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विलय दिवस (26 अक्तूबर) पर विशेष
इतिहास ने जितना अन्याय जम्मू कश्मीर के अंतिम महाराजा हरि सिंह के साथ किया उतना शायद किसी अन्य के साथ नहीं किया होगा। जम्मू कश्मीर को लेकर जितना कुछ लिखा गया है उतना शायद भारत की किसी और रियासत को लेकर न लिखा गया हो। जब किसी विषय पर जरूरत से ज्यादा लिखा, बोला या कहा जाये, तब स्वाभाविक ही संदेह होता है कि या तो सच्चाई को छिपाने का प्रयास किया जा रहा है या फिर उसे इतना उलझाने का प्रयास किया जा रहा है कि बाद में सत्य तक पहुंचना ही मुश्किल हो जाये। या फिर अपने अपराध बोध से विचलित होकर इतना जोर से चिल्लाया जाता है कि उस शोर में सत्य दब कर रह जाये। अपराध बोध से मुक्ति का एक और तरीका भी होता है। अपने पक्ष में ही दूसरे लोग खड़े कर लिये जायें ताकि भीड़ देख कर स्वयं को ही लगने लगे कि मेरा पक्ष और निर्णय ठीक था। यह अपनी अन्तरात्मा को दबाने की कठिन साधना ही कही जा सकती है। जम्मू कश्मीर को लेकर जब जवाहर लाल नेहरू के भाषण, आलेख और स्पष्टीकरण पढ़ते हैं तो वे ये सभी साधनाएं एक साथ करते महसूस होते हैं।
जम्मू कश्मीर में तब जो कुछ हो रहा था, उसके लिये किसी न किसी को अपराधी ठहराना जरूरी था, ताकि इतिहास का पेट भरा जा सके। इसके लिये महाराजा हरि सिंह से आसान शिकार और कौन हो सकता था? खासकर उस समय, जब उनका अपना बेटा कर्ण सिंह भी साथ छोड़ कर नेहरू के साथ मिल गया था। बकौल कर्ण सिंह, ह्यनेहरू की लिखी दो किताबें पढ़ कर ही मन के दरवाजे खुल गये थे और मुझे ज्ञान की प्राप्ति हो गई थी।ह्ण हरि सिंह के अपने ही चिराग-ए-खानदान कर्ण सिंह ह्यज्ञान प्राप्तिह्ण के बाद रीजेंट बन गये और हरि सिंह मुम्बई में निष्कासित जीवन जीने के लिये अभिशप्त हुये। लेकिन कम्बखत सच्चाई ऐसी चीज है जो इन सभी तांत्रिक साधनाओं के बावजूद पीछा नहीं छोड़ती।
हर युग का इतिहास साक्षी है कि जब सत्य का सामना करना बहुत मुश्किल हो जाता है तो उससे बचने के लिये किसी न किसी को सूली पर लटकाना जरूरी हो जाता है। बीसवीं शताब्दी में जब जम्मू कश्मीर को लेकर सक्रिय भूमिका निभाने वाले सभी पात्रों के पाप उन्हीं पर भारी पड़ने लगे तो उनके लिये जरूरी हो गया था कि उनके झूठ को ही सत्य का दर्जा दे दिया जाये और उनके पाप को ही पुण्य मान लिया जाये। इसलिये किसी न किसी को सूली पर लटकाया जाना जरूरी हो गया था। जिन महाराजा हरि सिंह के हस्ताक्षर से जम्मू कश्मीर रियासत ने देश की संघीय लोकतांत्रिक- संवैधानिक व्यवस्था को स्वीकार किया, बाद में उन माहिर खिलाडि़यों ने उन्हीं को कटघरे में खड़ा कर दिया और खुद न्यायाधीश के आसन पर जा बिराजे। दुर्भाग्य से महाराजा हरि सिंह के बारे में अभी तक जो कहा-सुना जा रहा है, वह इन्हीं ह्यन्यायाधीशोंह्ण द्वारा न्याय के तमाम सिद्घान्तों को ताक पर रखते हुये जारी फतवे मात्र हैं। सीनाजोरी यह कि उन्हीं फतवों को इतिहास मानने का दुराग्रह किया जा रहा है।
जम्मू कश्मीर रियासत का विलय देश की नई प्रशासनिक व्यवस्था में अंग्रेजों के चले जाने के लगभग दो महीने बाद 26 अक्तूबर 1947 को हुआ। वह भी तब जब रियासत पर कबायलियों के रूप में पाकिस्तानी सेना ने आक्रमण कर दिया और उसके काफी हिस्से पर कब्जा कर लिया था। महाराजा ने तब विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये। बाद में इतिहास में यही प्रचारित किया गया कि महाराजा हरि सिंह भारत में शामिल होने के इच्छुक ही नहीं थे और जम्मू कश्मीर को ह्यआजाद देशह्ण बनाना चाहते थे। इसे भारतीय इतिहास की त्रासदी ही कहा जायेगा कि महाराजा ने भी कभी जनता के सामने अपना पक्ष रखने की कोशिश नहीं की।
शेख अब्दुल्ला ने बाद में अपनी आत्मकथा आतिश-ए-चिनार के माध्यम से महाराजा पर और ज्यादा दोषारोपण किया। महाराजा हरि सिंह के पुत्र डा. कर्ण सिंह अवश्य अपने पिता का पक्ष देश के सामने रख सकते थे, लेकिन उससे जवाहर लाल नेहरू के नाराज होने का खतरा था जिससे उनकी भविष्य की राजनीति गड़बड़ा सकती थी। वैसे भी कर्ण सिंह संकट काल में अपने पिता का साथ छोड़कर नेहरू के साथ हो लिये थे, क्योंकि उनके पिता हरि सिंह अब भूतकाल थे और नेहरू भविष्य। कर्ण सिंह अपने पिता को सामन्ती परम्परा की खुरचन बताते हैं और स्वयं को लोकतांत्रिक व्यवस्था का अनुयायी। अपने इसी ह्यलोकतांत्रिक प्रेमह्ण को वे हरि सिंह का साथ छोड़ देने का मुख्य कारण बताते हैं। लेकिन ताज्जुब है, उसी सामन्ती परम्परा के प्रसाद के रूप में वे सालों साल सदरे रियासत और राज्यपाल का पद भोगते रहे।
इसमें अब कोई शक नहीं कि तब की अंग्रेजी हुकूमत हर हालत में जम्मू कश्मीर रियासत पाकिस्तान को देना चाहती थी। लेकिन उनके दुर्भाग्य से भारत स्वतंत्रता अधिनियम के माध्यम से वे केवल ब्रिटिश भारत का विभाजन कर सकती थी, भारतीय रियासतों का नहीं। महाराजा हरि सिंह पर पाकिस्तान में शामिल होने का दबाव डालने के लिए लार्ड माउंटबेटन 15 अगस्त से दो मास पहले श्रीनगर भी गये थे। महाराजा पाकिस्तान में शामिल होने लिये तैयार नहीं थे और अंतिम दिन तो उन्होंने दबाव से बचने के लिये माउंटबेटन से मिलने से ही इन्कार कर दिया था। महाराजा कहीं रियासत को भारत में न मिला दें, इसको रोकने के लिये ब्रिटेन ने पंद्रह अगस्त तक भारत और पाकिस्तान की सीमा ही घोषित नहीं की और अस्थाई तौर पर गुरदासपुर जिला पाकिस्तान की सीमा में घोषित कर दिया। इस चाल के बहाने महाराजा पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिये परोक्ष दबाव ही डाला जा रहा था, लेकिन वे इस दबाव में नहीं आये। उन्होंने कहा, किश्तवाड़ को हिमाचल प्रदेश के चम्बा से जोड़ने वाली सड़क बना ली जायेगी। लेकिन सीमा आयोग की रपट को लार्ड माउंटबेटन आखिर बहुत देर तक तो दबा नहीं सकते थे। जब सीमा आयोग की रपट आई तो शंकरगढ़ तहसील को छोड़कर सारा गुरदासपुर जिला भारत में था और इस प्रकार जम्मू कश्मीर रियासत सड़क मार्ग से पंजाब से जुड़ती थी। हरि सिंह एक ओर से निश्िंचत हो गये।
इस पृष्ठभूमि में इस प्रश्न पर विचार करना आसान होगा कि महाराजा ने रियासत को भारत में शामिल करने में इतनी देर क्यों की? इस घटनाक्रम में नेहरू और शेख अब्दुल्ला की भूमिका सामने आती है। ब्रिटिशकाल में रियासतों में कांग्रेस ने अपनी शाखायें नहीं खोली थीं जबकि मुस्लिमलीग की शाखा प्राय प्रत्येक रियासत में थी। रियासतों में राजाओं के अत्याचारी शासन के खिलाफ लोगों ने प्रजा मंडल के नाम से संगठन बनाये हुये थे जिनका संघर्ष का शानदार इतिहास है। मुस्लिम सांप्रदायिकता की केन्द्रस्थली अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर में प्रजा मंडल के नाम से नहीं बल्कि मुस्लिम कान्फ्रेंस के नाम से आन्दोलन शुरू किया, लेकिन वह राजाशाही के खिलाफ न होकर डोगरों के खिलाफ था । शेख अब्दुल्ला का नारा राजाशाही का नाश नहीं था बल्कि ह्यडोगरो, कश्मीर छोड़ोह्ण था । मतलब साफ था कि डोगरों का राज कश्मीर से समाप्त होना चाहिये, राज्य के अन्य संभागों में रहता है तो शेख को कोई एतराज नहीं था। वैसे तो अब्दुल्ला चाहते तो मुस्लिम लीग ही बना सकते थे, लेकिन मुस्लिम नेतृत्व को लेकर अब्दुल्ला और जिन्ना में जिस कदर टकराव था उसमें यह संभव ही नहीं था। जिन्ना अपने आप को पूरे दक्षिण एशिया के मुस्लमानों का नेता मानने लगे थे। उनकी नजर में शेख अब्दुल्ला की हैसियत स्थानीय नेता से ज्यादा नहीं थी, फिर ब्रिटिश सरकार भी जिन्ना के पक्ष में ही थी। उधर अब्दुल्ला भी दोयम दर्जा स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। लेकिन शेख अब्दुल्ला को डोगरों के खिलाफ अपनी इस लड़ाई में किसी न किसी की सहायता तो चाहिये ही थी। जिन्ना के कट्टर विरोधी जवाहर लाल नेहरू से ज्यादा उपयोगी भला इस मामले में और कौन हो सकता था? लेकिन उसके लिये जरूरी था कि अब्दुल्ला सेक्युलरऔर समाजवादी-प्रगतिवादी नजर आते।
इस मौके पर साम्यवादी तत्वों की अब्दुल्ला के साथ संवाद रचना महत्वपूर्ण है। साम्यवादी नहीं चाहते थे कि रियासत का भारत में विलय हो। रियासत की सीमा रूस और चीन के साथ लगती है और साम्यवादी पार्टी चीन के साथ मिल कर ही उन दिनों भारत में सशस्त्र क्रांति के सपने देख रही थी। उनकी दृष्टि में इस क्रांति की शुरुआत कश्मीर से ही हो सकती थी। इसके लिये जरूरी था या तो कश्मीर आजाद रहता या शेख अब्दुल्ला के कब्जे में। तभी साम्यवादियों का क्रांति का सपना पूरा हो सकता था। वैसे भी साम्यवादी उन दिनों पूरे हिन्दोस्थान को विभिन्न राष्ट्रीयताओं का जमावड़ा ही मानते थे और उस नाते कश्मीर की आजादी के सबसे बडे पक्षधर थे। शेख अब्दुल्ला और साम्यवादियों ने इस प्रकार एक दूसरे का प्रयोग अपने अपने हित के लिये करना शुरू किया। शेख अब्दुल्ला को तो इसका तुरन्त लाभ हुया। नेहरू की दृष्टि में अब्दुल्ला समाजवादी बन गये जबकि श्रीनगर की मस्जिद में वे हिन्दुओं के खिलाफ पहले की तरह ही जहर उगलते थे।
नेहरू को महाराजा से अपना पुराना हिसाब चुकता करना था। कुछ महीने पहले ही कश्मीर की सीमा पर खड़े होकर नेहरू ने कश्मीर के राज्यपाल को कहा था, ह्यतुम्हारा राजा कुछ दिन बाद मेरे पैरों पड़कर गिड़गिड़ायेगा।ह्ण शायद महाराजा का कसूर केवल इतना था कि 1931 में ही उन्होंने लंदन में हुई गोलमेज कान्फ्रेंस में ब्रिटेन की सरकार को कह दिया था कि, हम भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में एक साथ हैं। उस वक्त वे किसी रियासत के राजा होने के साथ साथ एक आम गौरवशाली हिन्दुस्थानी के दिल की आवाज की अभिव्यक्ति कर रहे थे। हरि सिंह ने तो उसी वक्त अप्रत्यक्ष रूप से बता दिया था कि भारत की सीमाएं जम्मू कश्मीर तक फैली हुई हैं। लेकिन नेहरू 1947 में भी इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे अड़े हुये थे कि जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा तभी माना जायेगा जब महाराजा हरिसिंह सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंप देंगे। ऐसा और किसी भी रियासत में नहीं हुआ था। शेख इतनी बड़ी रियासत में, केवल कश्मीर घाटी में भी कश्मीरी भाषा बोलने वाले सुन्नी मुसलमानों का ही प्रतिनिधित्व करते थे। बिना किसी चुनाव या लोकतांत्रिक पद्घति से शेख को सत्ता सौंप देने का अर्थ लोगों की इच्छा के विपरीत एक नई तानाशाही स्थापित करना ही था।
नेहरू तो विलय की बात हरि सिंह की सरकार से करने के लिये तैयार ही नहीं थे। विलय पर निर्णय लेने के लिये वे केवल शेख को सक्षम मानते थे, जबकि वैधानिक व लोकतांत्रिक, दोनों दृष्टियों से यह गलत था। महाराजा इस शर्त को मानने के लिये किसी भी तरह राजी नहीं थे। नेहरू चाहते थे कि हरि सिंह उनके पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ायें, लेकिन इतना तो कर्ण सिंह भी मानेंगे कि उस वक्त तक डोगरा राजवंश में यह बीमारी आई नहीं थी। नेहरू का दुराग्रह इस सीमा तक बढ़ा कि उन्होंने अब्दुल्ला की खातिर कश्मीर को भी दांव पर लगा दिया। माउंटबेटन के खासमखास रहे और उस वक्त रियासती मंत्रालय के सचिव वी़ पी़ मेनन के अनुसार, ह्यहमारे पास उस समय कश्मीर की ओर ध्यान देने का समय नहीं था। दिल्ली के पास महाराजा से बात करने का समय ही नहीं था और नेहरू शेख के सिवाय किसी से बात करने को तैयार ही नहीं थे। उस वक्त पूरी योजना से अफवाहें फैलाना शुरू कर दिया गया कि महाराजा तो जम्मू-कश्मीर को आजाद देश बनाना चाहते हैं।ह्ण कहना न होगा कि सरकारी इतिहासकारों ने इन अफवाहों को हाथों हाथ लिया और इसे ही इतिहास घोषित करने में अपना तमाम कौशल लगा दिया। जबकि असलियत यह थी कि नेहरू के चहीते शेख अब्दुल्ला ही रियासत को आजाद देश बनाना चाहते थे। खतरा उनको इतना ही था कि आजाद जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान ज्यादा देर आजाद रहने नहीं देगा और उस पर कब्जा कर लेगा। इसलिये अपने स्वप्नों के आजाद जम्मू-कश्मीर को स्थायी रूप से आजाद रखने के लिये शेख को केवल भारतीय सेना की सुरक्षा चाहिये थी और इसी के लिये वे जवाहर लाल नेहरू की मूंछ के बाल बन कर घूम रहे थे। इतना ही नहीं जब पाकिस्तान ने रियासत पर हमला ही कर दिया और उसका काफी भूभाग हथिया लिया तब भी नेहरू रियासत का विलय भारत में स्वीकारने के लिये तैयार नहीं हुये। राष्ट्रीय संकट की इस घड़ी में भी उनकी शर्त वही थी कि पहले सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंप दो तभी जम्मू कश्मीर का भारत में विलय स्वीकारा जायेगा और सेना भेजी जायेगी। यही कारण था कि महाराजा को विलय पत्र के साथ अलग से यह भी लिख कर देना पड़ा कि अब्दुल्ला को आपातकालीन प्रशासक बनाया जा रहा है। एक बार हाथ में सत्ता आ जाने के बाद उन्होंने क्या क्या नाच नचाये, यह इतिहास सभी जानते हैं। अब्दुल्ला ने नेहरू के साथ मिल कर महाराजा हरि सिंह को रियासत से ही निष्कासित करवा दिया और मुम्बई में गुमनामी के अन्धेरे में ही उनकी मृत्यु हुई।
महाराजा हरि सिंह एक साथ तीन तीन मोचोंर् पर अकेले लड़ रहे थे। पहला मोर्चा भारत के गवर्नर जनरल और ब्रिटिश सरकार का था जो उन पर हर तरह से दबाव ही नहीं डाल रहा था बल्कि धमका भी रहा था कि रियासत को पाकिस्तान में शामिल करो। दूसरा मोर्चा मुस्लिम कान्फ्रेंस और पाकिस्तान सरकार का था जो रियासत को पाकिस्तान में शामिल करवाने के लिये महाराजा को बराबर धमका रहे थे और जिन्ना अक्तूबर में ईद श्रीनगर में मनाने की तैयारियों में जुटे हुये थे। तीसरा मोर्चा जवाहर लाल नेहरू और उनके साथियों का था जो रियासत के भारत में विलय को तब तक रोके हुये थे, जब तक महाराजा शेख के पक्ष में गद्दी नहीं छोड़ देते। नेहरू ने तो यहां तक कहा कि यदि पाकिस्तान श्रीनगर पर कब्जा कर लेता है तो भी बाद में हम उसको छुड़ा लेंगे, लेकिन जब तक महाराजा शेख की ताजपोशी नहीं कर देते तब तक रियासत का भारत में विलय नहीं हो सकता। इसे त्रासदी ही कहा जायेगा कि जब महाराजा अकेले इन तीन तीन मोर्चों पर लड़ रहे थे तो उनका अपना बेटा, जिसे वे सदा ह्यटाईगरह्ण कहते थे, उन्हें छोड़ कर नेहरू के मोर्चे में शामिल हो गया।
महाराजा हरि सिंह ने माउंटबेटन के प्रयासों को असफल करते हुये रियासत को भारत में मिलाने के लिये जो संघर्ष किया उसे इतिहास में से मिटाने का प्रयास हो रहा है। जून ह्ण47 में लार्ड माउंटबेटन का श्रीनगर जाकर हरि सिंह से बात करने को इतिहास में जिस गलत तरीके से लिखा गया है और अभी भी पेश किया जा रहा है, उसे पढ़कर दुख होता है। माउंटबेटन के ब्रिटिश जीवनीकार ऐसा लिखें, यह तो समझ में आता है, लेकिन अफसोस कि भारतीय इतिहासकार भी उसी की जुगाली कर रहे हैं। माउंटबेटन हरि सिंह के पुराने परिचित थे। वे विभाजन पूर्व हरि सिंह को ह्यसमझानेह्ण के लिये श्रीनगर गये। आधिकारिक इतिहास के अनुसार उन्होंने हरि सिंह को कहा कि 15 अगस्त से पहले पहले आप किसी भी राज्य, भारत या पाकिस्तान में शामिल हो जाओ। यदि तब तक किसी भी देश में न शामिल हुये तो तुम्हारे लिये समस्याएं पैदा हो जायेंगी। ऊपर से देखने पर यह सलाह बहुत ही निर्दोष लगती है। इस पृष्ठभूमि में कोई भी कह सकता है कि रियासत में जो घटनाक्रम हुआ उस का कारण महाराजा का 15 अगस्त तक निर्णय न ले पाना ही नहीं था। लेकिन यह उतना सच है जितना दिखाई देता है। छिपा हुआ सच कहीं ज्यादा कष्टकारी है। माउंटबेटन भारत सरकार से यह आश्वासन लेकर गये थे कि यदि महाराजा हरि सिंह पाकिस्तान में शामिल होते हैं तो उनको कोई एतराज नहीं होगा। परोक्ष रूप से माउंटबेटन हरि सिंह को गारंटी दे रहे थे कि पाकिस्तान में शामिल होने के लिये भारत सरकार से डरने की जरूरत नहीं है। इसके साथ माउंटबेटन ने एक और शर्त लगाई कि किसी देश में भी शामिल होने से पहले प्रजा की राय लेना बहुत जरूरी है। ताज्जुब है, माउंटबेटन यही सलाह अपने दूसरे मित्र, हैदराबाद के नवाब को नहीं दे रहे थे, जिसकी सेनाएं भारत की सेना से भिड़ने की तैयारी कर रही थीं। माउंटबेटन के लिये ह्यप्रजा कीं राय जाननेह्ण का स्पष्ट अर्थ यही था कि हर हालत में पाकिस्तान में शामिल हो जाओ। एक संकेत और भी कर दिया था कि पाकिस्तान की संविधान सभा भी गठित हो जाने दो। माउंटबेटन स्पष्ट ही रियासत को पाकिस्तान में शामिल करवाने के लिये महाराजा की घेराबन्दी कर रहे थे।
जब हरि सिंह ने उस घेराबन्दी को तोड़ दिया तो माउंटबेटन ने गुस्से में हरि सिंह के बारे में कहा,- ह्यब्लडी बास्टर्डह्ण। वैसे तो यह गाली ही हरि सिंह की भारत भक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण पत्र है। यदि नेहरू इस जिद पर न अड़े रहते कि विलय से पूर्व सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंपी जाये, तो रियासत का विलय भारत में 15 अगस्त, 1947 से पहले ही हो जाता और राज्य का इतिहास दूसरी तरह लिखा जाता। बाद में किसी ने ठीक ही टिप्पणी की कि महाराजा हरि सिंह ने तो पूरा का पूरा राज्य दिया था, लेकिन नेहरू ने उतना ही रखा जितना शेख अब्दुल्ला को चाहिये था, बाकी उन्होंने पाकिस्तान के पास ही रहने दिया।
माउंटबेटन और उनकी जीवनी लिखने वालों ने तो कभी इस बात को नहीं छिपाया कि उनकी रुचि रियासत को पाकिस्तान में मिलाने की थी। लेकिन नेहरू और उनके जीवनीकारों ने सदा ही रियासत के मामले में की गई अपनी गलतियों को महाराजा हरि सिंह के मत्थे मढ़ने के सफल प्रयास किये। इसे हरि सिंह के हृदय की विशालता ही कहना होगा कि वे मुम्बई में चुपचाप अपमान के इस विष को पीते रहे, लेकिन उन्होंने अन्तिम सांस तक अपना मुंह नहीं खोला, शेख मुहम्मद अब्दुल्ला की तरह किसी मोहम्मद यूसुफ टेंग को पास बिठा कर अपनी जीवनी भी नहीं लिखवाई। मुम्बई में टेंगों की कमी तो नहीं थी। लेकिन यदि हरि सिंह किसी टेंग को पास बिठा लेते तो यकीनन नेहरू इतिहास के कटघरे में खड़े होते। कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
स्तम्भकार
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