज्य करना चाहते हैं। अंग्रेजी साम्राज्य में रहकर अंग्रेजी की दासता की सदा के लिए छाप अपने ऊपर अंकित कर लेने की हमारी इच्छा नहीं है। हमें पूर्ण स्वातंत्र्य चाहिए तथा वह लिए बिना हम चुप नहीं बैठेंगे। हम अपने देश में स्वतंत्रता के साथ रहने की इच्छा करें, क्या यह नीति और विधि के विरुद्ध है? मेरा विश्वास है कि विधि नीति को पाराक्रांत करने के लिए नहीं, उसका संरक्षण करने के लिए होती है। यही उसका उद्देश्य होना चाहिए।ह्ण
डाक्टर जी ने यह सब क्यों कहा? क्या केवल अंग्रेज न्यायाधीश और सरकारी वकील को सुनाने के लिए? इन दोनों के लिए तो उनका लिखित वक्तव्य ही पर्याप्त था, वही उनके काम आना था। फिर यह अतिरिक्त भाषण क्यों?
वास्तव में उस समय नागपुर तथा उसके आसपास के सभी प्रमुख कांग्रेस जन न्यायालय में उपस्थित थे। डाक्टर जी ने अनायास ही एकत्रित इन सब के गले पूर्ण स्वातंत्र्य का विचार उतारने का यह उचित अवसर समझा। अत: वे सम्बोधित तो कर रहे थे न्यायालय और सरकारी वकील को, किंतु विषय का प्रतिपादन कर रहे थे वहां उपस्थित कांग्रेस जनों के लिए। कांग्रेस जनों की मानसिकता को देखते हुए उन्होंने अपना यह लघु भाषण आरंभ तो किया प्रचलित स्वराज्य शब्द से और समापन किया पूर्ण स्वातंत्र्य पर। वे अपनी बात को कैसे संक्षिप्त किंतु तर्कसंगत ढंग से सीधे लोगों के हृदय में डाल देते थे यह भाषण इसका उदाहरण है।
उन्हें एक वर्ष के कठोर कारावास का दंड सुना दिया गया। न्यायालय से बाहर निकले तो बाहर उपस्थित विशाल जन समूह ने उनका जोरदार जय जयकार किया। सर्वप्रथम नगर कांग्रेस की ओर से श्री रा.ज.(रामभाऊ) गोखले ने उन्हें माला पहनायी। पश्चात बाकी लोगों ने। सर्वश्री विश्वनाथराव केलकर, डा.मुंजे, दामूपंत देशमुख, हरकरे, बै.अभ्यंकर, समीमुल्ला खां, अलेकर, वैद्य, मण्डलेकर आदि सब उपस्थित थे।
हेडगेवार का बचाव तथा जेल दर्शन
जेल जाने के लिए पुलिस के तांगे पर बैठने के पूर्व उन्होंने फिर एक छोटा सा भाषण दिया। यह भाषण सब लोगों के लिए अत्यंत दिशाबोधक था। वे बोले-
ह्यराजद्रोह के इस मुकदमे में मैंने बचाव किया। आजकल बहुतों की ऐसी धारणा हो गई है कि जो बचाव करेगा, वह देशद्रोही है। परंतु आप इतने लोग यहां इस समय इकट्ठा हैं, इससे यह पता चलता है कि कम से कम आपकी तो यह धारणा नहीं है। अपने ऊपर मुकदमा होने के बाद अपना बचाव न करते हुए खटमल की तरह रगड़े जाना मुझे योग्य नहीं लगता। हमें प्रतिपक्ष की नीचता जगत को अवश्य दिखा देनी चाहिए। इसमें भी देशसेवा है। उल्टे, बचाव न करना आत्मघातक है। आपको पसंद न तो बचाव मत कीजिए। पर बचाव करने वालों को कम योग्यता का समझना भूल होगी। देशकार्य करते हुए जेल तो क्या काले पानी जाने अथवा फांसी के तख्ते पर लटकने को भी हमें तैयार रहना चाहिए। परंतु जेल में जाना मानो स्वर्ग है, वही स्वतंत्रता प्राप्त है, इस प्रकार का भ्रम लेकर मत चलिए। केवल जेल भरने से अपने को स्वतंत्रता अथवा स्वराज्य मिलेगा, ऐसा भी मत समझिए। जेल में न जाते हुए बाहर भी बहुत सा देश का काम किया जा सकता है, इसको ध्यान में रखिए। मैं एक वर्ष में वापस आऊंगा। तब तक देश के हालचाल का मुझे पता नहीं लगेगा। परंतु हिन्दुस्थान को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त कराने का आंदोलन शुरू होगा, ऐसा मुझे विश्वास है…।ह्ण
इस अंतिम वाक्य में उन्होंने स्पष्ट कहा कि वर्तमान आंदोलन पूर्ण स्वतंत्रता का आंदोलन नहीं है, किंतु भविष्य में वह अवश्य शुरू होगा, इसका विश्वास प्रकट किया। इस विदाई भाषण में उन्होंने अपना बचाव दर्शन तथा जेल दर्शन प्रस्तुत किया है।यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इसके कुछ वर्ष बाद सरदार भगत सिंह ने डाक्टर हेडगेवार के इसी बचाव दर्शन का भरभूर उपयोग अपने मुकदमे में किया, जिसके परिणामस्वरूप सारे देश में व्यापक जागृति की लहर फैल गई। असैम्बली बमकांड से पूर्व भगतसिंह डा.हेडगेवार से मिले भी थे।19 अगस्त 1929 को डा.हेडगेवार कारागार पहुंच गए।
पूर्ण स्वातंत्र्य के विचार का प्रसार
डा.हेडगेवार जेल चले गए, लेकिन कांग्रेस के अंदर स्वस्थ चिंतन की एक प्रक्रिया आरंभ कर गए। फलत: स्वराज शब्द भी ढुलमुल परिभाषा के विरोध में एक लहर सी चल गई। यह लहर किसके पास कितनी पहुंची, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन 1921 के कांग्रेस के अमदाबाद अधिवेशन में जब डा.हेडगेवार जेल में थे इसका कुछ प्रभाव देखने को मिला। राष्ट्रीय शैक्षिक एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीआरटी) द्वारा प्रकाशित पुस्तक सभ्यता की कहानी भाग-2 (संस्करण जनवरी 1997) के पृष्ठ पर लेखक अर्जुन देव लिखते हैं-
ह्यजनता की भावनाओं को इसी बात से समझा जा सकता है कि इस अधिवेशन में अनेक लोगों को स्वराज्य के नारे से संतोष नहीं हुआ, क्योंकि स्वराज्य का अर्थ पूर्ण स्वाधीनता नहीं था। एक प्रमुख राष्ट्रवादी नेता और उर्दू के विख्यात कवि मौलाना हसरत मोहानी ने प्रस्ताव रखा कि स्वराज्य की परिभाषा सारे विदेशी नियंत्रण से मुक्त पूर्ण स्वाधीनता के अर्थ में की जाए। यह प्रस्ताव पारित न हो सका, पर इससे जनता की राजनीतिक चेतना में आए उभार का पता चलता है।ह्ण
डा.हेडगेवार 13 जुलाई 1922 को कारागार से मुक्त हुए। उसी दिन सायंकाल को व्यंकटेश नाट्य गृह में उनकी स्वागत सभा का आयोजन किया गया। इस स्वागत सभा की अध्यक्षता डा.ना.भा.खरे ने की। सभा में पं.मोतीलाल नेहरू, श्री विट्ठल भाई पटेल,हकीम अजमल खां, डा.अंसारी, श्री राजगोपालाचारी, श्री कस्तूरी रंगा आयंगर आदि नेता भी उपस्थित थे। वे सब कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के लिए नागपुर आए हुए थे। सर्वप्रथम डाक्टर जी के स्वागत का प्रस्ताव रखा गया। इसके बाद पं.मोतीलाल नेहरू तथा हकीम अजमल खां के भाषण हुए। तदुपरांत डा.हेडगेवार बोलने खड़े हुए। उन्होंने बहुत ही छोटा किंतु मार्मिक भाषण दिया। उन्होंने कहा-
ह्यएक वर्ष सरकार का मेहमान बनकर रह आने से मेरी योग्यता पहले से बढ़ी नहीं है, और यदि बढ़ी है तो उसके लिए हमें सरकार का आभार ही मानना चाहिए। देश के सम्मुख ध्येय सबसे उत्तम एवं श्रेष्ठ ही रखना चाहिए। पूर्ण स्वतंत्रता से कम कोई भी लक्ष्य अपने सम्मुख रखना उपयुक्त नहीं होगा। मार्ग कौन सा हो, इस विषय में इतिहासवेत्ता श्रोताओं को कुछ भी कहना उनका अपमान करना ही होगा। स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हुए मृत्यु भी आई तो उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। यह संघर्ष उच्च ध्येय पर दृष्टि तथा दिमाग ठंडा रखकर ही चलना चाहिए।ह्ण
और इस प्रकार कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों तक भी उन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता के ध्येय का संदेश पहुंचा दिया।
जेल से आने के बाद डाक्टर जी प्रांतीय कांग्रेस के सहमंत्री नियुक्त हुए। तब तक असहयोग आंदोलन विफल हो चुका था। एक वर्ष में स्वराज्य की बात हवा में विलीन हो चुकी थी। और निराशा ने लोगों के हृदयों को आ घेरा था। ऐसे समय डाक्टर जी ने स्वातंत्र्य के स्थायी भाव की ज्योति को जनता के अन्त:करणों में प्रज्ज्वलित करने का कार्य प्रारंभ किया। इसमें उन्होंने अपनी नागपुर नेशनल यूनियन को सक्रिय किया।
श्री पालकर के अनुसार डाक्टर जी की नागपुर नेशनल यूनियन की यह विशेषता थी कि वह ह्यपूर्ण स्वतंत्रताह्ण का प्रतिपादन करती थी। उन दिनों चाहे तो नीति के कारण और चाहे मन की वृत्ति के कारण देश के अनेक नेता साम्राज्यान्तर्गत स्वराज्य से आगे बढ़कर सोचने को भी तैयार नहीं थे। सर्वोदयी नेता आचार्य दादा धर्माधिकारी बताते हैं कि उन दिनों गणेशोत्सव अथवा अन्य किसी कार्यक्रम को बुलाते समय डाक्टर जी वक्ता से स्मरणपूर्वक आग्रह करते थे कि पूर्ण स्वतंत्रता के ध्येय का ही प्रतिपादन किया जाए।
-डा.हेडगेवार चरित्र पृ.129
पूर्ण स्वातंत्र्य की कल्पना का व्यापक प्रचार करने के लिए उन्होंने 1924 में स्वातंत्र्य नाम से एक दैनिक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया। लेकिन आर्थिक कठिनाई के कारण यह पत्र अधिक देर तक नहीं चल सका। जैसे-तैसे एक वर्ष चला और 1925 में ही बंद कर देना पड़ा। इसके सम्पादक आरंभ में विश्वनाथ राव केलकर रहे और बाद में अच्युतराव कोल्हटकर और फिर गोपाल राव ओगले। डाक्टर जी स्वयं भी इसमें लेख लिखते रहे थे और कभी-कभी इसका सम्पादन भी करते थे।
इस प्रकार विभिन्न विधियों तथा विभिन्न मंचों का प्रयोग वे विशुद्ध स्वातंत्र्य के प्रचार के लिए कर रहे थे और इसका प्रभाव भी हो रहा था। लेकिन क्योंकि गांधी जी औपनिवेशिक स्वराज्य का पिंड नहीं छोड़ रहे थे, इसलिए शेष कांग्रेस नेताओं का भी साहस विशुद्ध स्वातंत्र्य अथवा पूर्ण स्वातंत्र्य को अपनाने या बोलने का नहीं हो रहा था। फिर भी यह लहर अंदर ही अंदर सारे देश में फैलती जा रही थी क्योंकि डाक्टर जी प्राय: कांग्रेस अधिवेशनों में जाते रहते थे और वहां आए अन्य प्रांतों के कांग्रेस जनों से भी इस विषय में चर्चा करते रहते थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के बाद भी उनका यह क्रम प्राय: बना रहा। -कृष्णानंद सागर (शेष अगले अंक में )
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