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पिछले सप्ताह सोनिया कांग्रेस की मीडिया सेल के प्रभारी अजय माकन ने अचानक प्रेस कान्फ्रेंस बुलाकर घोषणा की कि सोनिया की बेटी प्रियंका 2014 के चुनाव में पूरे भारत में प्रचार नहीं करेंगी। वे केवल सोनिया के चुनाव क्षेत्र रायबरेली और राहुल के क्षेत्र अमेठी तक सीमित रहेंगी। इससे आगे बढ़कर उन्होंने सनसनीखेज रहस्योद्घाटन किया कि म.प्र. के दतिया जिले में रतनगढ़ देवी मन्दिर पर हुए हादसे से जनदृष्टि को हटाने के लिए भाजपा ने प्रियंका के बारे में यह अफवाह फैलायी है जिसे कुछ खबरयिा चैनलों ने जोर-शोर से प्रचारित किया है। स्पष्ट ही, अजय माकन को यह खंडन प्रसारित करने का आदेश 10, जनपथ से मिला होगा, जिसे उन्होंने बिना सोचे समझे तोते की तरह दोहरा दिया। बाद में पता चला कि यह खबर सोनिया कांग्रेस के ही किन्हीं बड़े नेता ने चैनलों को पहुंचायी थी, भाजपा का उससे दूर तक लेना-देना नहीं था।
इस सार्वजनिक खंडन के अगले दिन इलाहाबाद शहर की सिविल लाईन्स के सुभाष चौक पर एक होर्डिंग लगा मिला जिस पर लिखा था, ह्यमैया अब रहती बीमार, मैया पर बढ़ गया भार, प्रियंका फूलपुर से बनो उम्मीदवार (पार्टी का करो प्रचार), कांग्रेस की सरकार बनाओ तीसरी बारह्ण। फूलपुर माने वह चुनाव क्षेत्र जहां से नेहरू जी स्वयं चुनाव लड़ा करते थे। निहितार्थ स्पष्ट है कि पोस्टर लगाने वाले ने प्रियंका को नेहरू का सीधा उत्तराधिकारी बनाने की कोशिश की है। होर्डिंग पर इलाहाबाद जिला कांग्रेस कमेटी के सचिव हसीब अहमद और जिला कमेटी के सदस्य श्रीशचन्द्र दुबे के नाम छपे हैं। इस होर्डिंग के सामने आते ही सोनिया खेमे में भगदड़ मच गयी। दोनों को चटपट पार्टी से निलम्बित कर दिया गया। अब वे दोनों नेहरू परिवार के पैतृक निवास ह्यआनन्द भवनह्ण के सामने आमरण-अनशन पर बैठे हैं। उनका कहना है कि वह पोस्टर बड़े नेताओं को दिखाकर लगाया गया था। हमें ससम्मान वापस लिया जाए और माफी मांगी जाए।
कुफ्र से कम नहीं
इन दोनों पार्टी कार्यकर्ताओं को पार्टी-विरोधी एवं देशद्रोही तक घोषित कर दिया गया। उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष निर्मल खत्री ने आदेश दिया कि इन दोनों के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करायी जाय। इलाहाबाद जिला कांग्रेस अध्यक्ष अभय अवस्थी ने सोनिया का स्तुतिगान करते हुए कहा कि उन्हें बीमार बताना कुफ्र से कम नहीं है और ऐसे काफिरों को माफ नहीं किया जा सकता। यह कुफ्र से कम नहीं है कि सोनिया पार्टी ने बड़े प्रयत्नपूर्वक सोनिया की बीमारी पर गुप्तता का पर्दा डाल रखा है। उन्हें क्या बीमारी है, जिसके लिए वे बार-बार विदेश जाती हैं। कहां जाती हैं, उनका क्या इलाज होता है इन सबकी कोई जानकारी मीडिया को नहीं दी जाती और यह मीडिया, जो अपने को बड़ा तीसमार खां समझता है भाजपा एवं अन्य दलों की छोटी से छोटी गतिविधियों को सूंघता फिरता है, आजतक न तो सोनिया और राहुल से कोई लम्बा साक्षात्कार ले पाया, न उनकी विदेश यात्राओं का सत्य जान पाया।
किन्तु इस छोटी सी घटना को लेकर सोनिया खेमे में जो हड़बड़ी मची है उसे देखकर राजमहलों में पलने वाली दरबारी मानसिकता क्या होती है, इसका कुछ आभास हो सकता है। इससे शाही वंश के भीतर चल रही सत्ता-स्पर्धा का भी संकेत मिल जाता है। यह सर्वज्ञात है कि राहुल की अयोग्यता और बार-बार की राजनीतिक असफलता का पूरा ज्ञान होने के बाद भी सोनिया उन्हें ही अपने उत्तराधिकारी के रूप में खड़ा करने की कोशिश कर रही हैं। इसी दृष्टि से उन्हें उपाध्यक्ष बनाया गया है और उनके मार्गदर्शन के लिए आक्सफोर्ड और हार्वर्ड से विशेषज्ञों की एक टीम उनके पास जुटाई गयी है। सोनिया कांग्रेस के उपाध्यक्ष के रूप में विभिन्न राज्यों में भावी प्रत्याशियों के चयन में उसे निर्णायक भूमिका प्रदान की गयी है। परन्तु अभी तक एक भी उदाहरण सामने नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि राजस्थान हो या मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र हो या छत्तीसगढ़, पंजाब हो या हरियाणा, कहीं भी राहुल के हस्तक्षेप के बावजूद सोनिया कांग्रेस के भीतर गुटबंदी की आग बुझ पायी हो। उनके अपने चुनाव क्षेत्र अमेठी में उनके विरुद्ध नारे लगते हैं। 2012 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में सोनिया के रायबरेली और राहुल के अमेठी लोकसभा क्षेत्रों में उनकी पार्टी लगभग सभी विधानसभा सीटों को हार गई।
दरबारियों की चिन्ता
इसलिए वंश की पांचवीं पीढ़ी (नेहरू, इंदिरा, राजीव, सोनिया अब राहुल) में पले-बढ़े दरबारियों का चिन्तित होना स्वाभाविक है। उनकी चिन्ता सोनिया-राहुल से ज्यादा अपने भविष्य की है क्योंकि उनका राजनीतिक अस्तित्व पूरी तरह वंश पर आश्रित है। उनके अपने भविष्य के लिए वंश का सत्ता में बने रहना आवश्यक है। इधर 2014 के लोकसभा चुनावों को लेकर जो सर्वेक्षण सामने आ रहे हैं वे सभी सोनिया पार्टी के अंधेरे भविष्य की चेतावनी दे रहे हैं। अभी कल परसों ही दो सर्वे सामने आये। एक टाइम्स-नाऊ चैनल और सी. वोटर ने मिलकर पूरे भारत का सर्वे प्रस्तुत किया। इसके पहले इन्होंने जुलाई 2013 में एक सर्वे किया था। दोनों सर्वे के तुलनात्मक आंकड़े बताते हैं कि सोनिया पार्टी के लिए जन समर्थन का ग्राफ तेजी से नीचे जा रहा है। जुलाई का सर्वे यूपीए के खाते में 2009 की 259 सीटों से घटकर 136 सीटें दे रहा था तो यह आंकड़ा घट कर अक्तूबर में केवल 117 रह गयी हैं। इसके विपरीत भाजपानीत एनडीए का आंकड़ा जदयू के अलग हो जाने के बाद भी जुलाई के 156 से बढ़कर अक्तूबर में 186 पहुंच गया है। दूसरा सर्वे इकानामिक टाइम्स ने हिन्दी क्षेत्र के बिहार एवं उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में कराया। बिहार में भाजपा से गठबंधन तोड़ने के बाद जनता दल यूनाईटेड की सीटें 20 से घट कर 10 रहने की संभावना है, जबकि भाजपा की सीटें 12 से बढ़कर 17 हो रही है। उसी प्रकार उत्तर प्रदेश में भाजपा ने अभी अपना चुनाव अभियान शुरू नहीं किया है। पर उसकी सीटें 11 से बढ़कर 27 तक पहुंचती दीख रही हैं।
स्वभाविक ही, इन प्रतिष्ठित सर्वेक्षणों ने दरबारियों की नींद उड़ा दी है और वे ढहते हुए दुर्ग को बचाने के लिए प्रियंका को सामने लाना चाहते हैं। उन्हें प्रियंका में उनकी दादी इन्दिरा जी की झलक दिखायी देती है। प्रियंका भी स्वयं को उसी रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश करती हैं। पाठकों को स्मरण होगा कि लगभग एक वर्ष पूर्व उनके वेशभूषा, भाव-भंगिमा में इन्दिरा जी की छवि दिखाने का भारी प्रचार हुआ था। पता नहीं क्यों दरबारी संस्कृति में पले इन कांग्रेसियों को लगता है कि आज का युग ग्लेमर का युग है, मीडिया ग्लेमर का दीवाना है। और प्रियंका के पास वह ग्लेमर है। वैसे भी वे राहुल की अपेक्षा कहीं अधिक लोकप्रियता अर्जित कर सकती हैं। उनकी भाषण शैली रटी-रटाई नहीं लगती। वे बड़े अनौपचारिक शैली में भीड़ से रूबरू होती हैं। कम से कम एक बार तो वे डूबती नाव को किनारे लगा ही सकती हैं। इसलिए उनका अखिल भारतीय चुनाव प्रचार पार्टी को पुनरुज्जीवन प्रदान कर सकता है।
प्रियंका बनाम राहुल
पर, ऐसा प्रतीत होता है कि सोनिया अपना उत्तराधिकारी प्रियंका को नहीं सौंपना चाहतीं। उसका एक कारण तो यह हो सकता है कि तब उत्तराधिकार गांधी-परिवार से निकल कर वाड्रा परिवार में चला जायेगा। वाड्रा परिवार में जाने का अर्थ है कि उस पर राबर्ट वाड्रा के परिवार का कब्जा हो जायेगा। राबर्ट वाड्रा की आर्थिक एवं राजनीतिक आकांक्षाएं कई बार सामने आ चुकी हैं। और उनके आर्थिक घोटालों ने सोनिया की व्यक्तिगत छवि को धूमिल किया है। राबर्ट वाड्रा की ओर से कई बार यह संकेत दिया गया है कि वे राजनीति में आने को उत्सुक हैं। एक बार उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अभी राहुल की बारी है, कल प्रियंका की हो सकती है, उसके बाद मेरी पारी होगी। प्रियंका की लोकप्रिय छवि को राहुल के लिए खतरा माना जाता है। पिछले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के समय जब प्रियंका से पत्रकारों ने पूछा किा क्या आप अन्य चुनाव क्षेत्रों में भी जायेंगी तो प्रियंका का अर्थपूर्ण उत्तर था कि यदि राहुल कहेंगे तो ही मैं जाऊंगी। इसका अर्थ स्पष्ट है कि उन्हें राहुल के स्पर्धी के रूप में देखा जा रहा है। यह अफवाह भी है कि वाड्रा परिवार को इस स्पर्धा से बाहर निकालने के लिए ही राबर्ट वाड्रा के भूमि-घोटालों पर से पर्दा उठ जाने दिया गया।
सच चाहे जो हो, एक बात स्पष्ट है कि सत्ता में वापस आने की सब तिकड़मबाजियों के बावजूद सोनिया कांग्रेस लगातार पराजय की खाई की ओर बढ़ रही है। अभी तक उनके रणनीतिकारों ने गणित लगाया था कि 18 प्रतिशत मुस्लिम वोट, 5 प्रतिशत चर्च प्रेरित ईसाई वोट में अगर 10 प्रतिशत हिन्दू वोट जोड़ लिये गये तो हमारा सत्ता में वापस आना सुनिश्चित है। मुस्लिम वोटों को अपने पीछे एकजुट करने के लिए पिछले बारह साल से वे 2002 के दंगों का राग अलाप कर नरेन्द्र मोदी की मुस्लिम विरोधी छवि बनाने में लगे थे, पर उनकी देशव्यापी लोकप्रियता ने इस दांव को निरर्थक बना दिया तो अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर बंदूक तानी जा रही है। पहले केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने प्रचार शुरू किया कि 2014 का चुनाव युद्ध भजपा के साथ नहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ लड़ा जायेगा। और अब वित्तमंत्री पी. चितम्बरम ने अपनी अमरीका यात्रा के दौरान यही राग अलापा है कि इस बार चुनाव में हमारा मुख्य प्रतिद्वन्द्वी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है। उनको लगता है कि स्वाधीनता प्राप्ति के समय से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मुस्लिम विरोधी चित्रित करके उसका हौवा दिखाकर हमें मुस्लिम वोट बटोरने में सफलता मिली है। वही दांव इस बार और खुलकर खेलने की कोशिश है। इसके साथ-साथ 10, जनपथ द्वारा पोषित पत्रकारों ने प्रचार शुरू कर दिया है कि संघ 1949 में भारत सरकार को दिये गये किसी वचन का उल्लंघन करके राजनीति में सीधा हस्तक्षेप कर रहा है। अत: उसके विरुद्ध यह वचन भंग की कार्रवाई की जा सकती है। इन मू्रर्खों को न तो इतिहास की सही जानकारी है और न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वास्तविक चरित्र की। संघ की प्रतिबद्धता भारत राष्ट्र के प्रति है, सत्ता राजनीति के प्रति नहीं। यदि सत्ता-राजनीति राष्ट्र के हितों पर आघात करती है तो उस आघात को रोकना राष्ट्रभक्ति की मांग है। और इसी कर्तव्य का पालन संघ कर रहा है व करता रहेगा।
निर्लज्जता की हद
मुस्लिम वोटों को लुभाने के लिए जहां नरेन्द्र मोदी और संघ का हौवा दिखाया जा रहा है, वहीं भारतीय समाज को हिन्दू-मुस्लिम आधार पर विभाजित करने के लिए केन्द्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे राज्य सरकारों को निर्देश दे रहे हैं कि जिहादी गतिविधियों के आरोप में निरपराध मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार न किया जाए। पर गृहमंत्री जी ने यह नहीं बताया कि देश में जिहादी घटनाओं के जो समाचार आयेदिन छपते हैं और चैनलों पर दिखाये जाते हैं, उनके सही अपराधियों तक पहुंचाने का पुलिस के पास क्या उपाय है। क्या उन्होंने मुस्लिम समाज को कभी यह सलाह दी कि वे अपने समाज को बदनाम करने वाले ऐसे तत्वों को स्वयं आगे होकर पुलिस के हवाले कर दें और उनका सामाजिक बहिष्कार कर दें। क्या वे ऐसा एक भी उदाहरण पेश कर सकते हैं। पिछले 20-25 साल में घटित सैकड़ों आतंकवादी घटनाओं के लिए किसी एक भी व्यक्ति को पकड़वाने में पुलिस को सहयोग मिला हो। इसके अभाव में ऐसा आदेश जारी करने का अर्थ है आतंकवाद के विरुद्ध पुलिस के हाथ पैर बांध देना। समाज को विभाजित करने की इस नीति के साथ-साथ मुस्लिम समाज को शेष समाज से अलग करने के लिए आर्थिक प्रलोभन दिये जा रहे हैं। सेानिया के मंत्री उनको 10 प्रतिशत आरक्षण की मांग उठा रहे हैं, उन्हें तरह-तरह के ऋण दिये जा रहे हैं। सोनिया पार्टी के कर्नाटक अध्यक्ष ने निर्लज्जता से सार्वजनिक घोषणा की कि यदि मुस्लिम लोग ऋण की किश्तें वापस न करें तो उनको मजबूर न किया जाए।
किन्तु अब मुस्लिम समाज के भीतर से ही मौलाना महमूद मदनी जैसे श्रेष्ठ नेता सामने आकर इस विभाजनकारी नीति की खुली आलोचना कर रहे हैं। नरेन्द्र मोदी का हौवा दिखाकर मुस्लिम वोट बटोरने की नकारात्मक राजनीति की भी वे निन्दा कर रहे हैं। मौलाना मदनी की विद्वता, मजहब निष्ठा व राष्ट्रभक्ति सन्देह के परे है। उनके सामने आने से विश्वास होता है कि ऐसा मुस्लिम नेतृत्व एवं बुद्धिजीवी वर्ग जो इस विभाजनकारी नीति के विरुद्ध भीतर ही भीतर घुटन अनुभव कर रहा था अब मौलाना मदनी के साथ खड़ा हो जाएगा। और भारत के इतिहास में सच्ची राष्ट्रीय एकता का एक नया अध्याय आरंभ होगा। देवेन्द्र स्वरूप
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