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दासता के काल-खण्ड में हिन्दू-समाज के अन्तर्गत अनेक विकृतियां आ गयी थीं। इनमें अस्पृश्यता हिन्दू-समाज पर लगा सबसे बड़ा कलंक है। यद्यपि इस बुराई को समाप्त करने के लिये हमारे समाज-सुधारकों ने अथक प्रसास किये। इन समाज-सुधारकों में उल्लेखनीय नाम है ज्योतिपुरुष स्वामी विवेकानन्द का। स्वामीजी ने इस बुराई का उल्लेख अपने व्याख्यानों में किया है और जड़-मूल से इसके उन्मूलन का उपाय भी बताया है। स्वामीजी ने कहा था, ह्यदरिद्र भारतवासी, चाण्डाल भारतवासी हमारे भाई हैं।ह्ण स्वामीजी के विचारों से लगता है कि वे जातिभेद तथा अस्पृश्यता की समाप्ति के संस्कार लेकर पैदा हुए थे। जब नरेन्द्र छह-सात वर्ष के ही थे, उनके पिता की बैठक में कई प्रकार के हुक्के रखे थे। एक दिन यह बालक प्रत्येक हुक्के की नली को मुंह में लगाकर गुड़-गुड़ करने का आनन्द उठा रहा था। अकस्मात् नरेन्द्र के पिताजी आ गए और उन्होंने पूछा, ह्यक्या कर रहे हो!ह्ण बालक नरेन्द्र ने उत्तर दिया, ह्यमैं देख रहा हूं कि जाति हुक्का पीने से समाप्त कैसे होती है?ह्ण पुत्र के अनूठे और बाल सुलभ उत्तर को सुनकर पिताजी आश्चर्यचकित रह गये। वे बाल्यकाल से ही नटखट, जिज्ञासु और विद्रोही बालक थे; उनको छुआ-छूत में अन्याय और भेद-भाव की बू आती थी।
स्वामी जी ने अस्पृश्यता का दंश स्वयं भोगा था। परिव्राजक काल में उनसे लोग पूछते थे कि स्वामीजी, सन्यास ग्रहण करने से पहले आपकी जाति कौन सी थी? यह शरीर कायस्थ कुल में उत्पन्न हुआ। कट्टर रूढि़वादियों ने तूफान खड़ा कर दिया कि आप संन्यास के अधिकारी नहीं हैं। स्वामीजी ने निर्भय होकर उत्तर दिया कि मेरा संन्यास शास्त्रानुकूल है। केरल के मालाबार में स्वामीजी को अस्पृश्यता की दु:खद अनुभूति हुई और उन्होंने यह कहकर उसकी भर्त्सना की थी कि मालाबार के निवासी पागल खाने में रखे जाने योग्य हैं।
मालाबार के दृश्य ने स्वामीजी के हृदय को झकझोर दिया और उन्होंने वेदना प्रगट करते हुए कहा, ह्यहम कितनी हास्यास्पद स्थिति को प्राप्त हो गए हैं? उनका कहना था कि हम छह-सात शताब्दियों तक केवल इस विषय पर बहस करते रहे कि हाथों को तीन बार मांजें अथवा चार बार। यह जड़वाद हमारे समाज के पतन का मूल कारण हैं। इस जड़ता के कारण हमारे भाग्य ने हमारा साथ छोड़ दिया। हमें केवल ह्यमत छुओ-वादीह्ण हो गये हैं। यदि यह भाव अगले सौ वर्ष तक चलता रहा, तो हममें से हर एक का स्थान दुनिया के पागलखाने में होगा। उन्होंने अपने अनेक भाषणों में बल दिया और कहा सभी मनुष्यों के साथ अपने भाइयों के समान व्यवहार करना चाहिये। भ्रमण-काल में उन्होंने एक चर्मकार बन्धु के हाथ की बनी रोटी खायी और कहा- ऐसी रोटी के समाने राजसी खाना भी तुच्छ है।
स्वामीजी ने अपनी भारत यात्रा देश के अंतिम छोर पर आकर पूरी की। वे आसन लगाकर नेत्र बन्द कर गहन चिंतन में डूब गये। तब उनको भारत की अवनति का कारण समझ में आया और बोले, ह्यक्रूर शासक, ढपोलशंख पाखण्डियों ने भारत की जनता का अंतिम रक्तबिन्दु तक शोषण किया है।ह्ण वे कहते थे कि समाज को संगठित होना है तो इस अस्पृश्यता के विचार का जड़-मूल से, मस्तिष्क से उच्छेदन करना होगा। उन्होंने समाज-व्यवस्था को भी नवीन दृष्टि से देखा। उनके अनुसार ब्राह्मणत्व जाति से नहीं, त्याग और ज्ञान से संबंधित था। स्वामीजी का मत था कि आरम्भ में ब्राह्मण धार्मिक, नीतिवान, सदाचारी, निस्वार्थी और ज्ञानी थे। उस समय यह वर्ग मनुष्यत्व का चरम आदर्श था। कालान्तर में इस वर्ग ने अपने गुणों का खजाना जनसाधारण के लिए बन्द कर दिया। तभी भारत गुलाम हुआ। स्वामीजी का विचार था कि ज्ञान का अधिकार समाज के अन्तिम वर्ग तक के व्यक्ति को मिले।
स्वामीजी उन सुधारवादियों में नहीं थे, जो अपने समाज को हेय मानकर दूसरे समाज को अच्छा समझते हों। उन्होंने देश की धरती पर व्याप्त कुरीतियों की जमकर आलोचना की, परन्तु विदेशी धरती पर भारत के गौरव को स्थापित किया। वे कहते थे कि ह्यमैं विध्वंस के लिए नहीं आया हूं। मेरा कार्य निर्माण और सुधार का है। उन्होंने समाज को एक रस बनाने के लिए भावनात्मक तथा सकारात्मक सुझाव दिये हैं। वे कहते थे कि सर्वप्रथम तुम हृदय से अनुभव करो कि सभी हिन्दू सहोदर भाई हैं। वंचित वर्ग केवल रोटी का भूखा नहीं है, उसको सम्मान चाहिए। क्या तुम दे सकोगे! प्रेम असम्भव को सम्भव कर देता है। एक स्थान पर उन्होंने कहा ह्यमेरे भावी सुधारको, मेरे भावी देशभक्तो, हृदय से अनुभव करो। तुम क्या अनुभव करते हो? देव और ऋषियों के करोड़ों वंशज पशु तुल्य बन गये हैं।ह्ण उन वंचित समाज-बन्धुओं को हृदय का स्नेह देकर, उनका हाथ पकड़ कर उन्हें साथ लेकर चलोगे, तभी वे समाज के सम्मानित घटक बनेंगे। वे आज भटके और बिछुडे़ हुये हैं। उनके जीवन को सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कराकर सुसम्पन्न बनाओ। ऊंच-नीच का भाव मिटाकर, अस्पृश्यता को लेशमात्र भी न रहने दो। स्वामीजी की यह समरसतापूर्ण समाज की अवधारणा युगानुकूल थी।
स्वामीजी ने एक स्थान पर अपने विचार व्यक्त किये कि उच्च-वर्ग को चिकित्सक की भावना से वंचित समाज की सेवा करनी होगी। स्वामीजी के शब्दों में ह्यमहा भाग्यवानो! मेरा भी यही विश्वास है कि यदि कोई भारत की पददलित, भूखी जनता को हृदय से स्नेह करेगा तो देश पुन: उठ खड़ा होगा।ह्ण
वर्तमान सन्दर्भ में स्वामीजी के विचार सुसंगत हैं। परम्पराग्रस्त अस्पृश्यता जैसी कुरीतियों को सुधारने का एक कानून बनाने से भी लाभ नहीं होगा। समाज के सभी वर्ग उन्हें सम्मानित घटक के रूप मे स्वीकार करें और सम्मान दें तभी हम इस घातक कुरीति से छुटकारा पा सकेंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के विचार भी स्वामीजी के विचारों से मेल खाते हैं। श्री गुरुजी ने कहा था, ह्यआज समाज का चित्र ऐसा है कि हृदय पीड़ा से भर जाता है। बहुत बड़ा दु:ख चारों ओर छाया हुआ है। अभावग्रस्त, वंचित व पीडि़त सर्वदूर दिखायी देते हैं। इन सबका भार कोई कहे कि मैं अकेला वहन करूंगा, तो सम्भव नहीं है। हां, हम सब मिलकर कहेंगे कि हम इस दु:ख-दैन्य को हटाने के लिए अपने बन्धुओं की सहायता के लिए प्रयत्न करेंगे, तो यह सभ्भव है और वह ही करणीय है।ह्ण
सामाजिक समरसता मात्र सिद्धांत नहीं है, बल्कि एक व्यवहार का सूत्र है। सभी वर्गों की समाज-कार्य में सहभागिता हो। इसके साथ-साथ उच्च वर्ग में यह अहंकार रहेगा कि हम उच्च हैं, तो क्या समरसता टिक पायेगी? इसका एकमात्र निदान है कि वे उच्चता का अहंकार छोड़ें और वंचित वर्ग हीनता को छोड़े तभी समाज में स्वाभाविक समरसता का भाव जागृत होगा।
आज देश स्वामीजी के जन्म की सार्द्ध शती उत्साह और उमंग के साथ मना रहा है। हम सभी संकल्प करें कि उनके जन्मोत्सव पर्व पर उनके विचारों को व्यवहार में लाकर हजार वर्ष से वंचित, बिछुडे़ भाई-बहनों को गले लगाकर सम्मान की स्थिति में लाएंगे। नि:सन्देह इस कार्य को पूर्ण करने के लिए समय, श्रम और मौन क्रान्ति की आवश्यकता है। हम अपने स्नेह, संवेदना, व्यक्तिगत सम्पर्क से इस समस्या पर विजय प्राप्त करने में सफल होंगे। निचले धरातल पर सहज रूप से परिवर्तन प्रारम्भ हुआ तो समाज में परिवर्तन की लहर आयेगी। उस दिन कलुषित जातिगत भेदभाव समाप्त होगा और समरस, संगठित, समता और ममता युक्त भारत का उदय होगा।
सीताराम व्यास
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