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आदिकाल से साहित्य जगत में यह प्रश्न रहा है कि कला कला के लिए है अथवा जीवन के लिए और अंत में निर्णय कला जीवन के लिए है, इसी पक्ष में होता रहा है। पहाड़ों की कंदराओं में बैठ कर कोई कलाकार क्या लिखता, चित्रित करता अथवा गाता है उसका तो समाज पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, पर जब जनता जनार्दन के लिए कोई रचना विशेषकर नाटक, चलचित्र आदि प्रदर्शित किए जाते हैं तो उसका असर मानव मन पर ही नहीं, अंतर्मन पर बहुत गहरा पड़ता है। वैसे भी यह सर्वमान्य है कि दृश्य काव्य बहुत शीघ्र तथा अधिक काल तक अपना प्रभाव रखता है।
भारत में महिलाओं के विरुद्घ अपराध बढ़ रहे हैं। इतने बढ़ गए कि फिर संसद से लेकर गलियों तक शोर मचा। इसी शोर के प्रभाव में कानून बदले और सजा देने की शीघ्रता में ही नहीं, अपितु कठोरतम दंड देने की होड़ में न्यायालय से उन्हें मृत्युदंड मिला, जिन्होंने एक युवती के साथ अमानवीय, पाशविक व्यवहार किया।
मेरा यह पक्का विश्वास है कि संसद में महिलाओं की दुर्गति और महिलाओं के विरुद्घ जो आंसू बहाए गए, उनमें से अधिकतर आंसुओं को मगरमच्छ के आंसू कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है। मगरमच्छ के आंसू मैंने अपनी आंखों से तो नहीं देखे, लेकिन मानव वेश में शाब्दिक आंसू बहाते कुछ ऐसे नेता जरूर देखे हैं जिन्हें वास्तव में देश की बेटियों के मान, सम्मान की अथवा अपराधियों द्वारा महिलाओं के नोंचे जाते शरीरों का कोई दर्द नहीं है। मैं यह भी मानती हूं कि समाज का वातावरण, शिक्षा, परिवारों के संस्कार और कुल मिलाकर देश और समाज के महापुरुषों का निजी जीवन एवं चरित्र नई पीढ़ी को दिशा देता है, जीने का रास्ता दिखाता है। जिस देश में कला के नाम पर यह कह दिया जाए कि मनोरंजन के लिए कुछ भी ठीक है, जो बिकेगा, वही दिखेगा, जनता जो देखना चाहती है वही कलाकार दिखाएगा, क्योंकि यह व्यापार है और पैसा कमाना ही व्यापार का लक्ष्य रहता है। याद रखना होगा कि व्यापार पर भी कुछ नियम लागू होते हैं। शराब भट्ठी की भी बिकती है, पर नहीं बेचने दी जाती। नशे की गोलियां खाने के कई लोग शौकीन हैं, पर नहीं बिकने दी जातीं, ड्रग्स का धंधा खूब चलता है पर यह व्यापार भी समाज के लिए घातक है इसलिए रोका जाता है।
एक निजी टीवी चैनल पर चर्चा चल रही थी कि ग्रे्रंड मस्ती फिल्म समाज को दिखाने योग्य है या नहीं। विचार यह भी हो रहा था कि इससे युवा मन वासना के गर्त की ओर दौड़ेगा, गिरेगा और अपराध भी करेगा। तर्क यह भी दिया जा रहा था कि क्या महिला का नग्न शरीर ही मनोरंजन का आधार बनाया जा सकता है? अधिकतर वार्ताकारों का मत यह था कि ऐसी फिल्में और महिलाओं के सम्मान के साथ ऐसा घिनौना व्यवहार कभी भी सहा नहीं जा सकता, लेकिन उसी में एक फिल्म समीक्षक पत्रकार ने सभी सामाजिक सीमाओं को तोड़ने की वकालत कर दी। उनका यह कहना था कि फिल्म वयस्कों के लिए है और जो देखना चाहे, देखे। लोग पसंद करते हैं इसलिए फिल्म देखते हैं। किसी के माथे पर बंदूक रखकर जबरन तो फिल्म नहीं दिखाई जा रही। उनका तो तर्क यह था कि आज देश में सेंसर बोर्ड की भी जरूरत नहीं, क्योंकि विदेशों में अब सेंसर बोर्ड की आवश्यकता को ही नकारा जा रहा है। जब इंटरनेट पर अति नग्नता दिखाई जा रही है तो फिर ग्रेंड मस्ती जैसी फिल्मों को दिखाने में कोई हर्ज नहीं। इस समीक्षक महोदय को यह याद ही नहीं रहा कि महिलाओं के सम्मान का जो मापदंड भारत में है वह पश्चिम में है ही नहीं। भारत को भारत ही रहने देना चाहिए, यह इस समीक्षक के ध्यान में ही नहीं।
सवाल देश के सामने फिर वही है कि महिलाओं के सम्मान के साथ यह खिलवाड़ क्यों? यह भी कह सकते हैं कि महिलाओं का ऐसा अपमान क्यों? किसी गली मुहल्ले में जब कोई अपराधी किसी परिवार से बदला लेने के लिए ही एक महिला को निर्वस्त्र करता है तो उसको भारतीय दंड संहिता की धारा 354बी के अनुसार दंडित किया जाता है, जेल भेजा जाता है। इस धारा के अनुसार अपराधी को तीन वर्ष से लेकर सात वर्ष तक के कारावास की सजा हो सकती है और साथ ही आर्थिक दंड भी। जो सामाजिक संहिता है उसके आधार पर तो जनता स्वयं ही ऐसे अपराधियों को पीट-पीट कर बेहाल कर देती है। पर छोटे-बड़े पर्दे पर महिलाओं को निर्वस्त्र दिखाना अपराध नहीं? इसका उत्तर कौन देगा, देश के राष्ट्रपति तक सारे ही सत्तापति खामोश हैं। उनमें इतनी हिम्मत ही नहीं कि बुरे को बुरा कह सकें। इस देश में महिलाओं को अशिष्ट रूप में प्रस्तुत करने पर दंड देने के लिए एक और भी कानून है, जिसे सन् 2012 में फिर कठोर बनाया गया। अर्थात् जुर्माना भी ज्यादा होगा और सलाखों के पीछे उस व्यक्ति अथवा संस्था को अधिक समय तक रहना पड़ेगा जो महिला को अश्लील रूप में प्रस्तुत करते हैं। सीधा अर्थ है, अश्लील का मतलब है नग्नता और ग्रेंड मस्ती और अन्य कई फिल्मों में महिला शरीरों को निर्लज्जतापूर्वक लगभग बिना कपड़ों के ही प्रदर्शन किया गया है। कहां सो गए हैं देश के कानून को लागू करने वाले?
कई बार हमारे न्यायालय स्वत: प्रेरणा से अपराध का संज्ञान लेते हैं और अपराधियों को दंड भी देते हैं। अफसोस यह है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय से लेकर सभी प्रांतों के न्यायाधीश भी न जाने क्यों आंखें मंूदे बैठे हैं। अगर यह फिल्म वयस्कों के लिए अच्छी है तो एक दिन क्यों न ऐसा किया जाए कि देश के सभी केंद्रीय मंत्री और न्यायालयों के सभी न्यायाधीश एक ही सभागार में अपने परिवारों के साथ बैठें, अपनी बेटियों और बहुओं से पूछें कि क्या वे इस रूप में समाज के सामने आना चाहेंगी अथवा स्वयं उत्तर दें कि क्या वे अपने परिजनों को इस रूप में देखना चाहेंगे? गली-बाजारों के मोड़ पर चौक-चौराहों में अत्यंत अपमानजनक ढंग से महिलाओं के चित्र लगाए, दिखाए जाते हैं। जो महिलाएं महिला अधिकारों के लिए केवल टेलीविजन के पर्दे पर लड़ती दिखाई देती हैं, जो जन प्रतिनिधि संसद में टीए-डीए लेकर महिलाओं की दुर्गति पर असली-नकली आंसू बहाते हैं, क्या उन्हें यह महसूस नहीं होता कि जब तक समाज में र्ग्रेंड मस्ती जैसी फिल्में दिखाने की आज्ञा दी जाएगी, इंटरनेट पर नग्नता परोसी जाएगी, फैशन मेलों के नाम पर कपड़ों का कम और शरीरों का प्रदर्शन जारी रहेगा, तब तक बेचारी लड़कियां विशेषकर गरीब और बेसहारा लड़कियां इस कामुकता का शिकार होती रहेंगी और कुछ अपराधी बनकर फांसी के फंदे पर लटकाए जाएंगे? टीवी चैनलों पर चर्चा होगी और जिस अपराध की जितनी अधिक चर्चा हो जाएगी, उतना ही अपराधी को दंड भी ज्यादा मिल जाएगा और फिर भारतीय दंड संहिता में एक उपधारा अधिक जुड़ जाएगी। लक्ष्मीकांता चावला
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