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उत्तरी अफ्रीका के ट्यूनेशिया, मोरक्को और अल्जीरिया में जब वसंत क्रांति का श्रीगणेश हुआ था, उस समय यह आशा बंध गई थी कि यह लहर आगे बढ़ेगी और सम्पूर्ण अरबस्तान में लोेकतांत्रिक क्रांति बन कर इस्लामी देशों में चेतना का सूत्रपात करेगी। इस्लामी देशों में आज भी राजा, शहंशाह, अमीर और शेखों की भरमार है। दुनिया में हर देश चाहता है कि वह लोकतंत्र की हवाओं में सांस ले, लेकिन अरब के पारम्परिक तानाशाह अपनी मुट्ठी में से अपनी सत्ता को सरकने नहीं देते हैं। जब कभी वहां लोकतंत्र की बयार चलती है उसे कुचल दिया जाता है। दुनिया की महाशक्तियों का भी इसमें अप्रत्यक्ष हाथ होता है, क्योंकि उन तानाशहों की सत्ता उनकी ताकत पर निर्भर होती है। इसलिए वहां जो तानाशाह हैं वे भी अपनी सत्ता को त्यागना नहीं चाहते हैं। इन देशों में कोई गांधी, कोई लिंकन या कोई नेल्सन मंडेला पैदा नहीं होता है, जो वहां लोकतंत्र का प्रवाह पैदा कर सकें। इन देशों की जनता में शिक्षा का अभाव है। मुट्ठीभर लोग पढ़-लिख भी जाते हैं तो वे अमरीका, इंग्लैंड या फ्रांस में जाकर बस जाते हैं। दूसरा बड़ा कारण वहां की जनता मजहब के प्रति बड़ी संवेदनशील है। मजहब के नाम पर उन्हें जागरूक नहीं होने दिया जाता, जिसका लाभ वहां के तानाशहों को भरपूर मिलता है। परिवर्तन के नाम पर वहां सरकार विरोधी आन्दोलन अवश्य खड़े होते हैं, लेकिन वे या तो खंडित हो जाते हैं अथवा इस्लाम का नेतृत्व करने वाले उन्हें तानाशाही के मार्ग पर धकेल देते हैं। तुर्किस्तान को छोड़ दिया जाए तो अब तक किसी भी मुस्लिम राष्ट्र में क्रांति नहीं हुई। तुर्की चूंकि यूरोप का हिस्सा है इसलिए वहां पंथनिरपेक्षता की लहर दौड़ी और वर्षों पहले कमाल पाशा ने यह कमाल कर दिखाया। 20वीं शताब्दी के पांचवें दशक के पश्चात् लोकतंत्र की बयार सारी दुनिया में चली लेकिन फिर भी इस्लामी देश उससे वंचित रह गए। फ्रांस और इंग्लैंड, जिनकी वहां सत्ता कायम थी उन्होंने स्वतंत्र भी कर दिया, तब भी वहां जो राजा और शेख थे वही उनके एजेंट बन गए। इस बीच इस्लाम के नाम पर क्रांति करने वाले कुछ संगठन और जमातें पैदा हो गईं। इनमें मिस्र में इखवानुल मुसलिमीन थी, तो भारतीय उपखंड में जमाते इस्लामी। जमात के नेता मौलाना मौदूदी भले ही सीधे-सीधे राजनीति में न उतरे हों, लेकिन मुस्लिम लीग जैसी राजनीतिक पार्टियों के लिए खाद पानी देने का काम तो करते ही हैं। जिसका जीता जागता उदाहरण मुस्लिम लीग द्वारा बनाया गया पाकिस्तान है। भारत से अलग होने के बाद वहां लोकतंत्र नहीं पनपा, बल्कि बहुत शीघ्र सैनिक तानाशाह और मार्शल ला प्रशासक एक के बाद एक जन्म लेते चले गए।
2011 के बाद मिस्र में जो उथलपुथल हुई वह इखवानुल मुसलिमीन की ही देन है। मिस्र आजाद होने से पहले ही वहां सैयद कुतुब जैसे इस्लामी चिंतक इस दिशा में सक्रिय हो गए कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद वहां इस्लामी दर्शन पर आधारित कोई व्यवस्था कायम होनी चाहिए। मिस्र के आजाद होते ही कर्नल नासिर को इन कट्टरवादी तत्वों का सामना करना पड़ा। नासिर ने इखवान पर प्रतिबंध लगा दिया। नासिर के बाद अनवर सादात आए जिनकी हत्या इखवान ने करवा दी। उत्तराधिकारी के रूप में मुबारक अवतरित हुए जिनके कार्यकाल में इखवान केवल सक्रिय ही नहीं हुई, बल्कि आन्दोलन चला कर मुबारक को सत्ता से निकाल फेंका। इखवान के नेता मुर्सी के नेतृत्व में तहरीर चौंक पर रक्तरंजित आन्दोलन चला। मुबारक बंदी बना लिये गए। वहां चुनाव हुए और मुर्सी राष्ट्रपति बन गए। लेकिन डेढ़ वर्ष के बाद ही मुर्सी की कुर्सी हिल गई। वे अब जेल में हैं और सेना सत्ता पर हावी हो गई। इस लम्बे-चौड़े परिवर्तन में एक ही सुर बाहर निकला कि इस्लाम के पास ऐसा कोई जादू नहीं है जो इखवान ब्रदरहुड को स्थायी सत्ता चलाने में सहायक होता है। मिस्र की क्रांति आज फिर से दो राहे पर है।
वसंत क्रांति की लहरों ने ट्यूनेशिया के जेनुल आबिदीन को सत्ता भ्रष्ट कर दिया। ठीक वही स्थिति अल्जीरिया और मोरक्को की हुई। वहां के शाह और उनके नेतृत्व में चल रही सरकारें कुछ समय टिकीं, लेकिन आज भी वहां इस्लाम के नाम पर हुई क्रांति का कोई नतीजा सामने नहीं आया। तीनों देशों में उथलपुथल जारी है। इखवान तो कुछ नहीं कर सकी लेकिन वहां कोई लोकतांत्रिक आन्दोलन भी खड़ा नहीं हो सका। इन तीनों देशों पर अब वहां की सेना की नजरें हैं। कट्टरवादियों और सेना में संघर्ष प्रारंभ हो गया है। आज नहीं तो कल वहां सत्ता पर सेना हावी हो जाएगी। आगे चल कर सेना और इखवानियों में फिर संघर्ष शुरू हो जाएगा। सेना इखवानियों को धूल चटा देने में समर्थ है इसलिए सेना का राज कायम होते देर नहीं लगेगी। मिस्र और उत्तरी अफ्रीका के इन तीनों देशों में कोई जनरल फिर से आ धमके तो बहुत आश्चर्य की बात नहीं। इसका दूसरा अर्थ यह हुआ कि इस्लामी कट्टरवाद हमेशा सेना का मार्ग प्रशस्त करता है।
इसी श्रृंखला में हमारे सामने सीरिया खड़ा है। किसी समय वहां राष्ट्रपति हाफिज असद की तूती बोलती थी। उनके बाद उनके बेटे बशर असद आ गए। बाप से वे बीस साबित हुए। इखवानी जब उन पर चढ़ दौड़े तो उन्होंने ईरान का पल्ला पकड़ लिया। ईरान के मैदान में आने की खबर सुनकर भला अमरीका और इस्रायल कैसे चुप बैठ सकते थे। अब स्थिति यह हो गई कि एक ओर अमरीका, सऊदी अरब और इस्रायल बशर असद के विरोधी हैं, तो दूसरी ओर ईरान, रूस और लेबनॉन की आतंकवादी संस्था हिजबुल्ला बशर के साथ है। रसायनिक हथियार के नाम पर जहरीली गैस छोड़ी जा चुकी है। अब वहां परमाणु हथियार के उपयोग करने की बातें चल रही हैं। इस्रायल के बीच में आ जाने से फिर मुस्लिम राष्ट्र दु:खद स्थिति में आ गए हैं। बशर असद टिकते हैं या टूटते हैं यह सबसे बड़ा सवाल है। एक बार फिर खतरा सीरिया के विभाजन का हो गया है। सीरिया किसी समय इस क्षेत्र का सबसे बड़ा देश था, लेकिन इससे पहले भी वह टूट चुका है। एक समय था कि जब दुनिया दो ध्रुवों में बंटी हुई थी। उस समय सीरिया और लीबिया सोवियत रूस की छावनी में थे। इन देशों पर फ्रांस का लम्बे समय तक शासन रहा है। लेकिन अब सऊदी अरब के बीच में आ जाने से अमरीका का पलड़ा भारी हो गया है। सऊदी अरब मुस्लिम राष्ट्रों को इखवान की छाया में जाने से रोकेगा। इसलिए फिलहाल तो इखवान जैसी कट्टरवादी जमात के सितारे गर्दिश में हैं। अलकायदा और तालिबान भले ही सऊदी को धमकी दे सकते हैं लेकिन पिछले दिनों जो कुछ हुआ है उससे उनके हौंसले पस्त हो गए हैं। अमरीका का शिकंजा मजबूत होता है तो फिर से इन देशों में राजाशाही का भविष्य उज्ज्वल हो जाता है। इखवान का साथ देने वाले अनेक देश हैं लेकिन वे भी अपने यहां मजहबी कट्टरवाद का खतरा देखते हुए उससे दूर ही रहना चाहते हैं।
पिछले दिनों सऊदी अरब ने जब मिस्र की सरकार के सर पर हाथ रखा तो इराक भी इखवानुल मुसलिमीन के विरोध में आ गया। इराक के नुरूल मालिकी ने कहा कि बगदाद काहिरा के साथ है। इराक को यह घोषणा इसलिए करनी पड़ी कि पिछले कुछ समय में इखवानियों ने इराक में अपनी पकड़ जमा ली है। इखवान के बढ़ते कदम इराक के लिए संकट खड़ा कर सकते हैं। अमरीका कभी नहीं चाहेगा कि इराक में इखवानियों की घुसपैठ हो। लेकिन हमें इस तथ्य को नहीं भूलना चाहिए कि ईराक में इखवानी पहुंचते हैं तो वे कल को इरान में भी अपना पांव रख सकते हैं। इसलिए ईरान यहां अफगानिस्तान की तरह अच्छे तालिबान और बुरे तालिबान की तरह अच्छे इखवानी और बुरे इखवानी शब्दावली का उपयोग कर सकता है। लेकिन चूंकि सऊदी अरब की बादशहत इखवान विरोधी है इसलिए अमरीका ऐसा करेगा, फिलहाल तो नहीं लगता है, क्योंकि सऊदी अरब अमरीका के लिए न केवल रणनीति के आधार पर, बल्कि अपनी तेल की पूर्ति के लिए भी उसका हमेशा से पक्षधर है और रहेगा।
अरब जगत में जब इराक ने कुवैत पर हमला किया था तो उस समय इखवानियों ने कुवैत की निंदा नहीं की थी। इसलिए खाड़ी के देशों में इखवानियों के लिए कोई स्थान नहीं है। इखवान के अनेक सदस्य खाड़ी के देशों में बन्द हैं। लेकिन इन्हीं देशों में कट्टर इखवानियों के समर्थक भी हैं। अरब जगत इखवानियों से बुरी तरह भयभीत है। क्योंकि अरबस्तान में ही सबसे अधिक तानाशाह, राजा और शेख हैं। इनका यह मानना है कि इखवान इस्लाम के नाम पर उनकी सत्ता हड़पना चाहता है। यहां जो तेल के भंडार हैं उन पर कब्जा जमाकर अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत कर लेना चाहता है। अमरीका इन अरब देशों का बाबा आदम है, वह उनको पालता और पोसता ही नहीं, बल्कि उनकी रक्षा भी करता है। इसलिए वे सभी अमरीका के आभारी हैं। लेकिन पड़ोसी देश ईरान इखवानियों का कट्टर दुश्मन है। वह जानता है कि इखवानी किसी भी समय उसकी सरहदों में घुसपैठ कर सकते हैं। यदि ऐसा हुआ तो इस्लामी जगत की पुरानी लड़ाई शिया-सुन्नी फिर से सुलग सकती है। ट्यूनेशिया से जब बसंत क्रांति का प्रारंभ हुआ था उस समय अरबस्तान के सभी राजा, शेख और सैनिक तानाशाहों को झटका लगा था। उन्हें अपना अस्तित्व खतरे में लगा, तो उन्होंने अमरीका का पल्ला पकड़ लिया। लेकिन इखवान के नेताओं का कहना है कि हम पिछले 70 वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं। हम चाहते हैं इस्लामी देशों में इस्लामी राज कायम हो। यदि आज नहीं तो उनका मिशन कल पूरा होगा। इसका सबसे बड़ा झटका अमरीका को लगा है, क्योंकि इस्लामी जगत यदि इखवान की छत्रछाया को स्वीकार कर लेता है तो फिर अमरीका को सबसे बड़ा खतरा है। लेकिन अरब और अन्य इस्लामी देशों की आपसी फूट, शिया-सुन्नी के झगड़े और अरब-आजम का संघर्ष इखवान की मन की मुराद पूरी नहीं होने देगा, ऐसा विश्व के राजनीतिक क्षितिज पर स्पष्ट रूप से झलकता है। मुजफ्फर हुसैन
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