|
विचार बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि ‘जो कुछ हम सोचते हैं, वही हम हो जाते है।’ एक समय एक संन्यासी एक पेड़ के नीचे बैठता था और लोगों को पढ़ाया करता था। वह केवल दूध पीता था और फल खाता था और असंख्य प्राणायाम किया करता था। फलत: अपने को बहुत पवित्र समझता था। उसी गांव में एक कुलटा स्त्री रहती थी। प्रतिदिन संन्यासी उसके पास जाता था और उसे चेतावनी देता था कि उसकी दुष्टता उसे नरक में ले जाएगी। बेचारी स्त्री अपने जीवन का ढंग नहीं बदल पाती थी, क्योंकि वही उसकी जीविका का एकमात्र उपाय था, फिर भी वह उस भयंकर भविष्य की कल्पना से सहम जाती थी, जिसे संन्यासी ने उसके समक्ष चित्रित किया था। वह रोती थी और प्रभु से प्रार्थना करती थी कि वे उसे क्षमा करें क्योंकि वह अपने को रोक न पाती थी। कालान्तर में कुलटा स्त्री और संन्यासी दोनों ही मरे। स्वर्ग-दूत आए और उसे स्वर्ग ले गये, जबकि संन्यासी की आत्मा को यमदूतों ने पकड़ा। वह चिल्लाया, ‘ऐसा क्यों?’ क्या मैंने पवित्रतम जीवन नहीं बिताया है और प्रत्येक मनुष्य को पवित्र होने की शिक्षा नहीं दी है? मैं नरक में क्यों ले जाया जाऊं, जबकि यह कुलटा स्त्री स्वर्ग ले जायी जा रही है।’ यमदूतों ने उत्तर दिया, ‘क्योंकि जब वह अपवित्र कार्य करने को विवश थी, उसका मन सदैव भगवान में लगा रहता था और वह मुक्ति मांगती थी, जो अब उसे मिली है। किन्तु इसके विपरीत तुम यद्यपि पवित्र कार्य ही करते थे, परन्तु अपना मन सदैव दूसरों की दुष्टता पर ही रखते थे, तुम केवल पाप देखते थे। केवल पाप का ही विचार करते थे। इसलिए अब तुम्हें उस स्थान को जाना पड़ रहा है, जहां केवल पाप ही पाप है। इस कहानी की शिक्षा स्पष्ट है। बाह्य जीवन कम महत्व का होता है, हृदय शुद्ध होना चाहिए और शुद्ध हृदय केवल शुभ को ही देखता है, अशुभ को कभी नहीं। हमें मनुष्य जाति के अभिभावक बनने की कभी चेष्टा नहीं करनी चाहिए, न कभी पापियों का सुधार करने वाले संत के रूप में वक्तृता-मंच पर खड़े होना चाहिए। अच्छा हो, यदि हम अपने को पवित्र करें, इसके फलस्वरूप हम दूसरे की यथार्थ सहायता भी करेंगे।’
भौतिक विज्ञान की दोनों सीमाएं (प्रारम्भ और अन्त) अध्यात्म विद्या द्वारा आवेष्टित है। यही बात तर्क के विषय में है। वह अतर्क से प्रारम्भ होकर फिर अतर्क में ही समाप्त होता है। यदि हम जिज्ञासा को इन्द्रियजन्य बोध के क्षेत्र में बहुत दूर तक ले जाएं तो हम बोध से परे के एक स्तर पर पहुंच जाएंगे। तर्क तो वास्तव में स्मृति द्वारा सुरक्षित, संगृहीत और वर्गीकृत बोध ही है। हम अपने इन्द्रिय-बोध से परे न तो कल्पना कर सकते हैं और तर्क कर सकते हैं। तर्क से परे कोई भी वस्तु इन्द्रिय-ज्ञान का विषय नहीं हो सकती है। हम तर्क के सीमाबद्ध रूप को अनुभव करते हैं, फिर भी वह हमें एक ऐसे स्तर पर ले जाता है, जहां हम उससे कुछ परे की वस्तु की भी झलक पाते हैं। तब प्रश्न उठता है कि क्या मनुष्य के पास तर्कोपरि कोई साधन है? यह बहुत संभव है कि मनुष्य में तर्क से परे पहुंचाने की सामर्थ्य हो, वास्तव में सभी युगों में संतों ने अपने इस सामर्थ्य की अवस्थिति निश्चित रूप से कही है। किन्तु वस्तुओं के स्वभावनुसार आध्यात्मिक विचारों तथा अनुभव को तर्क की भाषा में अनूदित करना असम्भव है और इन सभी संतों ने अपने आध्यात्मिक अनुभव को प्रकट करने में अपनी असमर्थता घोषित की है। सचमुच भाषा उन्हें शब्द नहीं दे सकती, ताकि केवल यह कहा जा सके कि ये वास्तविक अनुभव हैं और सभी के द्वारा प्राप्त किए जा सकते हैं। केवल इसी प्रकार वे अनुभव जाने जा सकते हैं, किन्तु वे कभी वर्णित नहीं किए जा सकते। धर्म वह विज्ञान है जो मनुष्य में स्थित अतीन्द्रिय माध्यम से प्रकृति में स्थित अतीन्द्रिय का ज्ञान प्राप्त करता है। अब भी हम मनुष्य के विषय में बहुत कम जानते हैं, फलत: विश्व के सम्बन्ध में भी बहुत कम जानते हैं। जब हम मनुष्य के विषय में और अधिक ज्ञान प्राप्त करेंगे, तब हम विश्व के विषय में सम्भवत: और अधिक जान जाएंगे। मनुष्य सभी वस्तुओं का सार-संग्रह है और उसमें संपूर्ण ज्ञान निहित है। विश्व के केवल उस अति क्षुद्र भाग के विषय में, जो हमारे इन्द्रिय-बोध में आता है, हम कोई तर्क ढूंढ़ सकते हैं, हम किसी मूलभूत सिद्धान्त के लिए कोई तर्क कभी नहीं उठा सकते। किसी वस्तु के लिए तर्क उठाना केवल मात्र उस वस्तु का वर्गीकरण करना और दिमाग के एक दरबे में उसे डाल लेना है। जब हम किसी नए तथ्य को पाते हैं तो हम तुरन्त उसे किसी प्रचलित प्रवर्ग में डालने की चेष्टा करते हैं और उसी प्रयत्न का नाम तर्क है। जब हम उस तथ्य को किसी वर्ग विशेष में रख पाते हैं तो कुछ संतोष मिलता है, किन्तु इस वर्गीकरण के द्वारा हम भौतिक स्तर से ऊपर कभी नहीं जा सकते। मनुष्य इन्द्रियों की सीमा के परे पहुंच सकता है, यह बात प्राचीन युगों में निश्चित रूप से प्रमाणित हुई थी। 5000 वर्ष पूर्व उपनिषदों ने बताया था कि ईश्वर का साक्षात्कार इन्द्रियों द्वारा कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता। यहां तक तो आधुनिक अज्ञेयवाद स्वीकार करता है, किन्तु वेद इस नकारात्मक पक्ष से और परे जाते हैं और स्पष्टतम शब्दों में दृढ़ता के साथ कहते हैं कि मनुष्य इस इन्द्रिय-बद्ध जड़ जगत के परे पहुंच सकता है एवं अवश्य पहुंचता है। वह मानों इस विशाल हिमराशि रूप जगत में रंध्र पा सकता है। उसके द्वारा निकल कर जीवन के पूर्ण महासागर तक पहुंचे सकता है। इन्द्रिय सम्बन्धी संसार का इस प्रकार अतिक्रमण करके ही वह अपने सत् स्वरूप तक पहुंच सकता है और उसका साक्षात्कार कर सकता है।
जब हम कामना के अनन्त ज्वर को, उस अनन्त तृष्णा को, जो हमें चैन नहीं लेने देती, त्याग देंगे, जब हम सदा के लिए कामना को जीत लेंगे, तब हम शुभ-अशुभ-दोनों से छूट पाएंगे, क्योंकि तब हम उन दोनों का अतिक्रमण कर जाएंगे। कामना की पूर्ति उसे केवल और अधिक बढ़ाती है, जैसे कि अग्नि में डाला हुआ घी, उसे और भी तीव्रता से प्रज्ज्वलित कर देता है, चक्र जितना ही केन्द्र से दूर होगा, उतना ही तीव्र चलेगा, और उतना ही उसे कम विश्राम मिलेगा। केन्द्र के निकट जाओ, कामना का दमन करो, उसे निकाल बाहर करो, मिथ्या अहं को त्याग दो, तब हमारी दिव्य दृष्टि खुल जाएगी और हम ईश्वर का दर्शन करेंगे, इहलौकिक और पारलौकिक जीवन के त्याग द्वारा ही हम उस अवस्था पर पहुंचगें, जहां कि हम वास्तविक आत्म-तत्व पर दृढ़तापूर्वक प्रतिष्ठित हो सकेंगे। जब तक हम किसी वस्तु की आकांक्षा करते हैं, तब तक कामना हमारा शासन करती है। केवल एक क्षण के लिए वास्तव में ‘आशा-हीन’ हो जाओ और कुहरा साफ हो जाएगा। चूंकि जब कोई स्वयं सत्यस्वरूप है तो वह किसकी आशा करे? ज्ञान का रहस्य है सब कुछ का त्याग और स्वयं में ही परिपूर्ण हो जाना। ‘नहीं’ कहो, और तुम ‘नहीं’ रह जाओंगे, और ‘है’ कहो तो तुम ‘हैै’ बन जाओगे। अंत:स्थ आत्मा की उपासना करो, और कुछ तो है ही नहीं, जो कुछ हमें बन्धन में डालता है, वह माया है, भ्रम-जाल है।
टिप्पणियाँ