|
आखिर, केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने दो अक्तूबर को केवल पन्द्रह मिनट की बैठक में दागी विधायकों व सांसदों को बचाने के विवादास्पद अध्यादेश व अपने विधेयक को वापस लेने का निर्णय ले ही लिया। इस निर्णय को भारतीय लोकतंत्र की विजय के रूप में देखा जा रहा है। 10 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि कानून द्वारा दंडित दागी विधायकों/सांसदों को विधानसभा एवं संसद की सदस्यता से तत्काल वंचित कर दिया जाना चाहिए। न्यायालय के इस निर्णय को लोकमत ने राजनीति के शुद्धिकरण की प्रक्रिया का आरंभ कह कर स्वागत किया। किंतु इसने अधिकांश राजनीतिक दलों को दुविधा में डाल दिया, क्योंकि कोई भी दल दागी विधायकों से मुक्त होने का दावा करने की स्थिति में नहीं है। केन्द्र में सोनिया कांग्रेस के नेतृत्व में सत्तारूढ़ संप्रग सरकार को इस निर्णय में अस्तित्व का संकट दिखायी दिया और इसलिए उसने 13 अगस्त को ही सर्वोच्च न्यायालय के सामने पुनरीक्षण याचिका दायर कर दी। न्यायालय ने 4 सितम्बर को उस याचिका को खारिज करते हुए कहा कि हमने बहुत सोच-विचार करके वह निर्णय दिया था इसलिए उस पर पुनर्विचार करने का कोई प्रश्न ही खड़ा नहीं होता।
कठपुतली सरकार
संविधान में आस्था रखने वाली किसी भी लोकतांत्रिक सरकार को न्याय पालिका की गरिमा का आदर करते हुए इस निर्णय को शिरोधार्य करना चाहिए था, किंतु सोनिया की कठपुतली सरकार ने न्यायपालिका से बड़ी विधायिका सिद्धांत के आवरण में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को निरस्त करने वाला विधेयक संसद के सामने लाने का निर्णय ले लिया। इस निर्णय पर पहुंचने के लिए सोनिया के कोर ग्रुप व मंत्रिमंडल में विचार मंथन के साथ एक सर्वदलीय बैठक का भी नाटक रचा गया, पर उस बैठक में उठे विरोध के स्वरों की पूर्ण उपेक्षा की गयी। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने अभी-अभी रहस्योद्घाटन किया है कि इस विधेयक को राज्यसभा में लाने के ठीक पहले कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने मेरे कक्ष में मुझसे और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेतली का समर्थन प्राप्त करने की बहुत कोशिश की, किंतु हम दोनों इस विधेयक के विरोध पर अटल रहे। स्वाभाविक ही राज्यसभा ने विधेयक को पारित न करके उसे स्थायी समिति के विचारार्थ भेजने का निर्णय दिया। राज्यसभा के इस कड़े रूख को भांपकर विधेयक को लोकसभा में इस विधेयक के भारी विरोध व सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के उत्साहपूर्ण स्वागत के आलोक में यह अध्याय यहीं समाप्त हो जाना चाहिए था।
परंतु यहां सोनिया नियंत्रित केन्द्रीय सरकार का एक और चेहरा सामने आ गया। पिछली कई बार से यह देखा जा रहा था कि इस सरकार को राष्ट्रहित एवं जनभावनाओं से अधिक अपने को सत्ता में बनाये रखने की चिंता रहती है। इसके लिए कभी वह संसद की सर्वोच्चता के सिद्धांत का सहारा लेकर न्यायपालिका को नीचा दिखाने के लिए संसद में विधेयक लाती है। संसद में अपना स्पष्ट बहुमत न होने पर भी सौदेबाजी एवं जोड़तोड़ के द्वारा तत्काल बहुमत जुटा लेती है और गिरने से बच जाती है। किंतु संसद में प्राप्त बहुमत से अधिक उसे अध्यादेश राज पर विश्वास है। इसलिए ऐसा कई बार हुआ है कि संसद का सत्र समाप्त होते ही अथवा अगले सत्र के आरंभ होने के ठीक पूर्व अपने निर्णयों को लागू करने के लिए वह अध्यादेश का सहारा लेती है। खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश, खाद्य सुरक्षा योजना आदि अनेक अवसर इसके उदाहरण हैं। इस बार भी वैसा ही हुआ। राज्यसभा द्वारा उस विधेयक को स्थायी समिति के विचारार्थ भेज दिये जाने के बाद भी कठपुतली मनमोहन सिंह सरकार दागी विधायकों और सांसदों की रक्षा के लिए अध्यादेश अविलम्ब लागू करने की तैयारियों में जुट गयी। कानून मंत्रालय ने उस अध्यादेश का प्रारूप तैयार किया, सोनिया के कोर ग्रुप ने उसे हरी झंडी दी और मंत्रिमंडल ने उसे दो बार विचार मंथन करके उस पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी। अमरीका यात्रा पर जाने के पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उस अध्यादेश को राष्ट्रपति के हस्ताक्षरों के लिए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के सामने पेश कर दिया।
जल्दबाजी क्यों?
पूरा देश भौचक्का था कि इस अध्यादेश को इतनी हड़बड़ी में क्यों लाया जा रहा है। संसद की स्थायी समिति की रपट की प्रतीक्षा क्यों नहीं हो रही? क्या सरकार को किन्हीं दागी सांसदों को तुरंत बचाने की मजबूरी आ गयी है? मीडिया में ऐसे अनेक नाम आये। लोकसभा सदस्य व राजद के नेता लालू यादव, जो पिछले कुछ समय से सोनिया व राहुल के सबसे बड़े स्तुतिगायक बन गये थे, 30 सितम्बर को झारखंड की किसी अदालत में चारा घोटाले के सत्रह साल पुराने केस का निर्णय पाने वाले थे और यह आम धारणा थी कि इस केस में उन्हें सजा मिलने के बाद वे लोकसभा की सदस्यता खो बैठेंगे। उसी प्रकार उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के मुस्लिम नेता रशीद मसूद, जो इस समय राज्यसभा में कांग्रेस सांसद हैं, एक बाईस साल पुराने घोटाले का निर्णय एक अक्तूबर को सुनाया जाने वाला था और सबको विश्वास था कि इस निर्णय में उन्हें भी कैद की सजा मिलने वाली है। ऐसे और भी नामों की चर्चा चल रही थी, जिसके कारण जनभावनाओं के विरोध की अवहेलना करके भी इस अनैतिक अध्यादेश पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर पाने की जल्दबाजी की गई। राष्ट्रपति को इस अध्यादेश के व्यापक जनविरोध से अवगत कराने के लिए भाजपा का एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल जिसमें श्री लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली आदि जाने-माने लोग थे राष्ट्रपति के पास पहुंच गया। राष्ट्रपति ने केन्द्रीय सरकार से कु छ स्पष्टीकरण मांग लिये जिससे स्पष्ट हो गया कि राष्ट्रपति इस अध्यादेश को वापस लौटाने के मूड में हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन दिनों अमरीका में राष्ट्रपति ओबामा और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के दरबारों में हाजिरी लगा रहे थे।
सोनिया-कांग्रेस और उनकी कठपुतली सरकार के सामने गंभीर संकट खड़ा हो गया था। अध्यादेश की वापसी का पूरा श्रेय भाजपा के खाते में जाता दिख रहा था। इस संकट से सोनिया पार्टी और सरकार को तुरंत उबारना आवश्यक था, इसी पृष्ठभूमि में 27 सितम्बर को दिल्ली प्रेस क्लब में शहजादे राहुल के आकस्मिक आगमन और विस्फोट को देखा जाना चाहिए। राहुल के आगमन के पूर्व सोनिया पार्टी के मीडिया प्रभारी अजय माकन उस अध्यादेश का गुणगान कर रहे थे, मीडिया को उसकी अपरिहार्यता समझा रहे थे कि यकायक राहुल ने विस्फोट किया कि ह्ययह अध्यादेश पूरी तरह बकवास है, उसे फाड़कर फेंक दिया जाना चाहिए।ह्ण उन्होंने जोर देकर कहा कि यह मेरी व्यक्तिगत राय है कि यह अध्यादेश बकवास है, फाड़कर फेंक देने लायक है।
सत्य का साक्षात्कार
मीडिया के सामने सवाल था कि राहुल को इस सत्य का साक्षात्कार आज ही अचानक क्यों हुआ और उन्होंने इतनी कठोर एवं अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया? क्या यह उनकी पार्टी के नेतृत्व में चलने वाली सरकार, उसकी मंत्रिपरिषद् एवं प्रधानमंत्री पर सीधे-सीधे अविश्वास प्रगट करना नहीं है? उनका घोर अपमान नहीं है? पिछले दो महीने से सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर बहस चल रही थी, पूरे मीडिया में यह विषय छाया हुआ था, उस पर राज्यसभा में बहस हुई, विध्ेायक और अध्यादेश का प्रारूप बनाने के लिए पार्टी के कोर ग्रुप, मंत्रिपरिषद्, सर्वदलीय बैठक में बहस हुई पर इस पूरे दौरान राहुल ने एक शब्द नहीं बोला, कभी असहमति का स्वर नहीं उठाया, प्रधानमंत्री या कांग्रेस अध्यक्षा को अपनी असहमति से अवगत कराने के लिए कोई पत्र नहीं लिखा। कहीं उनकी मौखिक या लिखित असहमति रिकार्ड पर है।
ऐसे समय जब प्रधानमंत्री विदेश में राष्ट्राध्यक्षों से मिल रहे थे तब अचानक अभद्र भाषा में उनका सार्वजनिक विस्फोट बयान ही प्रधानमंत्री और अपनी ही सरकार के प्रति अविश्वास प्रगट करने से कम नहीं माना जा सकता। प्रधानमंत्री पद पर आसीन कोई भी व्यक्ति, जिसमें आत्मसम्मान की थोड़ी भी भावना शेष है, ऐसे अपमान को सहन नहीं कर सकता और इसलिए पंजाब के मुख्यमंत्री व वयोवृद्ध नेता सरदार प्रकाश सिंह बादल का यह कथन सर्वथा उचित है कि यदि मैं मनमोहन सिंह की स्थिति में होता तो इस अपमान के विरोध में अवश्य त्यागपत्र दे देता। किंतु मनमोहन सिंह ने ऐसा क्यों नहीं किया? अमरीका से वापस लौटते समय विमान में उन्होंने मीडिया से कहा कि ह्यमैंने जिदंगी में बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं, मैं आसानी से उद्वेलित नहीं होता।ह्ण इशारा साफ था कि वे अपमान से उद्वेलित नहीं हैं, प्रधानमंत्री बने रहने का रास्ता खोज रहे हैं।
वंश की भीख नहीं
यह तो सच है कि मनमोहन सिंह ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि वे बिना चुनाव की लोकतांत्रिक परीक्षा में बैठे पिछले दरवाजे से प्रधानमंत्री कुर्सी पर बैठ जाएंगे। पर क्या साढ़े नौ वर्ष तक सोनिया कृपा से प्रधानमंत्री पद का सुख भोगने के बाद भी उनको प्रधानमंत्री पद की महत्ता और गरिमा का अहसास नहीं हो पाया? क्या वे अभी भी नहीं समझते कि प्रधानमंत्री पद किसी एक वंश की भीख नहीं, पूरे राष्ट्र के गौरव एवं सम्मान का प्रतिनिधि है। उस पद का अपमान एक व्यक्ति का नहीं पूरे राष्ट्र का अपमान है। राहुल ने एक व्यक्ति नहीं, पूरी सरकार का अपमान किया था। इस समय अध्यादेश मुख्य मुद्दा नहीं था। भाजपा के विरोध प्रदर्शन एवं राष्ट्रपति की झिझक के बाद अध्यादेश का भविष्य तो तय हो चुका था। सोनिया पार्टी की दृष्टि में राहुल ने वह शब्द विस्फोट करके उसका पूरा श्रेय अपने खाते में लाने की कोशिश की थी और पूरी सोनिया पार्टी राहुल को वह श्रेय देने पर जुट गयी है। यह एक तथ्य बताता है कि राष्ट्र के सामने इस समय मुख्य प्रश्न यह है कि अगले लोकसभा चुनावों में लोकतंत्र की विजय होगी या वंश तंत्र की? राहुल के विस्फोट के तुरंत बाद कुछ देर के लिए सोनिया भी सहम गयी थीं कि कहीं मनमोहन बनाम राहुल स्थिति न पैदा हो जाए इसीलिए उन्होंने कर्नाटक की जनसभा में दुनिया को सुनाने के लिए घोषणा की कि पूरी कांग्रेस पार्टी मनमोहन सिंह के साथ है। किंतु मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद से चिपके रहने के लिए शहजादे के सामने निर्लज्ज आत्मसमर्पण कर देंगे यह कौन सोच सकता था? इस समय केन्द्र में जो राजनीतिक टोला सत्तारूढ़ है उसके चरित्र को समझने के लिए इससे अधिक प्रमाण की क्या जरूरत है कि कानून मंत्री, वित्तमंत्री, सूचना मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर आसीन कपिल सिब्बल, पी. चिदम्बरम और मनीष तिवारी जैसे लोग, जो पहले सरकारी विधेयक और अध्यादेश का गुणगान कर रहे थे, वे ही अब राहुल के अध्यादेश विरोध की ढपली बजा रहे हैं। भारत के भाग्य गगन पर छायी वंश-भक्ति की यह काली छाया को हटाना आगे सबसे बड़ी चुनौती है। देवेन्द्र स्वरूप
टिप्पणियाँ