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नकारने का अधिकार और लोकतंत्र के सवाल

by
Oct 12, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Oct 2013 17:48:51

आज तक सिर्फ यह सुना जाता रहा है की लोकतंत्र में जनता को चुनने का अधिकार है लेकिन हाल ही के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद अब भारत में जनता को यह अधिकार दिया जा रहा है कि वह चुनाव में किसी को न चुने  या सभी उम्मीदवारों को नापसंद कर दे।  अब तक तो लोकतंत्र चुनाव की एक प्रक्रिया रही है, लेकिन क्या अब यह भारत में छटनी की प्रक्रिया बन रही है। अगर जनता को चुनाव में खड़े सभी उम्मीदवार अच्छे नहीं लगे तो वे इनमें से ह्य कोई नहीं ह्ण को भी चुन सकती है। यह भारतीय लोकतंत्र में एक नए पहलु के जुड़ने जैसा है। वह भी तब जब देश के अधिकांश भागों में और अधिकांश जनता में चुनावी प्रक्रिया के प्रति उदासीनता पाई जा रही है।  क्या यह नया पहलु इस समय हमारे देश के लिए समीचीन है? फिलहाल यह एक यक्ष प्रश्न बन कर खड़ा है क्योंकि इस निर्णय का विरोध और समर्थन करने वाले दोनों ही वर्ग इसके संभावित असर के बारे में निश्चित नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 27 सितंबर के निर्णय में नकारात्मक मतदान को प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए चुनाव प्रक्रिया में इनमें से कोई नहीं को उम्मीदवारों  की सूची में जोड़ने का आदेश दिया है।
यानी इसके लागू होने पर मशीन में उम्मीदवारों के नाम के साथ एक और विकल्प होगा। यदि मतदाता को कोई अच्छा नहीं लगता है तो वहह्य कोई नहीं ह्ण का बटन दबा कर अपनी राय दे सकता है, लेकिन अब सवाल यह उठता है कि यदि अगर चुनाव में किसी विधान सभा या लोक सभा क्षेत्र से अगर सबसे ज्यादा बार कोई नहीं बटन दबाया गया और वह जीत गया तो फिर क्या होगा।
देश के कुछ क्षेत्रों में किसी एक या अधिक चुनाव में यह संभव है कि जनता सबसे अधिक अपना  मत इनमें से ह्यकोई नहीं ह्णको ही दे दें तो इस परिस्थिति में अगला कदम क्या होगा यह अभी पूरी तरह निश्चित नहीं है।
इनमें से कोई नहीं को सबसे अधिक मत मिलने की स्थिति में क्या करना चाहिए उसके लिए अभी दो विकल्प हैं। पहली स्थिति में यह हो सकता है कि मत गणना की प्रक्रिया के दौरान इनमें से कोई नहीं वाले सभी मतों को परिणाम घोषित के लिए गिनती नहीं की जाये और जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत मिले उसे विजयी घोषित कर दिया जाए,  लेकिन अगर इनमंे से कोई नहीं को कुल मतदान का 80 या 90 प्रतिशत मत प्राप्त हो जाए तो उस स्थिति में बचे हुए 20 या 10 प्रतिशत मतों में से ही यह देखना पड़ेगा की किस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत मिले। ऐसी स्थिति में एक ऐसा भी उम्मीदवार चुनाव जीत जाएगा जिसे सिर्फ 5 प्रतिशत मत ही मिले हों। यदि ऐसा हुआ तो यह जनता के प्रतिनिधित्व का मजाक होगा और ऐसा हो सकता है क्योंकि हम सभी जानते हैं किभारत नकारात्मक या सकारात्मक दोनों ही दिशाओं में सभी संभावनाओं का देश है़
दूसरी स्थिति में यह सोच कर देखना चाहिए की अगर इनमें से कोई नहीं को मिले सभी मतों को परिणाम घोषित करने की प्रक्रिया में रखा जायेगा तो फिर क्या होगा, यह हो सकता है की इनमे से कोई नहीं को सबसे अधिक मत मिले और उस आधार पर चुनाव को रद्द कर दिया जाए। सरकार और चुनाव आयोग के कुछ वर्ग का यह मानना है की अगर इनमें से कोई नहीं को 50 प्रतिशत से ज्यादा मत मिलते हैं तो पुनर्निर्वाचन को लागू किया जाएगा।
जिसमें उन सभी उम्मीदवारों को खड़े होने पर रोक होगी जो इस प्रक्रिया के दौरान नहीं जीत पाए़ लेकिन यहाँ सवाल फिर खड़ा होता है की पुनर्निर्वाचन की स्थिति में यह कैसे सुनिश्चित किया जाएगा कि राजनैतिक दल इस प्रकार के उम्मीदवार को मैदान में  लाएंगे जिसे जनता पसंद करेगी ही, अगर पुनर्निर्वाचन की व्यवस्था को लागू किया जाएगा तो कुछ अजीब समस्याएं भी सामने आ सकती हैं जो देश की संप्रभुता, एकता और अखंडता के लिए खतरा बन सकता है। जैसे की जम्मू कश्मीर और उत्तर-पूर्व राज्यों के कुछ विधान सभा क्षेत्र में जहां चरमपंथियों के डर के साए में जनता ह्यइनमंे से कोई नहीं ह्ण को बार-बार चुन सकती है। ऐसे क्षेत्रों में पुनर्निर्वाचन को लागू करने पर भारत के लिए एक अजीब स्थिति पैदा हो सकती है, जिसका असर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखा जा सकता है, पाकिस्तान जैसे देश को इस स्थिति से एक नया बल मिलने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता़
 सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने निर्णय में कहा कि मतदाताओं के पास चुनाव लड़ रहे सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार करने का अधिकार है। मतदाता को यह विकल्प मिलने से चुनाव की शुचिता बढ़ेगी। इससे चुनाव में भागीदारी बढ़ेगी क्योंकि जो लोग उम्मीदवारों से संतुष्ट नहीं होंगे वे सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार कर अपनी राय व्यक्त कर सकेंगे। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह विकल्प मिलने से निर्वाचन प्रक्रिया में व्यवस्थागत बदलाव आने हैं क्योंकि इससे राजनीतिक दलों को स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवारों को चुनाव में उतारने हेतु मजबूर होना पड़ेगा,लेकिन इस शुचिता को लाने के लिए हमें पुनर्निर्वाचन की व्यवस्था को भी स्वीकार करना पड़ेगा जिसमें खतरा भी है और यह निश्चित नहीं है की पुनर्निर्वाचन की स्थिति में अच्छे उम्मीदवार ही जीतेंगे।अब यह सरकार और चुनाव आयोग पर निर्भर है कि वे किस प्रकार से सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को लागू करते हैं। * नवीन कुमार

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