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आत्मा सभी व्यक्तियों की एक है और अपरिवर्तनीय है- ह्यएक और अद्वितीय है।ह्ण वह जीवन नहीं है, अपितु वह जीवन में रूपांतरित कर ली जाती है। वह जीवन और मृत्यु, शुभ और अशुभ से परे है। वह निरपेक्ष एकता है। नरक के बीच भी सत्य को खोजने का साहस करो। नाम और रूप की, सापेक्ष की मुक्ति कभी यथार्थ नहीं हो सकती। कोई रूप नहीं कह सकता मैं रूप की स्थिति में मुक्त हूं। जब तक रूप का संपूर्ण भाव नष्ट नहीं होता, मुक्ति नहीं आती। यदि हमारी मुक्ति दूसरों पर आघात करती है तो हम मुक्त नहीं हैं। हमें दूसरों को आघात नहीं पहुंचाना चाहिए। वास्तविक अनुभव केवल एक होता है, किन्तु सापेक्ष अनुभव अवश्य ही अनेक होते हैं। समस्त ज्ञान का स्रोत हममें से प्रत्येक में है-चींटी में तथा सवोंर्च्च देवदूत में। वास्तविक धर्म एक है, सारा झगड़ा रूपों का, प्रतीकों का और दृष्टान्तों का है। सतयुग खोज लेने वालों के लिए, सतयुग पहले से ही विद्यमान है। सत्य यह है कि हमने अपने को खो दिया है और संसार को खोया हुआ समझते हैं। ह्य मुर्खं! क्या तू नहीं सुनता? तेरे अपने ही हृदय में रात-दिन वह शाश्वत संगीत हो रहा है, सच्चिदानन्द सोडहम्, सोडहम्!ह्ण
मनोकामना का वर्जित करके विचार करना असम्भव को सम्भव बनाना है। हर विचार के दो भाग होते हैं, विचारणा और शब्द, और हमें दोनों की आवश्यकता है। जगत् की व्याख्यान न तो आदर्शवादी कर पाते हैं, न भौतिकवादी। इसके लिए हमें विचार और अभिव्यक्ति दोनों को लेना होगा। समस्त ज्ञान प्रतिबिम्बित का ज्ञान है, जैसे हम अपने ही मुख को एक दर्पण में प्रतिबिम्बित देखते हैं। अत: कोई अपनी आत्मा या ब्रह्म को नहीं जान सकता, किन्तु प्रत्येक वहीं आत्मा है और उसे ज्ञान का विषय बनाने के लिए, उसे उसको प्रतिबिम्बित देखना आवश्यक है। अदृश्य तत्व के चित्रों का यह दर्शन ही तथाकथित मूर्ति-पूजा की ओर ले जाता है। मूर्तियों या प्रतिमाओं का क्षेत्र जितना समझा जाता है, उससे कहीं अधिक विस्तृत है। लकड़ी और पत्थर से लेकर वे ईसा या बुद्ध जैसे महान व्यक्तियों तक फैली है। भारत में प्रतिमाओं का प्रारम्भ बुद्ध का एक वैयत्तिक ईश्वर के विरुद्ध अनवरत प्रचार का परिणाम है। वेदों में प्रतिमाओं की चर्चा भी नहीं है, किन्तु स्रष्टा और सखा के रूप में ईश्वर के लोप की प्रतिक्रिया से महान धर्मोपदेशकों की प्रतिमाएं निर्मित करने का मार्ग दिखलाया और बुद्ध स्वयं मूर्ति बन गए, जिनकी करोड़ों लोग पूजा करते हैं। सुधार के दुर्धर्ष प्रयत्नों का अंत सदैव सच्चे सुधार को अवरुद्ध करने में होता है। उपासना करना, हर मनुष्य के स्वभाव में अंतर्निहित है, केवल उच्चतम दर्शन शास्त्र ही विशुद्ध अमूर्त विचारणा तक पहुंच सकता है। इसलिए अपने ईश्वर की पूजा करने के लिए मनुष्य उसे सदैव एक व्यक्ति का रूप देता रहेगा। जब तक प्रतीक की पूजा-वह चाहे जो कुछ हो- उसके पीछे स्थित ईश्वर के प्रतीक रूप में होती है, स्वयं प्रतीक की और प्रतीक के लिए ही नहीं, वह बहुत अच्छी चीज है। सर्वोपरि हमें अपने को, किसी बात पर, केवल इसलिए कि वह ग्रन्थों में है। विश्वास करने के अन्धविश्वास से मुक्त करने की आवश्यकता है। हर वस्तु-विज्ञान, धर्म, दर्शन तथा अन्य सबको, जो किसी पुस्तक में लिखा हो। उसके समरूप बनाना एक भीषणतम अत्याचार है, ग्रन्थ-पूजा मूर्ति-पूजा का निकृष्टतम रूप है। एक बारहसिंगा था, गर्वीला और स्वतंत्र। एक राजा के सदृश उसने अपने बच्चे से कहा, ह्यमेरी और देखो, मेरे शक्तिशाली सींग देखो। एक चोट से मैं आदमी मार सकता हूं। बारहसिंगा होना कितना अच्छा है।ह्णह्ण ठीक तभी आखेटक के बिगुल की ध्वनि दूर सुनायी पड़ी और बारहसिंगा अपने चकित बच्चे द्वारा अनुचरित एकदम भाग पड़ा। जब वे एक सुरक्षित स्थान पर पहुंच गए तो उसने पूछा, ह्यहे मेरे पिता, जब तुम इतने बलवान और वीर हो तो मनुष्य के सामने से क्यों भागते हो?ह्ण
बारह- सिंगे ने उत्तर दिया, मेरे बच्चे, मैं जानता हूं कि मैं बलवान और शक्तिशाली हूं, किन्तु जब मैं वह ध्वनि सुनता हूं तो मुझ पर ऐसा छा जाता है, जो मुझे भगाता है, मैं चाहूं या न चाहूं।ह्ण ऐसा ही हमारे साथ है। हम ग्रन्थों मं वर्णित नियमों के ह्यबिगुल की ध्वनिह्ण सुनते हैं, आदतें और पुराने अन्धविश्वास हमें जकड़े रहते हैं, इसका ज्ञान होने के पूर्व ही हम दृढ़ता से बंध जाते हैं और अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाते हैं, जो कि मुक्ति है।
ज्ञान का अस्तित्व शाश्वत है। जो व्यक्ति किसी आध्यात्मिक सत्य को खोज लेता है, उसे हम ह्यईश्वर प्रेरितह्ण कहते हैं और जो कुछ वह संसार में लाता है, वह दिव्य ज्ञान या श्रुति है। किन्तु श्रुति भी शाश्वत है, और उसका अन्तिम रूप निर्धारित करके उसका अंधानुसरण नहीं किया जा सकता, दिव्य ज्ञान की उपलब्धि ऐसे हर व्यक्ति को हो सकती है, जिसने अपने को उसे पाने के योग्य बना लिया हो। पूर्ण पवित्रता सबसे आवश्यक बात है, क्योंकि पवित्र हृदय वाला ही ईश्वर के दर्शन पा सकेगा। समस्त प्राणियों में मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है। ईश्वर की जो सर्वोच्च कल्पना हम कर सकते हैं, वह मानवीय है। जो भी गुण हम उसमें आरोपित करते हैं, वे मनुष्य में हैं- केवल अल्प परिणाम में। जब हम ऊंचे उठते हैं और ईश्वर की इस कल्पना से निकलना चाहते हैं, हमें शरीर, मन और कल्पना के बाहर निकलना चाहते हैं, हमें शरीर, मन और कल्पना के बाहर निकलना पड़ता है और इस जगत् को दृष्टि से परे करना होता है। जब हम ब्रह्म होने के लिए ऊंचे उठते हैं, हम संसार में नहीं रह जाते, सभी कुछ विषय रहित विषयी हो जाता है। जिस एकमात्र संसार को हम जान सकते हैं, मनुष्य उसका शिखर है। जिन्होंने एकत्व या पूर्णता प्राप्त कर ली है ह्यउनको ईश्वर मैं निवास करने वालाह्ण कहा जाता है। समस्त घृणा ह्यअपने का अपने द्वारा हननह्ण है। अत: प्रेम ही जीवन का धर्म है। इस भूमिका तक उठना पूर्ण होना है, किन्तु जितने ही अधिक ह्यपूर्णह्ण हम होंगे, उतना ही कम काम हम कर सकेंगे। सात्विक जानते हैं कि यह संसार केवल बच्चों का खेल है और उसके विषय में चिन्ता नहीं करते। जब हम दो पिल्लों को लड़ते और एक-दूसरे को काटते हुए देखते हैं तो हम बहुत उद्विग्न नहीं होते। हम जातने हैं, यह कोई गंभीर बात नहीं है। पूर्ण व्यक्ति जानता है, यह संसार माया है। जीवन ही संसार कहा जाता है- वह हम पर क्रिया करने वाली परस्पर विरोधी शक्तियों का परिणाम है। भौतिकवाद कहता है, मुक्ति की ध्वनि एक भ्रम मात्र है; आदर्शवाद कहता है, ह्यजो ध्वनि बंधन के विषय में कहती है, स्वप्न मात्र है।ह्ण वेदान्त कहता है, हम एक ही साथ मुक्त हैं और मुक्त नहीं भी।ह्ण इसका अर्थ यह होता है कि हम पार्थिव स्तर पर कभी मुक्त नहीं होते, किन्तु आध्यात्मिक पक्ष में सदैव मुक्त है। आत्मा मुक्ति और बंधन दोनों से परे है। हम ब्रह्म हैं, हम अमर ज्ञान हैं, इन्द्रियों से परे हैं, हम पूर्ण परमानन्द हैं।
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