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विश्व में हिन्दी पांचवीं सबसे बड़ी बोलचाल की भाषा है। भारत का शायद ही कोई ऐसा कोना है जहां हिन्दी न समझी जाती हो। इसके बाद भी देश की सबसे बड़ी अदालत सर्वोच्च न्यायालय में हिन्दी को प्रवेश नहीं मिल रहा है। सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी स्थिति में हिन्दी स्वीकार्य नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय न तो किसी मामले की बहस हिन्दी में करने की अनुमति देता है और न ही कोई पत्राचार हिन्दी में करना चाहता है। पिछले दिनों विकास शर्मा नामक एक व्यक्ति ने सूचना के अधिकार के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय से विकलांगों की एक जानकारी मांगी थी। उनका आवेदन हिन्दी में था,पर उन्हें उत्तर अंग्रेजी में दिया गया। इसके बाद उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से हिन्दी में उत्तर मांगा तो उन्हें कहा गया कि सर्वोच्च न्यायालय की भाषा अंग्रेजी है ़इसलिए अंग्रेजी में ही उत्तर मिलेगा। इस मुद्दे को वे केन्द्रीय सूचना आयुक्त के सामने ले गए हैं।
इसका अर्थ यही हुआ कि सर्वोच्च न्यायालय सब कुछ अंग्रेजी में करना चाहता है। यहां तक कि केन्द्रीय गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग के निवेदन के बाद भी अपने किसी निर्णय का प्रकाशन हिन्दी में नहीं करता है। सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता राम शिरोमणि यादव इस सम्बंध में सक्रिय हैं। कुछ समय पहले उन्होंने केन्द्रीय गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग को एक पत्र लिखा था। इसके बाद राजभाषा विभाग के अवर सचिव रति राम ने 4 जनवरी 2012 को सर्वोच्च न्यायालय के महा रजिस्टार को एक पत्र लिखकर इस नियम के पालन करने का निवेदन किया था। इसके बाद भी सर्वोच्च न्यायालय ने इस दिशा में कोई कदम उठाने की आवश्यकता नहीं समझी है। यह राजभाषा(संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग) नियम,1976 का उल्लंघन है। इस नियम की धारा 11(1) के अनुसार सभी मैनुअल,संहिंताएं और प्रक्रिया सम्बन्धी अन्य साहित्य आदि द्विभाषी रूप अर्थात् हिन्दी और अंग्रेजी में प्रकाशित किए जाने चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के इस व्यवहार से हिन्दी प्रेमियों में आक्रोश है। एक ऐसे ही हिन्दी-प्रेमी रुद्र नारायण पाठक पिछले दिनों नई दिल्ली में कई महीने तक कांग्रेस मुख्यालय के बाहर अनशन पर बैठे। उन्हें जबरन जेल में बंद करके अनशन तुड़वाया गया। प्रस्तुति: अरुण कुमार सिंह
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