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वर्ष 1486 में बंगाल की पवित्र भूमि के नवद्वीप धाम में श्री चैतन्य महाप्रभु का आविर्भाव हुआ। कलियुग में उनको साक्षात भगवान श्रीकृष्ण का अवतार माना गया है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने ही मानव जाति को प्रेरित किया कि इस युग में भक्ति व संकीर्तन के मार्ग द्वारा ही प्रभु प्राप्ति की जा सकती है। अधर्म व पाप के इस काल में इनके जन्म का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य यही था कि किस प्रकार कलियुग के दुष्प्रभाव से मनुष्य के अवचेतन को मुक्त रखा जा सकता है? अपने अवतरण के इस तात्पर्य को उन्होंने अपनी भक्ति व प्रेम द्वारा कुछ ही समय में स्पष्ट कर दिया। राधा माधव के प्रति समर्पित अपने जीवन काल में इन्होंने प्रेमाभाव की ऐसी पराकाष्ठा को छुआ जिसका वर्णन सुन कर ही मन भक्ति के सागर में हिलोरें लेने लगता है। कृष्ण-कृष्ण नाम का कीर्तन करते हुए वे निरंतर नृत्य करते , कभी खूब हंसते तो कभी चीत्कार करते हुए रोने लगते। प्रभु सिमरन में इतना आत्मविभोर होकर नाचने लगते कि उनके शरीर से रक्त बहने लगता। जिस समय श्री चैतन्य महाप्रभु का धरती पर आगमन हुआ वह समय भारत में परतन्त्रता का काल चल रहा था। विधर्मी व विदेशी आक्रमणकारियों ने लगभग 500 वर्ष तक विध्वंस मचा कर हिन्दू धर्म को मिटाने की पूरी चेष्टा की। कहा जाता है कि इस समय में श्री वृंदावन धाम समाप्त हो गया था। गोपाल का ब्रज मंडल अपनी ही माया में कहीं विस्मृत सा हो गया। कन्हैया की अलौकिक लीला स्थलियंा परिदृश्य से अदृश्य हो गयीं। इसका प्रमुख कारण था मुस्लिम शासकों का घोर अत्याचार जिसके चलते ब्रज धाम में कई तीर्थों का ह्रास हो गया। श्रद्घालुओं के यहंा ना पहुंच पाने के कारण चारों तरफ जंगल उत्पन्न हो गया।
ऐसी दुर्गम परिस्थितियों में वर्ष 1515 में श्री चैतन्य महाप्रभु का श्री वंृदावन धाम में आगमन हुआ। यहंा के वातावरण में जैसे नव जीवन का संचार हो उठा। महाप्रभु का ऐसा आभामंडल कि ब्रजवासियों को लगा जैसे कृष्ण फिर से अपनी मातृभूमि पर लौट आए हों। पूरा ब्रजमंडल फिर से राधा कृष्ण के नाम से गुंजाएमान हो उठा। कहते हैं कि उन्हें दिव्य दृष्टि की प्राप्ति थी जिससे उन्होंने भगवान की कई लीला स्थलियों को ढूंढ़ निकाला। प्रेमपूर्वक संकीर्तन करते हुए वे कई मास तक ब्रज में घूमते रहे। उनकी कीर्ति शीघ्र ही चारों दिशाओं में फैल गई। भक्तों का आत्मविश्वास बढ़ा और वे फिर से वंृदावन में आने लगे। परन्तु कुछ समय बाद चैतन्य बंगाल वापस चले गए। अब यह आवश्यक था कि उनके जाने के पश्चात् फिर से ब्रज धाम के तीर्थ विलुप्त न होने लगें। अत: श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने दो परम शिष्यों श्री रूप गोस्वामी तथा श्री सनातन गोस्वामी को तुरंत ही वृंदावन जाने को कहा। उन्होनें दोनों गोस्वामियों को कहा कि वे वहंा जाकर श्रीकृष्ण से जुड़ी लीला स्थलियों का जीर्णोद्घार करें तथा भक्ति व अध्यात्म के संदेश का प्रसार करें। वास्तव में रूप गोस्वामी व सनातन गोस्वामी दोनों बंगाल सरकार के प्रधानमंत्री थे। श्री चैतन्य महाप्रभु से मिलकर दोनों में विरक्ति भाव जागृत हो गया। अत: वे घर त्याग करके संन्यास ग्रहण के पश्चात् श्री चैतन्य की सेवा में आ गए। वर्ष 1516 में दोनों गोस्वामी का वंृदावन आगमन हुआ। यहंा आकर सघन वन क्षेत्र में उन्होंने निवास करना आरंभ किया। जंगल से प्राप्त फल इत्यादि व भिक्षा से ही वे अपना पेट भरते। उन्होंने कठोर प्रयास द्वारा प्रभु से जुड़े पवित्र तीर्थों का जीर्णोद्घार करना आरंभ कर दिया। इसके साथ ही अध्यात्म व भक्ति से सम्बन्धित विषयों पर इन संतों ने कई गं्रथों की रचना की। इनके सहयोगियों के रूप में चार अन्य विद्वान संत श्री रघुनाथ गोस्वामी, श्री रघुनाथ भटट् गोस्वामी, श्री गोपाल भटट् गोस्वामी, तथा श्री जीव गोस्वामी भी ब्रजधाम आए। इस प्रकार ये सभी संत षड्गोस्वामी के रूप में प्रसिद्घ हुए। षड्गोस्वामियों ने भजन कीर्तन की यमुना प्रवाहित करके फिर से वंृदावन की पुरातन स्मृतियों को जागृत कर दिया। इस पावन धरा का वैभव जो कहीं लुप्त सा हो गया था वह लौटने लगा। श्री चैतन्य महाप्रभु ने इन्हें जो कार्य सौंपा था वह अपनी पूर्णता की ओर आने लगा। शीघ्र ही गोस्वामियों की कीर्ति ने चारों दिशाओं को भगवतप्रेम की सुगंध से भर दिया। देश भर से गोस्वामियों की प्रसिद्घि सुन कर कृष्णभक्त वंृदावन पहुंचने लगे।
कहा जाता है कि गोस्वामियों से प्रभावित होकर मुगल शासक अकबर भी वंृदावन आकर श्री जीव गोस्वामी से मिला। इस काल में वंृदावन धाम में कई मंदिरों का निर्माण हुआ। जिसमें से श्री राधामदनमोहन मंदिर का सर्वप्रथम निर्माण श्री सनातन गोस्वामी ने प्रारंभ करवाया। यह वृंदावन धाम का प्रथम मंदिर कहलाया। इस समय में यहंा सात प्रमुख मंदिरों का निर्माण हुआ जिनमें राधा कृष्ण सात विभिन्न नामों से विराजमान हुए।
इस प्रकार फिर से यह धाम गोस्वामियों के पुनरुद्घार द्वारा जगत के सामने प्रकट हुआ। श्रद्घालु अपने अराध्य को फिर से याद करने यहंा आने लगे। धरती पर अपने आगमन का उद्देश्य पूरा करके ये गोस्वामी वंृदावन धाम की पवित्र धरा में ही आलोप हो गए। परन्तु इनके द्वारा जगाई गई भक्ति व प्रभुप्रेम की ज्योति ने इन्हें सदा के लिए अमर कर दिया। गोस्वामियों द्वारा हस्तलिखित ग्रंथों व पांडुलिपियों को आज भी भक्तिवेदंात मार्ग पर स्थित इस्कान मंदिर के निकट वृन्दावन शोध संस्थान में देखा जा सकता है। गोस्वामियों की समाधियंा वृन्दावन धाम में ही स्थापित हैं जहंा आज भी श्रद्घालु इनसे भक्ति की दीक्षा प्राप्त करने आते हैं। अभिनव
मंदिर निर्माता
श्री राधामदनमोहन जी मंदिर श्री सनातन गोस्वामी
श्री राधागोविंददेव जी मंदिर श्री रूप गोस्वामी
श्री राधागोपीनाथ जी मंदिर श्री मधुपण्डित गोस्वामी
श्री राधादामोदर जी मंदिर श्री जीव गोस्वामी
श्री राधाश्यामसुन्दर जी मंदिर श्री श्यामानन्द गोस्वामी
श्री राधारमण जी मंदिर श्री गोपाल भटट् गोस्वामी
श्री राधागोकुलानन्द जी मंदिर श्री लोकनाथ गोस्वामी
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