धर्माधारित लोकतन्त्र
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धर्माधारित लोकतन्त्र

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Oct 12, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Oct 2013 17:22:25

विश्व में लोकतन्त्र-शासन-प्रणाली सर्वाधिक प्रचलित है। विश्व के इतिहास ने सुदीर्घ अनुभव से अनेक शासन-प्रणालियों का परीक्षण किया है, परन्तु अन्त में इस परिणाम पर पहुॅचा जा सकता है कि जनतन्त्र ही सर्वश्रेष्ठ शासन-पद्घति है। जनतन्त्र की सफलता का मूल कारण व्यक्ति की गरिमा और अस्मिता का प्रगटीकरण और समानता, स्वतन्त्रता का संरक्षण है।
वस्तुत: भारत ही विश्व में लोकतन्त्र का जन्मदाता है। वैदिक काल में ही यहां इस सर्वकल्याणकारी राज-पद्घति का विकास हो चुका था। उस काल-खण्ड में राजा का चुनाव किया जाता था। अथर्ववेद में कहा गया है कि  हे सम्राट्! आपको ये विद्वान् चुन रहे हैं। आप हमारे इस चुनाव में मंगलकारी बनो। ब्राम्हण-ग्रन्थों के निर्माण-काल में ह्यसभाह्ण और ह्यसमितिह्ण का पूर्ण विकास हो चुका था। वैदिक शासन-प्रणाली में जनता के विचारों को विशेष महत्व दिया जाता था। ह्यसभाह्ण और ह्यसमितिह्ण के सहयोग से राजा जन-कल्याण के कार्य करता था। जबकि ब्रिटेन में तो संसदीय शासन प्रणाली का उदय  एक हजार वर्ष से अधिक पुराना नहीं है।
प्राचीन भारत में लोकतन्त्र का स्वरूप धर्माधारित रहा है। इसलिए राम-राज्य हमारा आदर्श माडल है। ह्यजासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी॥ह्ण यह राज-धर्म का मन्त्र था। रामचरितमानस में राम-राज्य के रूप में जिस राजतन्त्र का निरूपण किया गया है, उसमें जनतन्त्र का आदर्श रूप साकार हुआ है। राम राजा बनते ही जनता को आत्म-निर्णय की खुली छूट देते हैं और उन्हें स्वतन्त्रता का पूर्ण बोध कराते हुए कहते हैं कि  ह्यन तो कोई अनीति है और न मेरा कोई आधिपत्य या प्रभुत्व है, तुम सब अपने मन के अनुरूप कार्य करो। यद्यपि यदि मैं कभी कोई अनीति की बात कहूं तो तुम निर्भीक होकर मुझे तत्काल रोक दो।
 नहि अनीति नहि कछु प्रभुताई।
सुनहु करहु जो तुम्हहि सुहाई॥
जो अनीति कछु भाखों भाई।
तो मोहि बरजउ भय बिसराई॥
महात्मा गांधीजी ने इसी राम-राज्य को भारत के लिए आदर्श शासन-पद्घति माना था, किन्तु उनका वह सपना सच्चे अथोंर् में साकार नहीं हो सका। इस प्रकार प्राचीन भारत में शासन-व्यवस्था धर्मसम्मत थी। उस समय शासक और शासित धर्म-नीति से नियन्त्रित थे एवं उस युग में राजनीति मर्यादित थी। राजा राज-कर्म को ही राज-धर्म समझते थे। महाभारत में उल्लेख है- ह्यप्रजा कार्य ही शासक का कार्य है, प्रजा का सुख ही उसका सुख है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है तथा प्रजा के हित में उसका हित है। उसका सर्वस्व प्रजा के निमित्त है। अपने लिये कुछ भी नहीं।ह्ण हमारे वैदिक ऋषियों ने समतामूलक लोक- कल्याण-आधारित जीवन-दृष्टि से अभेदमूलक और ममतावादी सर्वोदयी शासन-पद्घति का विकास किया था, जिसे हम प्रजातन्त्र या लोकतन्त्र नाम से पुकारते हैं।
हमारे शास्त्रकारों ने जनतन्त्र की आचार-संहिता का उल्लेख किया है। ऋग्वेद के दसवें मण्डल का सूक्त 191 उल्लेख करता है कि एकता, समता, सहयोग, संगठन ही लोकतन्त्र के व्यावहारिक और आचारिक पक्ष को पुष्ट करता है। धर्म सारी प्रजा को धारण करता है- ह्यधर्मो धारयते प्रजा:ह्ण। ़हरिश्चन्द्र वर्मा ने वैदिक गणतन्त्र के धर्माधारित स्वरूप की स्पष्ट व्याख्या करते हुए लिखा है कि ह्यवेदों में निरूपित गणतन्त्र की उपयुक्त झांकी से स्पष्ट है कि प्राचीन भारत की गणतन्त्रीय शासन-व्यवस्था धर्म की धारणा पर आधारित होने के कारण सर्वोदयी और सर्वमंगलकारी थीह्ण।
विरोधाभास यह है कि हमारे संविधान-निर्माताओं ने पश्चिम की लोकतन्त्रीय शासन-प्रणाली को स्वीकार किया और हमारे ऋषियों के दृष्टिकोण को छोडकर पश्चिम का ढांचा अपनाया। हमने धर्म को भी पश्चिम की दृष्टि से देखा और उसको अपनाया। हमारी दिशा और दृष्टि बदल गयी हैं। राजनेता छद्म धर्मनिरपेक्षता की आड़ लेकर राजधर्म को छोड़ते गये। जबकि धर्म, व्यक्ति, समाज, राज्य, राष्ट्र और विश्व की व्यवस्था को धारण करने वाला शाश्वत तत्व है। धर्म एक आचार-संहिता है एवं धर्म ही लोक-जीवन को धारण करके समाज के प्रत्येक अंग को व्यवस्थित और अनुशासित करता है। इस प्रकार धर्म का मूल उद्देश्य लोक-कल्याण और लोकमंगल की स्थापना करना है।
आज हमारा लोकतन्त्र धर्म-विहीन दिशा की ओर जा रहा है। इसका दुष्परिणाम हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर दिखायी देता है। और हमारे लोक पर तन्त्र  हावी है।   यह भारत के लोकतन्त्र की प्रमुख समस्या है। इस समस्या का समाधान भी हमारे देश के विचारकों के पास है। हमारे वर्तमान भारत के विचारकों ने इस सम्बन्ध में अनेक सुझाव दिये हैं। इनमे सबसे महत्तपूर्ण सुझाव है कि लोकतन्त्र में जनता की सहभागिता को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करना। यह लोकतन्त्र का सहयोग-धर्म है। लोकतन्त्र में सहभागिता का माध्यम मतदान है, जिसके द्वारा जन स्वविवेक से अपने अधिकार का प्रयोग करता है। जो कि उसका अधिकार है। प्रसिद्घ विचारक पं.  दीनदयाल उपाध्याय का विचार है कि ह्ययदि हम राष्ट्रहित और समाज-हित का सन्तुलित विचार करते हुए अपने हित को संयमित करके मतदान करेंगे, तो निर्वाचित प्रतिनिधि भी धर्मानुकूल राजनीति का आचरण करेंगे। ऐसी स्थिति में धर्माधारित लोकतन्त्र की स्थापना होगी।ह्ण आगे स्व.  पंडित जी ने सुझाव दिया है कि इसके लिये लोकमत के परिष्कार की आवश्यकता है। लोकमत के परिष्कार का कार्य वीरांग संन्यासियों का है, अर्थात भारत की वह सक्रिय संगठित सज्जन-शक्ति, जो धर्मानुसार जनता के ऐहिक और परलौकिक उत्कर्ष की कामना लेकर जन-जागरण का कार्य करते रहे। उनके समक्ष कोई लोभ, मोह न होने के कारण वे सत्य का आचरण करते हैं। शिक्षा और संस्कार से ही समाज में जीवन -मूल्य सुदृढ़ होते हैं। लोक-राज्य की सफलता की कुंजी यही है कि प्रत्येक भारतवासी अपने लोक-धर्म को समझेगा और उसका निर्वाह करेगा। देश के नागरिक को समझना होगा कि लोकतन्त्र में-शासन चलाने का दायित्व मेरा हैं। लोकमत ही राजनीतिक दलों की अनियन्त्रित हुई सत्ता और-लिप्सा पर अंकुश रख सकता है। जनता की शक्ति एवं महत्ता पर बल देते हुए कविवर दिनकर ने ठीक ही कहा था-ह्यसिंहासन खाली करो कि जनता आती हैह्ण, जब यह भय सत्तारूढ़ दल पर छाया रहेगा, तब शासन ठीक चलेगा क्योंकि संयम धर्म का लक्षण है। शासक तथा विपक्षी दलों को संयम रखना होगा। जिस दल को यह लगेगा कि आज नहीं तो कल मेरे कन्धों पर राज्य-संचालन का भार आने वाला है, तो वह असंयमित और गैर जिम्मेदारी का व्यवहार नहीं करेगा।  सबसे महत्वपूर्ण कार्य भारत के नागरिक को सुसंस्कृत और जागरूक  बनाने का है। आज देश को धर्माधारित लोकतंत्र की आवश्यकता है, जो ह्यसर्वजन हिताय, सर्वजन सुखायह्ण के लक्ष्य के प्रति समर्पित हो। हमें पश्चिम के लोकतन्त्र की अवधारणा को छोड़ना होगा। ब्रिटिश लोकतन्त्र का माडल भारत की विरासत के अनुकूल नहीं है। प्रखर अस्मिता बोध से भटके हुए, मानसिक दासता से ग्रस्त, पंथनिरपेक्ष वर्तमान भारत के राजनेता क्या अपनी धर्मपरायण वैदिक परम्परा से प्रेरणा लेकर देश को सच्चे अर्थो में ममता,समता और स्वतन्त्रता का साक्षात्कार करा पायेंगे।
इस शंका के निवारण का असली उपाय यह है, कि देश के शासक नि:स्वार्थ भाव से राज-कर्म को धर्म समझें और जनमत पूरी राष्ट्र-भक्ति के साथ अपनी शक्ति का सदुपयोग करें। तब धर्माधारित लोकतन्त्र का स्वरूप धर्म-राज्य में परिवर्तित होता दिखाई देगा। धर्म-राज्य में सचमुच न्याय प्रस्थापित होगा, लोगों में सकारात्मक जीवन-दृष्टि और आशावाद जगेगा। तब राजनीति नीति-नियन्त्रित, धर्मसम्मत, न्यायनिष्ठ और जीवन-दृष्टि अपनायेगी, तभी भारत बहुुमुखी विकास की दिशा में अग्रसर होगा और प्रगति के शिखर पर सत्तासीन होगा।  सीताराम व्यास 

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