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कहा जाता है कि कान के आकार में बने इस किले की भूल-भुलैया के कारण इस दुर्ग को कानगढ़ कहा जाता था जो समय के साथ कांगड़ा कहलाने लगा। उस समय हिन्दू साम्राज्य के इस किले की समृद्घता व धन सम्पदा की गंूज दूर ईरान, अफगानिस्तान तक थी। गजनी का शासक महमूद इसी धन को लूटने के उद्देश्य से कंागड़ा घाटी में आया। उसने कांगड़ा नगर, नगरकोट देवी के मंदिर व किले को तहस-नहस करके भारी मात्रा में सोना, चंादी, हीरे, मोती व जेवरात प्राप्त किए। महमूद गजनवी ने किले पर अपना किलेदार नियुक्त कर दिया। जिसे दिल्ली के तोमर शासकों ने 1043 में हटा कर किले का नियंत्रण फिर से स्थानीय हिन्दू कटोच शासकों को सौंप दिया। वर्ष 1337 में मुहम्मद तुगलक तथा 1351 में फिरोजशाह तुगलक ने इस किले पर अपना अस्थाई आधिपत्य स्थापित किया। 1556 में अकबर के दिल्ली की गद्दी पर बैठने के पश्चात् यह किला राजा धर्मचंद के पास आ गया। 1563 में उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र माणिक्य चन्द शासक बना। 1571 में अकबर के सेनापति खानजहां ने किले पर आक्रमण किया। परन्तुु अकबर कभी भी स्थाई रूप से इस दुर्ग को अपने अधिकार में नहीं रख सका। 1620 में मुगल बादशाह जहंागीर ही अपने गर्वनरों की सहायता से इस किले को फतह कर पाया। उसने अपने विवरणों में इस किले की विजय को बहुत महत्वपूर्ण व महान कहा है। इस युद्घ में 12000 से अधिक कटोच शूरवीर वीरतापूर्वक लड़ते हुए मारे गए। जीत के पश्चात् जहंागीर जनवरी 1622 में कांगड़ा किले में आया। उसे यहां का वातावरण और आबोहवा बेहद पसंद आए। उसने किले में अपने नाम से जहंागीरी दरवाजा व एक मस्जिद का निर्माण करवाया। जो आज भी किले में मौजूद हैं। इसके बाद लंबे समय तक यह किला मुगल सेना के कब्जे में रहा। इसे छीनने के सारे प्रयास विफल रहे। वर्ष 1783 में बटाला के सिख सरदार जय सिंह कन्हैया ने मुगल सेना से किला अपने कब्जे में ले लिया। जिसे मैदानी क्षेत्रों के बदले किले को तत्कालीन कटोच राजा संसार चंद (1765-1823) को सौंपना पड़ा। इस प्रकार सदियों के बलिदान के पश्चात् हिंदू कंागड़ा नरेश फिर से दुर्ग में लौट पाए। नेपाल के अमर सिंह थापा के नेतृत्व में गोरखा सेना ने लगभग चार वर्ष तक इस किले की घेराबंदी की। 1809 में गोरखों के विरुद्घ सहायता के आश्वासन पर संधि के अनुसार किला महाराजा रंजीत सिंह को सौंप दिया गया। 1846 तक सिख इस दुर्ग पर काबिज रहे। इसके पश्चात् किला अंग्रेजों के पास आ गया। परन्तु 4 अप्रैल 1905 के भयानक भूकंप से कुछ दिन पूर्व ही अंग्रेज सेना इसे खाली कर चुकी थी।
कांगड़ा के इतिहास के इस सबसे विनाशकारी भूकंप से किले को भारी क्षति पहुंची। इसके कारण कई बहुमूल्य कलाकृतियां, इमारतें नष्ट हो गईं। परन्तु फिर भी यह किला अपने में हिन्दू इतिहास की कई कहानियंा समेटे हुए है। आज भी इसे देखने आने वाले, प्राचीन भारतीय स्थापत्य कला के अद्भुत प्रमाण को देखकर हैरान रह जाते हैं। वर्तमान में भारतीय पुरातत्व विभाग इस दुर्ग की देखभाल कर रहा है। किले में प्रवेश करने के लिए सर्वप्रथम महाराजा रंजीत सिंह द्वार से गुजरना होता है। इससे आगे एक संकरा रास्ता अहिनी दरवाजा तथा अमीरी दरवाजे से होते हुए किले के ऊपर तक जाता है। यहीं बीच में एक बरामदे पर बनी मेहराब में गणेश, महिषासुर मर्दिनी तथा हनुमान की प्रतिमाएं स्थापित हैं। इससे आगे जहंागीर दरवाजा फिर अंधेरी दरवाजा आता है। यहंा से देखने पर आसपास की घाटी का अति मनोहारी दृश्य दिखाई पड़ता है। अब आगे दर्शनी दरवाजा आता है। यह एक छोटा सा द्वार है जिससे निकल कर किले के महलों तक पहुंचा जाता था। इस द्वार के दोनों तरफ गंगा व यमुना की प्रतिमाएं लगी हैं। जिन पर समय की मार स्पष्ट दिखाई पड़ती है। द्वार से अंदर आने पर सामने माता अंबिका का मंदिर दिखाई देता है। इसमें माता अंबिका की एक प्राचीन मूर्ति विद्यमान है। माता अंबिका कटोच राजाओं की कुल देवी मानी जाती हैं। साथ ही एक कक्ष में जैन तीर्थंकर आदिनाथ की भव्य प्रतिमा विराजमान है। इस पर संवत्1523 (1466) का अभिलेख अंकित है। जैन श्रद्घालु इस विग्रह का आज भी पूजन अर्चन करते हैं।
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