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हमें ईश्वर बनना है तो हृदय को महासागर बनाना होगा

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Oct 19, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 19 Oct 2013 14:33:35

सुख और दु:ख दोनों ही जंजीरें हैं, एक स्वर्णिम और दूसरी लौह किन्तु दोनों ही हमें बांधने के लिए एक समान दृढ़ है और अपने वास्तविक स्वरूप के साक्षात्कार करने से हमें रोकती हैं। आत्मा दु:ख या सुख नहीं जानती। ये तो केवल स्थितियां हैं और स्थितियां अवश्य सदैव बदलती रहती हैं। आत्मा का स्वभाव आनन्द और अपरवर्तनीय शान्ति है। हमें इसे ह्यपानाह्ण नहीं है, वह हमें ह्यप्राप्तह्ण है। आओ, हम अपनी आंखों से कीचड़ धो डालें और उसे देखें। हमें आत्मा में सदैव प्रतिष्ठित रहकर पूर्ण शान्ति के साथ संसार की दृश्यावली को देखना चाहिए। वह तो केवल शिशु का खेल मात्र है और उससे हमें कभी क्षुब्ध न होना चाहिए। यदि मन प्रशंसा से प्रसन्न हो तो वह निंदा से दु:खी होगा। इन्द्रियों के या मन के भी सभी आनन्द क्षणभंगुर हैं, किन्तु हमारे अन्तर में एक सच्चा असम्बद्ध आनन्द है, जो किसी बाह्य वस्तु पर निर्भर नहीं है। ह्ययह आत्मा का आनन्द ही है, जिसे संसार धर्म कहता है।ह्ण जितना ही अधिक हमारा आनन्द हमारे अन्तर में होगा, उतने ही अधिक आध्यात्मिक हम होंगे। हम आनन्द के लिए संसार पर निर्भर न हों।
कुछ दीन मछुआ स्त्रियों ने भीषण तूफान में फंसकर एक सम्पन्न व्यक्ति के बगीचे में शरण पाई। उसने उनका दयापूर्वक स्वागत किया, उन्हें भोजन दिया और जिनके सुवास से वायुमंडल परिपूर्ण था, ऐसे पुष्पों से घिरे हुए एक सुन्दर ग्रीष्मावास में विश्राम करने के लिए छोड़ दिया। स्त्रियां इस सुगन्धित स्वर्ग में लेटीं तो, किन्तु सो न सकीं। उन्हें अपने जीवन से कुछ खोया हुआ-सा जान पड़ा और उसके बिना वे सुखी न हो सकीं। अन्त में एक स्त्री उठी और उस स्थान को गयी जहां कि वे अपनी मछली की टोकरियां छोड़ आई थीं। वह उन्हें ग्रीष्मावास में ले आईंऔर तब एक बार फिर परिचित वास से सुखी होकर वे सब शीघ्र ही गहरी नींद में सो गईं।
संसार मछली की हमारी वह टोकरी न बन जाए, जिस पर हमें आनन्द के लिए निर्भर होना पड़े?
सृष्टि कुछ ह्यबना देनाह्ण नहीं है, वह तो सम-संतुलन पुन: प्राप्त करने का एक संघर्ष है, जैसे किसी कॉर्क के परमाणु एक जल-पात्र की पेंदी में डाल दिए जाने पर, वे पृथक् और गुच्छों में ऊपर की ओर झपटते हैं और जब सब ऊपर आ जाते हैं और सम-संतुलन पुन: प्राप्त हो जाता है तो समस्त गति या ह्यजीवनह्ण एक हो जाता है। यही बात सृष्टि की है, यदि सम-संतुलन प्राप्त हो जाए तो सब परिवर्तन रुक जाएंगे, जीवन नामधारी वस्तु समाप्त हो जाएगी। जीवन के साथ अशुभ अवश्य रहेगा, क्योंकि संतुलन पुन: प्राप्त हो जाने पर संसार अवश्य समाप्त हो जाएगा, क्योंकि समत्व और नाश एक ही बात है। सदैव बिना दु:ख के आनन्द ही पाने की कोई संभावना नहीं है या बिना अशुभ के शुभ पाने की, क्योंकि जीवन स्वयं ही तो खोया हुआ सम-संतुलन है। जो हम चाहते हैं, वह मुक्ति है, जीवन नहीं, न आनन्द, न शुभ। सृष्टि शाश्वत् है, अनादि, अनन्त, एक असीम सरोवर में सदैव गतिशील लहर। उसमें अब भी ऐसी गहराइयां हैं, जहां कोई नहीं पहुंचा और जहां अन्य ऐसी निस्पन्दता पुन: स्थापित हो गयी है, किन्तु लहर सदैव प्रगति कर रही है, संतुलन पुन: स्थापित करने का संघर्ष शाश्वत् है। जीवन और मृत्यु उसी तथ्य के विभिन्न नाम हैं, वे एक सिक्के के दो पक्ष हैं। दोनों ही माया हैं, एक बिन्दु पर जीवन रहने के प्रयत्न की अगम्य स्थिति और एक क्षण बाद मृत्यु। इस सबसे परे सच्चा स्वरूप है, आत्मा। हम सृष्टि में प्रविष्ट होते हैं और तब वह हमारे लिए जीवन हो जाती है। वस्तुएं स्वयं तो मृत हैं, केवल हम उन्हें जीवन देते हैं, और तब मूखोंर् के सदृश हम घूमते हैं और या तो उनसे डरते हैं या उनका उपभोग करते हैं। संसार न तो सत्य है न असत्य, वह सत्य की छाया है।
कवि कहता है कि ह्यकल्पना सत्य की स्वर्णाच्छादित छायाह्ण है। आभ्यन्तर जगत्, सत्य जगत् ब्राह्म से असीम रूप से बड़ा है। बाह्य जगत् तो वास्तविक जगत् का छायात्मक प्रक्षेप मात्र है। जब हम ह्यरस्सीह्ण देखते हैं, ह्यसर्पह्ण नहीं देखते, और जब ह्यसर्पह्ण होता है, ह्यरस्सीह्ण नहीं होती, दोनों का अस्तित्व का साक्षात्कार नहीं कर पाते, वह केवल एक बौद्धिक कल्पना रहती है। ब्रह्म के साक्षात्कार नहीं कर पाते, वह केवल एक बौद्धिक कल्पना रहती है। ब्रह्म के साक्षात्कार में व्यक्तिगत अहं, और संसार की सब चेतना नष्ट हो जाती है। प्रकाश अन्धकार को नहीं जानता, क्योंकि उसका प्रकाश में कोई अस्तित्व नहीं है, इसी प्रकार ब्रह्म ही सब है। जब हम किसी ईश्वर को मानते हैं तो वास्तव में वह हमारी अपनी आत्मा ही होती है, जिसे हम अपने से पृथक् कर देते हैं और उसकी इस प्रकार पूजा करते हैं, जैसे कि वह हमसे बाहर हो, किन्तु वह सदैव हमारी अपनी आत्मा ही होती है, तथा वही एक और अद्वितीय ईश्वर है। पशु का स्वभाव, जहां वह है, वहीं रहने का, मनुष्य का शुभ खोजने और अशुभ से बचने का, और ईश्वर का न तो खोजने का और न बचने का। अपितु सदैव आनन्दमय रहने का है। आओ, हम ईश्वर बनें, हम अपने हृदय महासागर जैसे बनाएं, ताकि हम संसार की छोटी-छोटी बातों से परे जा सकें और उसे केवल एक चित्र की भांति देखें। तब हम इससे बिना किसी प्रकार प्रभावित हुए इसका आनन्द ले सकेंगे। संसार में शुभ को क्यों खोजें, हम वहां क्या पा सकते हैं? सर्वोच्च वस्तुएं जो वह दे सकता हैं, उन कांच की गोलियों के समान हैं, जो बच्चे कीचड़ के पोखर में खेलते हुए पा जाते हैं। वे उन्हें फिर खो देते हैं, और नए सिरे से उन्हें अपनी खोज प्रारम्भ करनी होती है। असीम शक्ति ही धर्म और ईश्वर है। यदि हम मुक्त हों, तभी हम आत्मा हैं, अमरता केवल तभी है, जबकि हम मुक्त हों,  ईश्वर तभी है, जब वह मुक्त हो।
जब तक हम अहं भाव द्वारा निर्मित संसार का त्याग नहीं करते, हम स्वर्ग के राज्य में कभी प्रविष्ट नहीं हो सकते। न तो कभी कोई प्रविष्ट हुआ, न कोई कभी होगा। संसार के त्याग का अर्थ है, अहं भाव को पूर्णतया भूल जाना, उसे बिल्कुल न जानना, शरीर में रहना, पर उसके द्वारा शासित न होना। इस दुष्ट अहं भाव को अवश्य ही मिटाना होगा। मनुष्य जाति की सहायता करने की शक्ति उन शांत व्यक्तियों के हाथ में है, जो केवल जीवित है और प्रेम करते हैं, तथा जो अपनी व्यक्तित्व पूर्णत: पीछे हटा लेते हैं। हमारा सर्वोत्तम कार्य और सर्वोच्च प्रभाव तब होता है, जब हम अहं के विचार मात्र से रहित हो जाते हैं। केवल निष्काम लोग ही बड़े-बड़े परिणाम घटित करते हैं। जब लोग तुम्हारी निन्दा करें तो उन्हें आशीर्वाद दो। सोचों तो, वे झूठे अहं को निकाल बाहर करने में सहायता देकर कितनी भलाई कर रहे हैं, यथार्थ आत्मा में दृढ़ता से स्थिर होओ, केवल शुद्ध विचार रखो और तुम उपदेशकों की एक पूरी सेना से अधिक काम कर सकोगे। पवित्रतता और मौन से शक्ति की वाणी निकलती है।

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