पिट गए मोहरे, पलट गई बिसात
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क्या आपने मुजफ्फरनगर में दंगा पीडि़त मुस्लिमों से मिलते वक्त कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी की आंखों में आई चमक पढ़ी थी? बस, उसी चमक का विस्तार है केन्द्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का राज्यों को जारी यह फरमान कि वे 'यह सुनिश्चित करें कि आतंकवाद के नाम पर कोई भी निर्दोष मुस्लिम युवक न पकड़ा जाए।' और अब आपको यह बात भी कतई परेशान नहीं करेगी कि शिंदे दंगों में मारे गए लोगों, पकड़े गए लोगों को हिन्दुस्थानी नहीं बल्कि हिन्दू और मुसलमान के नजरिये से क्यों देख रहे हैं।
यह पहला मौका है जब सरकार ने दंगों में मारे गए हिन्दू और मुसलमानों का अलग-अलग ब्योरा दिया है। निहितार्थ बहुत हद तक साफ है कि हिन्दू मरे तो मरे, अगर मुसलमान मरा तो क्यों मरा? बेकसूर हिन्दू सालों सीखचों के पीछे रहे, लेकिन किसी मुसलमान पर पुलिस वाले ने हाथ डाला तो क्यों डाला? यह सब बताना पड़ेगा और इसके लिए भुगतना भी पड़ सकता है। हर मोर्चे पर पिटी और जनता के भयंकर गुस्से की शिकार यूपीए सरकार को अगर मुजफ्फरनगर जाकर 'पंथनिपेक्षता' का चोला सार्वजनिक तौर पर उतारना पड़ा है, तो यह बात समझ में आने जैसी है। सत्ता गंवाने के जोखिम से बचने का यही एक टोटका बचा था उसके पास- मुस्लिम प्रेम। और यह नुस्खा दादी से भी पहले की पीढ़ी से आजमाया जाता रहा है। हिन्दू है तो साम्प्रदायिक और मुस्लिम है तो निर्दोष। इससे यह बात साफ हो जाती है कि यूपीए सरकार के लिए पंथनिरपेक्षता का मतलब मुस्लिमपरस्ती का नकाब है। सरकारी फैसले तक साम्प्रदायिक आधार पर लिये जाने लगे हैं। ऐसा नहीं कि अभी तक ऐसा नहीं होता था, पर अब खुला खेल फर्रुखाबादी होने
लगा है।
दरअसल केन्द्र की सेकुलर यूपीए सरकार को कुछ महीनों बाद ही चुनावों का सामना करना है। वह घोटालों, भ्रष्टाचार, महंगाई, हिंसा और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर गुस्साई जनता को कोई जवाब देने की स्थिति में नहीं है। उधर विकास के मुद्दे पर नरेन्द्र मोदी की लगातार बढ़ती जा रही लोकप्रियता ने उसकी नींद उड़ा रखी है। 2014 के नतीजों का अंदेशा कुछ-कुछ 2013 में ही लगने लगा है। हर सर्वे उसके खिलाफ जा रहा है। ऐसे में विकास का एजेंडा लाकर जनता को मोह रही मोदी की आंधी से मुकाबले में मुस्लिमों को पुचकारना ही उसके पास एकमात्र विकल्प बचा है।
मुजफ्फरनगर में सोनिया और राहुल के साथ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी थे। वे छांट-छांटकर ज्यादातर उन्हीं जगहों पर गए जहां मुस्लिम थे। या कहें कि जहां मुस्लिम वोटर थे। वह मीडिया में यह दर्शाने का 'ट्रेलर' था कि दंगों में सबसे ज्यादा मुसलमानों पर अत्याचार होते हैं और कांग्रेस उनकी अब सबसे बड़ी खैरख्वाह बनकर उभरने की तैयारी में है। तमाम अखबारों में जब यह बात सुर्खियां बनी और 'प्रभावित' मुसलमानों के हालचाल पूछते तमाम फोटो भी छपे, तो अगले दिन सरकार जागी। एक रोता-पिटता बयान आया कि 'हमने हिन्दुओं के भी हाल पूछे थे और मीडिया को कुछ तस्वीरें भी जारी की थीं।' हालांकि हिन्दुओं का सीधा आरोप था कि उन्होंने दंगा प्रभावित हिन्दू बस्तियों की तरफ झांका तक नहीं था।
आगे की पटकथा तुरत-फुरत में बुनी जाने लगी। गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कमान संभाली और सरकारी कामकाज की तेजी देखिए कि 24 सितम्बर तक गृहमंत्रालय ने न केवल यह पता लगा लिया कि इस साल 1 जनवरी से 15 सितम्बर के बीच देश में कुल कितने दंगे हुए बल्कि बाकायदा उनमें मारे गए हिन्दू-मुसलमानों की सूची भी जारी कर दी।
चूंकि राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् की बैठक में खुद सरकार ने यह आंकड़ा प्रस्तुत किया है, इसलिए यह मीडिया की जिम्मेदारी हो जाती है कि आईना दिखाया जाए। उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के दंगे में करीब 62 लोगों की जानें गईं। उधर महाराष्ट्र से सटे नरेन्द्र मोदी शासित गुजरात में कुल 6 लोग मरे जिनमें 3 हिन्दू और 3 मुस्लिम थे।
लेकिन अभी एक ही दांव उल्टा पड़ा था। दूसरा बाकी था। अब खुद गृहमंत्री ने राज्यों के मुख्य सचिवों को चिट्ठी लिखी कि 'हमारे पास ऐसी कुछ शिकायतें आ रही हैं कि निर्दोष मुस्लिम युवकों को आतंकवाद के नाम पर पकड़ा जा रहा है। आइंदा एहतियात बरतें कि एक भी मुसलमान ऐसा न पकड़ा जाए जो बेकसूर हो।'
एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आपको हमेशा पंथनिरपेक्षता मुस्लिमों के आईने से देखनी पड़ेगी। मुलायम सिंह मुस्लिम परस्त हैं इसलिए सेकुलर हैं। कांग्रेस सपा से मुस्लिम वोट झटकने के लिए हर जुगत भिड़ाने को राजी है। सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें होने के कारण उत्तर प्रदेश पर सबकी नजर है और मुसलमानों के बीच मुलायम की गिरती साख ने कांग्रेस को उत्सव मनाने का अवसर दे दिया है। मुसलमान वोट हाथ लग गए तो उसकी धूमिल पड़ चुकी उम्मीदों को कुछ प्राणवायु मिल जाएगी।
राहुल ब्रिगेड से जुड़े कांग्रेस के एक नेता ने बताया कि मुसलमान वोट एकमुश्त होता है। यही वजह है कि मुसलमान वोट राजनीति की बिसात पर एक बड़ी ताकत के तौर पर जाना जाता है।
तमाम बड़ी खबरों के बीच यह खबर दब ही गई या दबा दी गई कि 2007 के अजमेर दरगाह विस्फोट मामले में अभियुक्त बनाए गए भावेश पटेल पर दबाव डाला जा रहा है कि वह इस मामले में रा.स्व. संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत और वरिष्ठ प्रचारक श्री इंद्रेश कुमार का नाम ले। पटेल ने अदालत से शिकायत की है कि केन्द्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे और कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह की तरफ से उस पर ये नाम लेने का दबाव डाला जा रहा है। वैसे, हर हाल में, देखा जाए तो चुनाव पर मतदाताओं को बटोरने के पैंतरे में पंथनिरपेक्षता को खुल्लमखुल्ला दांव पर लगाकर 10, जनपथ ने अपनी मंशा का साफ कर दी है।
'शहजादा' कहोगे या 'चुलबुल पांडे'
क्या गजब की 'एंट्री' थी-ह्यदागी नेताओं को बचाने वाले इस अध्यादेश को फाड़कर फेंक देना चाहिए।ह्ण अपने ह्यहोमवर्कह्ण में राहुल गांधी ने कोई कोताही नहीं की। मंच भी ठीक चुना, आस्तीनें चढ़ाते हुए अभिनय भी ठीक किया, संवाद भी वही बोले जो उनकी जुबान पर आसानी से चढ़ सकते थे, व्यवस्था से आजिज गुस्सैल नौजवान का किरदार भी ठीक चुना। और 'ओपनिंग' भी शानदार मिली। जिस मीडिया पर हफ्तों से नरेन्द्र मोदी छाये हुए थे, उस पर कम से कम एक पूरे दिन की शानदार टीआरपी तो बटोरी ही। पर अफसोस यह चुलबुल पांडे का अंदाज ह्यदबंगह्ण फिल्म में ही चल सकता है और यहां इसकी अगली कड़ी की शूटिंग नहीं हो रही थी। राजनीति में अतिथि कलाकार के तौर पर ऐसी धमाकेदार ह्यएंट्रीह्ण बहुत दूर तक नहीं ले जाती।
दरअसल यह अध्यादेश क्या था? सर्वोच्च न्यायालय ने सजा सुनाए जाने के साथ ही दागी नेताओं की संसद सदस्यता समाप्त करने का फैसला दिया था। पूरा देश और भाजपा समेत कई राजनीतिक दल उसके समर्थन में थे। लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही यूपीए सरकार ने कानून बनाकर अदालत के फैसले को ठेंगा दिखाने की ठानी। पहले दागी नेताओं को बचाने के लिए विधेयक तैयार किया। फिर उसे संसद में पेश किया। संसद में वह पास नहीं हो पाया और विचार के लिए समिति को सौंप दिया गया तो सरकार ने अध्यादेश लाने की ठानी। अध्यादेश राष्ट्रपति के पास भेजा। राष्ट्रपति ने इस पर नाखुशी जताई थी और तब ही जाहिर हो गया था कि इसका क्या हश्र होने वाला है। यहीं राहुल सलाहकारों ने उन्हें सामने लाने का इंतजाम किया और इसके पीछे काफी विचार मंथन चला। कांग्रेस भ्रष्टाचार और दागी नेताओं को लेकर जनता में बुरी तरह बदनाम हो चुकी थी। चार दिन बाद दो बड़े नेताओं, लालू प्रसाद यादव और रशीद मसूद के खिलाफ अदालत का फैसला आना था। इस कदम से जहां बूढ़े दागी नेताओं से छुटकारे की राह खुलती दिख रही थी, वहीं राहुल का चुनाव की तैयारी में जुटने का मंच भी तैयार हो रहा था और अचानक एक कमांडो के अंदाज में राहुल गांधी सामने आए, जैसे उन्हें उसी दिन अध्यादेश के बारे में जानकारी मिली हो।
भ्रष्टाचार के जितने कलंक इस सरकार ने कमाए हैं उनसे मुक्ति तो नहीं मिल सकती। फिर भी राहुल के सलाहकारों को लग सकता है कि जो मध्य वर्ग, खासकर युवा नरेन्द्र मोदी की सभाओं, रैलियों में जिस गर्मजोशी और लाखों की संख्या में जुड़ रहे हैं, उन पर कुछ हद तक वह अपना आकर्षण जमा सकेंगे। पर आप किसी को कागज पर गुलाब के फूल का चित्र बनाकर दे दें, या उसे किसी नर्सरी में उगाकर दिखा दें कि यह आपके बाग में भी उग सकता है, दोनों में बड़ा फर्क है। राहुल चित्र खींचने में लगे हैं। मोदी नमूने दिखा रहे हैं, विकास के, शिक्षा के, शासन संचालन के, युवाओं के सपनों और हौसलों की उड़ान के।
कर चुकाने के बावजूद समस्याओं के जूझ रहे मध्यवर्ग का एकजुट हो जाना एक बड़ी ताकत है और भारतीय लोकतंत्र में एक नया निर्णयकारी वर्ग तैयार होने का संकेत भी। सबसे बड़ी बात कि राहुल को आगे इस वर्ग के तमाम मुद्दों पर साफ राय रखनी होगी और बताना होगा कि वह क्या कर सकते हैं। लेकिन एक अनुशासनहीन नौजवान की छवि का वह क्या करेंगे, जो इस लोकरंजक अभिनय से लग गई है। उन्होंने विपक्ष के इस आरोप को एकदम सही ठहरा दिया है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नाम के प्रधानमंत्री हैं, असली ताकत कहीं और है। कहां है, यह साबित करना जरूरी था राहुल के लिए, अगर उन्हें 2014 के चुनावी समर में कुछ कर दिखाना है तो। उन्होंने यह किया। फिर एक मासूम सी सफाई भी जोड़ दी कि 'माता जी बोली थीं कि तुम्हें ऐसे नहीं कहना चाहिए था। इस बात को सलीके से भी कह सकते थे!' … लेकिन यह बात और है कि सिर्फ लहजे में नरमी लाने से राजपरिवार के शहजादों की नीयत नहीं बदल जाती।
भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में वह अपने पक्ष के सिपहसालार बनेंगे या नहीं, यह प्रश्न अभी जहां का तहां है। लालू प्रसाद यादव को सजा के बाद कांग्रेस के किसी भी नेता का उनके खिलाफ बयान नहीं आया है। अंदरखाने अब भी कांग्रेस राजद को बिहार में एक सहयोगी के तौर पर तोल रही है। कांग्रेस के इस फैसले के बाद ही यह तय होगा कि राहुल की दबंगई का सच क्या है?
कुल मिलाकर नरेन्द्र मोदी का खौफ ही है कि जिसने 'शहजादे' को आगे आने का न्योता दिया है। अब वह चाहे-अनचाहे भाजपा के दांव में फंस गए हैं। एक बार सामने आकर पीछे लौटने का कोई रास्ता नहीं है और कमान दूसरे के हाथ में सौंपना अब तक किसी भी जिम्मेदारी से बचते आ रहे ह्यशहजादेह्ण के लिए मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।
भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी का यह कहना बिल्कुल सही है कि दागी नेताओं के मामले में असली किरदार राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने निभाया है, राहुल ने नहीं। राहुल का राजनीति के चुनावी महामंच पर अभी प्रवेश हुआ है, किरदार तो अब सामने आएगा। सोनिया जानती है कि 2014 का चुनाव कांग्रेस के अस्तित्व के लिए कितना महत्वपूर्ण है। नरेन्द्र मोदी को रोकने के लिए उन्हें पूरी ताकत झोंकनी होगी। पहले कांग्रेस के नेताओं को मोदी के खिलाफ बिना सोचे समझे ज्यादा कुछ न बोलने का हुक्म दिया गया था। उस हुक्म की तामील हुई। अब नया हुक्म जारी हुआ है कि मोदी के खिलाफ कांग्रेस का हर बड़ा नेता हमला करने को तैयार रहे। यह और बात कि मोदी के खिलाफ चुप्पी की रणनीति तब बनाई गई थी जब कांग्रेस उनके खिलाफ बोल-बोलकर खुद ही जनता के बीच मजाक बनती जा रही थी। बहरहाल अब राहुल गांधी की प्रयोगात्मक परीक्षाएं शुरू हो चुकी हैं। प्रस्तुति : अजय विद्युत
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