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मन्ना डे नहीं रहे। वे 94 साल के थे। गत 24 अक्तूबर की भोर में उन्होंने बंगलूरू के एक चिकित्सालय में अंतिम सांस ली। भरपूर जीवन रहा उनका। अगर बीते कुछ महीनों की बात छोड़ दी जाए तो वे स्वस्थ और सक्रिय ही रहे। निरंतर संगीत साधना में रत। न किसी से रूठना, न शिकायत। नश्वर शरीर को छोड़ने के बाद उनके कुछ चुनिंदा गीतों पर नजर डालें तो समझ आता है कि मन्ना दा ने कितने सुरीले और मधुर गीत गाए और अपने चाहने वालों को गुनगुनाने के लिए दिए। एक तरफ सीमा फिल्म का गीत ह्यतू प्यार का सागर है तो दूसरी तरफ ह्यतुझे सूरज कहूं या चंदाह्ण। इनसे हटकर ह्यएक चतुर नार करके श्रृंगारह्ण और ह्यलागा चुनरी में दागह्ण। इन चारों गीतों में दर्द, प्रेम और मस्ती के रस सहज ही मिल जाते हैं। इन्हें सुनकर आपको समझ आ जाएगा कि वे अलग-अलग मिजाज के गीतों के साथ कितनी सहजता और अधिकार के साथ न्याय कर लेते थे। मन्ना दा से राजधानी में करीब 20 बरस पहले एक कार्यक्रम में संक्षिप्त मुलाकात हुई थी। उनकी अद्भुत विनम्रता और सादगी से कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। मन्ना अपने कुछ प्रशंसकों से घिरे हुए थे। उनके साथ चंद लम्हे बात करने का हमें भी मौका मिल गया। हमने किसी तरह से हिम्मत जुटाकर पूछा, आपने एक से बढ़कर एक मीठे गीत गाए पर आपको कभी रफी, मुकेश और किशोर की तरह सम्मान नहीं मिला! इस थोड़े से चुभने वाले सवाल पर विचलित हुए बिना मन्ना दा ने कहा, ह्यमुझे तो लगता है कि मुझे लाखों संगीत प्रेमियों ने भरपूर प्यार दिया है, दे रहे हैं। इसलिए मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है।ह्ण एक बार मन्ना दा ने कहा था कि फिल्मी गानों के लिए बहुत रियाज और मेहनत नहीं चाहिए। बस यह मालूम होना चाहिए कि सुर क्या चीज है, लय क्या चीज है और ताल क्या चीज है।
इस में कोई शक नहीं की मन्ना डे एक भीतर तक उतरने वाली आवाज के मालिक थे। उन्हें बड़े बैनर की फिल्मों में काम करने का मौका बहुत कम मिला। मगर वह आवाज ही क्या जिसका जादू सर चढ़कर ना बोले और वह सुर ही क्या जो राही के कदम ना रोक दे। मन्ना डे की आवाज में ऐसी मिठास थी कि उनके पास काम की कमी नहीं रही और उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बना ली। आज मन्ना के इतने चाहने वाले हैं कि जिसके लिए बड़े बड़े कलाकार तरसते रहते हैं।
मन्ना दा उन गिने-चुने पार्श्वगायकों में से थे,जिनकी शास्त्रीय संगीत की पृष्ठभूमि थी। उन्होंने शास्त्रीय संगीत की बारीकियों को सीखने के लिए सालों रातें काली की थीं। इस लिहाज से वे अपने समकालीनों से अलग थे। उन्होंने शास्त्रीय संगीत की तालीम अब्दुर्रहमान खाँ से ली थी। उन्होंने एक बार अपने गुरु के लिए कहा था, वे महान थे, एक गुरू के रूप में भी और एक संगीतकार के रूप में भी। मैं ये कहूँगा कि ऐसे गुरू बहुत कम मिलते हैं। मैंने उनके पास तीन चार साल संगीत सीखा और साथ ही साथ मैं कुछ संगीत निर्देशकों का सहायक भी रहा, जैसे अनिल विश्वास, खेम चंद प्रकाश। बाद में एसडी बर्मन का सहायक रहा।ह्ण उनके विपरीत रफी, मुकेश और किशोर की बात करें तो ये सुगम संगीत से जुड़े थे। यकीन मानिए कि मोहम्मद रफी भी उनकी गायकी के कायल थे। इसे मोहम्मद रफी ने कुछ इस तरह से व्यक्त किया था- ह्यआप हमारे गाने सुनते हो और मैं सिर्फ मन्ना डे की आवाज पर झूमता
रहता हूं।ह्ण
मन्ना दा ने 1943 में फिल्म तमन्ना से अपने करियर का श्रीगणेश किया था। तमन्ना में उनकी आवाज को पहचान मिल गई। तमन्ना से शुरू होने वाला यह सफर बड़ी शान से चलता रहा। इस बीच ह्यऐ मेरी जोहरा जबींह्ण, ह्यऐ भाई जरा देख के चलोह्ण, ह्ययारी है ईमान मेरा याऱ.,ह्ण ह्यमुड़ मुड़ के ना देखह्ण, ये इश्क इश्क हैह्ण, ह्यये रात भीगी-भीगीह्ण, ह्यकस्मे वादे प्यार वफा सबह्ण ह्यलागा चुनरी में दागह्ण, ह्यजिन्दगी कैसी है पहली हायह्ण, ह्यप्यार हुआ इकरार हुआह्ण, ह्यऐ मेरे प्यारे वतनह्ण, ह्यपूछो न कैसे मैंने रैन बिताईह्ण जैसे कई सदाबहार गाने मन्ना डे ने गाए। काबुलीवाला फिल्म का ह्यए मेरे प्यारे वतनह्ण गीत सुनिए। मन्ना दा ने यह गीत ऐसा गया कि सुनने वालों के दिल में आज भी देशभक्ति का ज्वार पैदा कर देता है।
उन्होंने हरिवंश राय बच्चन की मशहूर कृति ह्यमधुशालाह्ण को भी आवाज दी। कम ही लोगों को मालूम है कि उनकी पत्नी मलयाली हैं। वर्ष 1953 में उन्होंने केरल की सुलोचना कुमारन से शादी की थी। उनकी दो बेटियां, सुरोमा और सुमिता हैं। उन्होंने हिंदी, बंगाली समेत मराठी, गुजराती, मलयालम, कन्नड़ और असमिया में भी गाने गाए। मन्ना डे का असली नाम प्रबोध चंद्र डे था। मन्ना दा संगीत प्रेमियों के दिल में सदैव जीवित रहेंगे।
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