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महाराष्ट्र/ पुणे
पुणे के ह्यदेसाई बंधु आंबेवालेह्ण इस नाम से ही उस खास व्यक्तित्व की पहचान हो जाती है। आम के कारण सुदूर कोंकण के तटीय किनारे से पुणे जैसे शहर में आकर अपने आपको ही नहीं, अपने भाई, 6 बेटों तथा उनके पूरे परिवार को अपने पैरों पर खड़े कर उन्हें वास्तव में आत्मनिर्भर बनाने वाले इस खास आदमी का नाम है भाऊ साहब देसाई।
देसाई आंबेवाले प्रतिष्ठान के पुरोधा युवा भाऊ 1933 में पुणे में कुछ रोजगार-कारोबार ढूंढने के लिए रत्नागिरी से वहां के दुनिया में मशहूर हापुस आम की टोकरी लेकर आये थे। युवा भाऊ देसाई के साथ थी आम जैसी मीठी वाणी तथा व्यवहार की ईमानदारी। तब से यह मिठास आज भी बनी हुई है। यह बात अलग है कि विगत 80 सालों में आम के पेड़ की भांति भाऊ साहब देसाई का परिवार भी फला-फूला, बढ़ा तथा अपनी जड़ एवं नींव कायम रखी।
आम वाले देसाई बंधु तथा उनके परिजनों ने कोंकण का आम पुणे में लाकर उसे बेचने के व्यवसाय को व्यापकता प्रदान की। मिठास के साथ ही खुशबू भरे स्वाद के आम खाने- चखने हेतु पुणे के लोगों की पहली पसंद देसाई की शहर में बनी दुकानें ही होती हैं। यहां तक कि लखनऊ में संपन्न आम प्रदर्शनी में विगत वर्ष महाराष्ट्र के आम को 27 पुरस्कार मिले जिनमें से 25 पुरस्कार मात्र देसाई बंधु प्रतिष्ठान को मिले। यही क्रम बनाये रखते हुए देसाई बंधुओं ने आम तथा आम से संबद्ध उत्पाद को लेकर वैश्विक स्तर के पुरस्कार भी प्राप्त किये हैं तथा यह क्रम आज भी जारी है।
भाऊ देसाई के पिताजी अण्णा देसाई रत्नागिरी के निकट समुद्र से सटे पावस कस्बे में अपने पुरखों द्वारा लगाये गये आम की खेती करते थे। उन दिनों वे आम की सारी फसल मात्र 2 हजार रु. में दलाल-मझौलियों को बेच देते। एक साल भाऊ ने अपने पिजाजी से पूछा इस साल क्यों न मैं अपने आम बेचने पुणे जाऊं? नया व्यवसाय होगा और आमदनी भी। पिताजी की अनुमति लेकर भाऊ साहब आम लेकर पुणे आये और दोगुनी यानी 4 हजार रुपए की राशि लेकर पुणे लौटे। और यही देसाई परिवार के पुणे प्रतिष्ठान की नींव बन गयी।
अण्णा देसाई का खेती से संबंद्ध ज्ञान तथा भाऊ द्वारा उसकी पुणे में बिक्री के चलते कभी स्वयं टोकरी लेकर पुणे के बस्तियों में आम बेचने वाले भाऊ ने कुछ ही समय में पुणे में अपनी आम की पहली दुकान लगा ली। ईमानदारी-सच्चाई-उचित दाम और अव्वल आम इन सूत्रों पर चलने के कारण उनके आम ने अच्छा नाम भी कमाया।
भाऊ देसाई के पद चिन्हों पर चलते उनके 6 में से 5 बेटों ने आम के उत्पाद-व्यवसाय को ही अपना लक्ष्य बनाया। भाऊ के साथ 1963 में उनके बेटे वसंत तथा अनंत पुणे में आ बसे तो जयंत तथा विजय ने पावस में रहते हुए आम की खेती को और बढ़ावा दिया। सबसे छोटे बेटे श्रीकांत ने आम तथा उससे संबद्ध व्यंजन एवं उत्पाद की बिक्री को व्यापक करने का बीड़ा उठाया। अपवाद स्वरूप उनके एक बेटे दिलीप ने मेडिकल की शिक्षा ली।
पुणे में आम की बढ़ती हुई मांग की पूर्ति करने हेतु जयंत देसाई ने आम के बगीचे में सिंचन प्रणाली शुरू की। बांध वनवाए। परिणामस्वरूप आम की फसल बढ़ी। मौसमी फल आम का स्वाद साल भर प्रदान करवाने आम का रस बना कर उसे हवा बंद पैक कर साल भर बेचने की शुरुआत की, जिसे बढ़ती मांग मिलती रही। भाऊ देसाई की दो बहुएं माधुरी एवं शुभांगी ने घरेलू तरीके से आम के रस को उबाल कर उसके नए व्यंजन बनाना शुरू कर दिया। इसके चलते स्थानीय ग्रामीण महिलाओं को नए रोजगार तथा आय के अवसर भी प्रदान हुए एवं उनकी साख बढ़ी।
किसी जमाने में देसाई परिवार वापस गांव का मुखिया माना जाता था। बावजूद इसके उनके परिवार में काम के लिए आने वाले महिलाओं के साथ समान एवं बराबरी का व्यवहार किया जाता था। उन महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार का भेद किये बिना उन्हें देसाई परिवार की महिलाएं अपने साथ चाय-नाश्ता करवाती थीं। सभी का भोजन भी समान एवं एक साथ ही होता था, जो उस समय अनूठा माना जाता था। घर में महिलाओं के माध्यम से जारी सामाजिक समरसता की यह पहल भाऊ देसाई की थी तथा उसमें उन्हें बहुओं का सहयोग आज तक निरंतर मिलता रहा है।
कारोबार एवं व्यवसाय में वृद्धि के साथ-साथ भाऊ देसाई ने अपने परिवार को भी व्यापकता प्रदान की। उद्देश्य यही था कि अपने 5 बेटे तथा उनके परिवार जनों की हुनर-लगन-मेहनत का सही इस्तेमाल करने के लिए ही भाऊ देसाई ने अपने 5 बेटों को सन 1970 से अलग-अलग व्यवसाय करने के लिए प्रेरित किया, मार्गदर्शन किया तथा मदद की।
उन्होंने अपने बेटे बसंत को आम के व्यवसाय का जिम्मा दिया, अनंत का घर बनवा दिया, जयंत को पावस में आम के बागान-खेती संभालने को कहा तथा विजय को आम के रस बना कर उससे विभिन्न उत्पाद बनाने के लिए मार्गदर्शन किया और सबसे छोटे बेटे श्रीकांत को पुणे में होटल खुलवा दिया।
भाऊ देसाई के बेटों ने उनके पद-चिन्हों पर चलते हुए अपने-अपने कारोबार में अच्छी सफलता प्राप्त की। उनके पोतों ने भी खूब नाम कमाया है। जयंत के बेटे आनंद ने कृषि में विशेष कार्य कर कृषि पंडित की उपाधि प्राप्त की है तथा उसी के भाई अमर ने विदेश जाकर फल प्रक्रिया की शिक्षा दीक्षा प्राप्त की है। विजय देसाई हर वर्ष आमरस के 7 लाख डिब्बे बनाते हैं, जो आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, सिंगापुर, इंग्लैण्ड, अमरीका जैसे देशों में भी निर्यात किये जाते हैं। आम के फलों का राजा तथा रत्नागिरी की खासियत समझे जाने वाले रत्नागिरी हापुस आम के पेटेंट पाने के लिए भी आम वाले देसाई परिवार की चौथी पीढ़ी विशेष रूप से प्रयासरत है।
देसाई परिवार के पावस स्थित पैतृक निवास में स्वामी स्वरूपानंद का निवास था। उस स्थान को भाऊ साहब देसाई ने एक ट्रस्ट के माध्यम से पहले ही समाज को समर्पित कर दिया है। वहां अब भक्तजनों के लिए आश्रम बनाया गया है जिसके दर्शन के लिए कोंकण-महाराष्ट्र के अलावा गोवा एवं सुदूर कर्नाटक से भी भक्तगण प्रतिदिन आते हैं। उस समाधि-मंदिर की देखभाल तथा आने वाले भक्तजनों के प्रसाद-भोजन की व्यवस्था भाऊ देसाई की बहुएं प्रियंका एवं अदिती करती हैं।
भाऊ देसाई एवं उनके 5 बेटे वाले परिवार में नाती-पोतों को जोड़कर बहुत बड़ा परिवार है। करीब 40 लोगों के इस परिवार की पूरी श्रद्धा अपनी मेहनत, लगन, ईमानदारी के साथ-साथ समाज एवं उनके प्रेरणा पुरुष स्वामी स्वरूपानंद पर है। कारोबार में मिली इस अपार सफलता को भाऊ देसाई स्वामी स्वरूपानंद की कृपा बताते हैं। द.बा. आंबुलकर
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