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मां से सृष्टि है, सृष्टि प्रवाह का प्रत्यक्ष रूप ही मां है। मां उपासना वैदिक काल से भी प्राचीन है। ऋग्वेद में पृथ्वी माता हैं ही। इडा, सरस्वती और मही भी माता हैं, ये ऋग्वेद में तीन देवियां कही गयी हैं-इडा, सरस्वती, मही तिस्रो देवीर्मयो भुव:। दुर्गा, महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी या सिद्घिदात्री कोई नाम भी दीजिए। देवी दिव्यता हैं। मां हैं।
अस्तित्व एक है। ऋग्वेद के ऋषियों ने उसे अदिति या पुरूष कहा। वही भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होता है। ऋग्वेद में ह्यएकं सद् विप्रा बहुधावदन्तिह्ण का स्वर्ण सूत्र है। सत्य अविभाजित और पूर्ण सत्ता है। वह वैदिक पूर्वजों का ज्योतिएर्कं – एक प्रकाश है। इस की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति प्रकाशरूपा है। प्रकाश दिव्यता है। सो जहां दिव्यता वहां-वहां देवता। देवता या देवी स्त्रीलिंग या पुल्लिंग नहीं होते। ऋग्वेद की अदिति देवी-स्त्री जान पड़ती है और पुरूष पुल्लिंग। लेकिन दोनो ही अस्तित्व के पर्याय हैं। अस्तित्व स्त्रीलिंग या पुल्लिंग नहीं होता। उपनिषदों में अस्तित्व के लिए बहुधा ह्यब्रह्मह्ण शब्द आया है। ब्रह्म भी स्त्रीलिंग या पुल्लिंग नहीं है। अनुभूति के सम्पूर्ण तल पर हम पुरूष, अदिति या ब्रह्म का भाग हैं। हम पुरूष हैं। अदिति हैं। दोनो की स्तुतियों में कहा गया है जो भूतकाल में हो गया और जो आगे होगा वह सब पुरूष है, अदिति है। उपनिषदों का ब्रह्म भी भूतकाल से लेकर भविष्य तक फैला हुआ है। ब्रह्मविद् इसीलिए ब्रह्म हो जाते हैं। लेकिन संसारी यथार्थ में हम सबका जन्म मां से हुआ है। माँ प्रत्येक जीव की आदि अनादि अनुभूति है। माँ की देह का विस्तार ही हम सबकी काया है। माँ न होती तो हम न होते।
मां प्रत्यक्ष ब्रह्म है। आत्मीय ब्रह्म है। सुपरिचित पुरूष है। पोषक अदिति है। उसका स्पर्श सर्वोत्तम प्यार है। भारतीय परम्परा का ईश्वर या भगवान भी स्वयं में कोई अतिविराट सुपरिचित शक्ति नहीं है। उसकी व्याख्या भी ह्यत्वमेव माता – आप माता हैंह्ण से शुरू होती है और त्वमेव पिता, बंधु मित्र तक विस्तार पाती हैं। ईश्वर का सबसे बड़ा गुण है मां जैसा होना। माँ स्वाभाविक ही दिव्य है, देवी हैं, पूज्य हैं, वरेण्य हैं, नीराजन और आराधन के योग्य हैं। मार्कण्डेय ऋषि ने ठीक ही दुर्गा सप्तशती (अध्याय 5) में या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता बताकर नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनम: कहकर अनेक बार नमस्कार किया है। माँ का रस, रक्त और पोषण ही प्रत्येक जीव का मूलाधार है। हम माँ का विस्तार हैं सो मां जैसी सर्जक पालक शक्ति के निकट होना आनंददायी है। हमारी भाषा में निकटता के लिए ह्यउपह्ण शब्द का प्रयोग हुआ है। इसी से ह्यउपनिषदह्ण बना। उप से ही उपासना भी बना है। मां के निकट होने का आनंद उपनिषद् उल्लास है। उपनिषद् का अर्थ है – ठीक से निकट बैठना। उपासना का अर्थ भी निकट होना है। उपवास का अर्थ दिव्यता की निकटता है। भारत में सम्प्रति देवी उपासना के उत्सव हैं। उपवास आनंद की मस्ती है।
हमारा मन व्यक्तिगत है और बुद्घि भी। पूर्वजों ने योग, ध्यान, ज्ञान और भक्ति समर्पण सहित अनेक विधियां गढ़ी थीं। विराट को अणु-परमाणु में देखने का अनुभव अकथनीय ही रहा होगा। तुलसीदास ने सरलतम भाषा में गाया सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनई न जात बखानी। दुर्गा सप्तशती के ऋषि ने कहा जो देवी सभी रूपों में चेतना रूप है, जो देवी सभी तत्वों में लज्जा, क्षमा, शक्ति आदि भावरूपों में है उन्हें नमस्कार है। हम मनुष्य देवी-देवता नहीं देख सकते। मां हमारी सर्वोत्तम अनुभूति है, सो मां में देवी देखते हैं। सप्तशती में संसार की सारी विद्याओं को भी मां में देवी देखा गया है। विद्या समस्ता तव देवि भेदा। अनुभूति के दो ही यथार्थवादी मार्ग हैं। पहला – विराट के अनुभव को अणु-परमाणु जैसे छोटे घटकों तक लाना और दूसरा वैयक्तिकअणु अनुभव को विराट तक व्यापक करना। भारतीय द्रष्टा ऋषियों ने एक तीसरा मार्ग भी बनाया। यह मार्ग मूर्ति स्थापना का था। मूर्ति का आकार होता है, रूप होता है। इस आकार पर ध्यान से सीमित आकार का अतिक्रमण करते हुए विराट की यात्रा होती है। मूर्ति का उपयोग है साधन के रूप में, साधना के लिए। साधना पूरी तो मूर्ति का उपयोग भी पूरा। इसीलिए यहां मूर्ति विसर्जन के भी उत्सव होते हैं।
अस्तित्व को मां रूप में देखना बड़ा दिव्य है। इसी विराट से स्वयं को जोड़ने का अनुष्ठान ही देवी उपासना है। हम पृथ्वी पुत्र हैं। पृथ्वी भी मां है। वही मूल है, वही आधार है। इस पर रहना, कर्म करना, कर्मफल पाना और अंतत: इसी की गोद में जाना जीवनसत्य है। ऋग्वेद के ऋषियों के लिए पृथ्वी माता है। माता पृथ्वी धारक है। पर्वतों को धारण करती है, मेघों को प्रेरित करती है। वर्षा के जल से अपने अंतस् ओज से वनस्पतियां धारण करती है। (5़84.1-3) ऋग्वेद में रात्रि भी एक देवी है वे अविनाशी – अमर्त्या हैं, वे आकाश पुत्री हैं, पहले अंतरिक्ष को और बाद में निचले-ऊंचे क्षेत्रों को आच्छादित करती है। उनके आगमन पर हम सब गौ, अश्वादि और पशु पक्षी भी विश्राम करते हैं। (10़127) दुर्गा सप्तशती में निद्रा भी माता और देवी है। देवरूप माँ की उपासना अतिप्राचीन है। सृष्टि का विकास जल से हुआ। यूनानी दार्शनिक थेल्स भी ऐसा ही मानते थे। अधिकांश विश्वदर्शन मंे जल सृष्टि का आदि तत्व है। ऋग्वेद में ह्यजल माताएंह्ण आप: मातरम् हैं और देवियां हैं। संसार के प्रत्येक जड़ चेतन को जन्म देने वाली यही आप: माताएं हैं, विश्वस्य स्थातुर्जगतो जनित्री : (6़50़7) ऋग्वेद के बहुत बड़े देवता है अग्नि। इन्हें भी आप: माताओं ने जन्म दिया है : तमापो अग्नि जनयन्त मातर: (10़91़6) ऋग्वेद में वाणी की देवी वाग्देवी (10़125) हैं। ऋग्वेद के वाक्सूक्त (10़125) में कहती हैं – मैं रूद्रगणों वसुगणों के साथ भ्रमण करती हूँ। मित्र, वरूण, इन्द्र, अग्नि और अश्विनी कुमारों को धारण करती हूँ। मेरा स्वरूप विभिन्न रूपों में विद्यमान है। प्राणियों की श्रवण, मनन, दर्शन एवं क्षमता का कारण मैं ही हूँ। मेरा उद्गम आकाश में अप् (सृष्टि निर्माण का आदि तत्व) है। मैं समस्त लोकों की सर्जक हूँ आदि। वे ह्यराष्ट्री संगमनी वसूनां-राष्ट्रवासियों और उनके सम्पूर्ण वैभव को संगठित करने वाली शक्ति-राष्ट्री हैह्ण। (10.125़3)
ऋग्वेद में ऊषा भी देवी हैं। ऋग्वेद के एक सूक्त (1़ 124) में ये ऊषा देवी नियम पालन करती हैं। नियमित रूप से आती हैं। (वही मन्त्र 2) फिर कहते हैं, ऊषा स्वर्ग की कन्या जैसी प्रकाश के वस्त्र धारण करके प्रतिदिन पूरब से वैसे ही आती हैं जैसे विदुषी नारी मर्यादा मार्ग से ही चलती है। (वही, 3) ऊषा देवी हैं, इसीलिए उनकी स्तुतियां हैं, वे सबको प्रकाश, आनंद देती हैं। अपने पराए का भेद नहीं करतीं, छोटे से दूर नहीं होती, बड़े का त्याग नहीं करतीं। (वही, 6) ऊषा देवी हैं। समद्रष्टा हैं। ऋग्वेद में जागरण की महत्ता है इसलिए सम्पूर्ण प्राणियों में सर्वप्रथम ऊषा ही जागती हंै। (1़ 123़2) प्रार्थना है कि हमारी बुद्घि सत्कर्मो की ओर प्रेरित करे। (वही, 6) ऊषा सतत् प्रवाह है। आती हैं, जाती हैं फिर फिर आती हैं। जैसी आज आई हैं, वैसे ही आगे भी आएंगी। मां से सृष्टि है, सृष्टि प्रवाह का प्रत्यक्ष रूप ही मां है। मां उपासना वैदिक काल से भी प्राचीन है। ऋग्वेद में पृथ्वी माता हैं ही। इडा, सरस्वती और मही भी माता हैं, ये ऋग्वेद में तीन देवियां कही गयी हैं-इडा, सरस्वती, मही तिस्रो देवीर्मयो भुव:। (1़ 13़9)एक मंत्र (3़ 4़8) में ह्यभारती को भारतीभि:ह्ण कहकर बुलाया गया है-आ भारती भारतीभि:। जान पड़ता है कि भारतीभि: भरतजनों की इष्टदेवी हैं।
मन की शासक देवी का नाम ह्यमनीषाह्ण है। ऋषि उनका आवाहन करते हैं प्र शुकैतु देवी मनीषा। (7़ 34़ 1) प्रत्यक्ष देखे, सुने और अनुभव में आए दिव्य तत्वों के प्रति विश्वास बढ़ता है, विश्वास श्रद्घा बनता है। ऋग्वेद में श्रद्घा भी एक देवी हैं, श्रद्घा प्रातर्हवामहे, श्रद्घा मध्यंदिन परि, श्रद्घां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्घे श्रद्घापयेह न: – हम प्रात: काल श्रद्घा का आवाहन करते हैं, मध्यान्ह में श्रद्घा का आवाहन करते हैं, सूर्यास्त काल में श्रद्घा की ही उपासना करते हैं। हे श्रद्घा, हम सबको श्रद्घा से परिपूर्ण करें। (10़ 151़5) यहां श्रद्घा से ही श्रद्घा की याचना में गहन भावबोध है। श्रद्घा प्रकृति की विभूतियों में शिखर है-श्रद्घां भगस्तय मूर्धनि। (10़151़1) देवी उपासना प्रकृति की विराट शक्ति की ही उपासना है। दुर्गा, महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी या सिद्घिदात्री कोई नाम भी दीजिए। देवी दिव्यता हैं। मां हैं। भारत स्वाभाविक ही नवरात्रि उत्सवों के दौरान पिछले नौ दिन शक्ति उपासना में तल्लीन रहा। हृदयनारायण दीक्षित
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