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ऐसे एकल परिवारों की बेचैनी से परे, जहां जिंदगी सिर्फ अर्थ-काम का ह्यघेराह्ण है और जिनके ह्यटू बीएचकेह्ण फ्लैट सिर्फ खाने और सोने का ह्यडेराह्ण होकर रह गए हैं, यह अंक भारतीयता में पगे उन भरे-पूरे परिवारों के नाम जिनकी पहचान हैं ठहाकों से गूंजती बैठकें और सदा चहकते आंगन।
वैसे, ऊंचाइयों को छूने का हर प्रयास, हर कदम सराहनीय है मगर आगे बढ़ने की होड़ में जिंदगी की पहली सीढ़ी की अनदेखी हो जाए तो परिणाम घातक होते हैं, यहां पांव फिसला तो सब हासिल कर भी पास कुछ नहीं रहता।
दादी की गोद से गली की आवाजाही देखता बच्चा, परिवार के पायदान से उचकता कल का वह संभ्रांत नागरिक ही तो है जिसे सामाजिकता के कई सोपान तय करने हैं। व्यक्ति को समाज से जोड़ने वाली अति महत्वपूर्ण कड़ी की उपेक्षा व्यक्ति नहीं, पूरे समाज को तोड़ने वाली बात है। सो, इस दीपोत्सव पर बात उस दमकती कुटुंब व्यवस्था की जिसकी लौ पूरी समाज व्यवस्था को जिलाए रखती है।
पाञ्चजन्य का दीपावली विशेषांक समाज की इसी टूटन, सिकुड़ते परिवारों की व्याधि के विरुद्ध उदाहरण की चट्टानों की तरह खड़े लंबे-चौड़े परिवारों के नाम। साझा परिवारों की ये कहानियां काफी दिलचस्प हैं। कहीं बहुओं की कामकाजी पारियां बांटती सासू मां का प्रबंधन देखने लायक है तो कहीं कंधे-से कंधा मिलाकर हासिल किया गया सामाजिक-आर्थिक मुकाम। कहीं भाई बहनों की अक्खड़ मस्त टोलियां हैं तो कहीं भोज को मात देती नाश्ते की तैयारी। चंदावली का शर्मा परिवार हो या बहरैचा का भुर्तिया परिवार, भारतीय कुटुंब व्यवस्था के ये दमदार उदाहरण पश्चिम की उस स्नेह और संस्कार शून्य व्यक्तिवादी सोच को दर्पण दिखाते हैं जो कभी सामाजिक समझौते के सिद्धांत से परे देख ही नहीं सकी।
कुटुम्ब व्यवस्था में बुना भारतीय दर्शन कहता है, आत्मनो मोक्षार्थं जगद्हिताय च, यानी अपने मोक्ष की साधना और जगत का हित करने के लिए ही यह आत्मा है। अपने यहां व्यक्ति को यह घुट्टी परिवार से मिलती है जबकि पश्चिम के सिद्धांतों में यही ह्यजगतह्ण छूट जाता है और जीवन की बीच राह में व्यक्ति भीतर से टूटने लगता है। संयुक्त परिवार ह्यमैंह्ण का यही अकेलापन और तनाव तोड़ता है। संयुक्त कुटुंब की भारतीय व्यवस्था ऐसी अनेक व्यक्तिवादी व्याधियों का सहज उपचार है।
यह ह्यमैंह्ण का विकास नहीं, ह्यहमह्ण का व्याप है जो इकाई के रूप में व्यक्ति को और साथ-साथ, पूरे परिवार को ऐसे सकारात्मक रूप में गढ़ता है कि आदर्श समाज की नींव का पत्थर तैयार हो जाता है। ह्यधन्यो गृहस्थाश्रम:ह्ण यूं ही नहीं कहा गया। चार आश्रमों में बंटे जीवन के तीन आश्रमों का आधार यह कुटुम्ब व्यवस्था ही है। आतिथ्य उत्सुक सजी हुई देहरी, संस्कारों का तुलसी चौरा और मर्यादाओं के तोरण जिस घर की शोभा हों वह मंदिर से क्या कम है।
नामी स्कूलों के लिए सिफारिशी चिठ्ठी लिए कतारों में खड़े लोग शायद यह नहीं जानते कि बच्चे को संस्कारों के सौ-सौ रंगों से सजी उसकी पहली पाठशाला, संयुक्त परिवार से दूर रखने की भूल कितनी भारी है। मां के पास समय ना हो तो ठुनकते बच्चे को जिद्दी होते देर नहीं लगती, लेकिन यदि उसे साधने के लिए दादा-दादी, बड़े भाई-बहनों की पुचकार और फटकार का अनकहा मेल और माहौल मिल जाए तो ढिठाई जमती नहीं और यही ठुनकना-रूठना निर्दोष खेल बनकर रह जाता है। सही-गलत, झूठ-सच, पाप-पुण्य के जो पाठ रात की कहानियों में कानों से उतरते हैं तो आत्मा तक जाते हैं। ये सब बातें फीस चुकाकर सिखाई जा सकती हैं भला!
बड़े परिवारों की दिल छू लेने वाली कुछ छोटी-छोटी कहानियां हमने देश भर से जुटाई हैं। बड़े शहरों में परिवार की छोटी होती सोच को जगाने, ठीक करने के लिए ऐसी कहानियां शायद जरूरी हैं। पहले भारतीय कुटुम्ब व्यवस्था में खुलती इन खिड़कियों में झांकिए, फिर अपने अंतर्मन में। बड़े बुजुर्गों को पास रखने की बात करना ठीक है या उनके पास रहना? जरा सा वाक्य विन्यास मन की धुंध साफ कर देता है। सो, इस दीपावली घर की झाड़-पोंछ के अलावा क्यों ना मन का धुंधलका भी साफ कर लिया जाए।
दीपोत्सव की मंगलकामनाओं सहित
हितेश शंकर
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