रामसेतु को तोड़ने पर तुली केन्द्र सरकार
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हिन्दूओं के आस्था व विश्वास के प्रतीकों को मनमोहन-सोनिया सरकार की गिद्घ दृष्टि का अर्थ क्या है? हिन्दू आस्था व विश्वास के सभी प्रतीकों को मनमोहन-सोनिया सरकार क्यों विध्वंस करना चाहती है? अगर ऐसा नहीं है तो फिर केन्द्र की कांग्रेस सरकार रामसेतु को तोड़ने पर अमादा क्यों है? केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में नया हलफनामा देकर फिर सेतु समुद्रम परियोजना पर आगे बढ़ने यानी रामसेतु को तोड़ने का इरादा जताया है, यद्यपि केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में दिये हलफनामे में आर.के. पचौरी कमेटी की उस रपट को भी खारिज कर दिया है जिसमें रामसेतु को पर्यावरणीय दृष्टिकोण संरक्षित करने की बात थी और रामसेतु के विध्वंस से उत्पन्न होने वाली विकराल समस्या के प्रति सचेत करने की भी बात थी। केन्द्र सरकार विकास और व्यापारिक लाभ के लिए हिन्दुओं के आस्था के प्रतीक और पर्यावरणीय दृष्टिकोण ही नहीं बल्कि सामरिक तौर पर भी अतिमहत्वपूर्ण रामसेतु को तोड़ने के लिए अड़ी हुई है।
आज विकास और व्यापार के अनगिनत रास्ते हैं। हमें रामसेतु को विकास-व्यापार के ही केन्द्र बिन्दु में रखकर देखने तक सीमित क्यों रहना चाहिए? कथित विकास और पैसे कमाने के नाम पर क्या अपने गौरव-आस्था के प्रतीक चिन्हों-स्थानों को ध्वंस कर देना चाहिए? क्या एक सेतुसमुद्रम परियोजना स्थगित होने मात्र से देश के विकास का विध्वंस हो जायेगा? क्या हमें विकास के नाम पर देश की सुरक्षा, पर्यावरण को बलि बेदी पर चढाना न्यायोचित प्रतीत होता है? क्या समुद्री संकट और समुद्री तूफान की समस्या को हम आमंत्रित नहीं कर रहे हैं। सेतुसमुद्रम परियोजना से देश की समुद्री सुरक्षा और पर्यावरण को होने वाले नुकसान को ध्यान में रखने की कोशिश क्यों नहीं हो रही है? आस्था, विज्ञान, सुरक्षा और पर्यावरण जैसे कई प्रश्न हैं जिससे हम न तो मुंह मोड़ सकते हैं और न ही इन प्रश्नों को खारिज कर सकते हैं। अगर हम सभी आस्था व गौरव के प्रतीकों को विकास के प्रसंग से जोड़ कर देखेंगे तो देश के अंदर आस्था रखने या गर्व करने के लिए क्या बचेगा कल कोई सरकार कहेगी कि राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधि गैर जरूरी है, महात्मा गांधी की समाधि की वजह से दर्जनों एकड़ भूमि खाली पड़ी हुई है, महात्मा गांधी की समाधि को तोड़कर वहां एक आवासीय या फिर व्यावसायिक परिसर बना दिया जाना चाहिए? इससे एक तो विकास होगा और दूसरे, सरकार के खाते में करोडों-अरबों रुपये भी जमा होंगे। कल कोई सरकार या समूह यह कह सकता है, कि देश के संसद भवन को व्यापारिक परिसर बना दिया जाना चाहिए और संसद भवन में व्यापारिक प्रतिष्ठानों को किराये पर दे दिया जाना चाहिए, इससे सरकार को एक बड़ा राजस्व मिलेगा, जिससे विकास कार्यों को गति मिलेंगी, कोई छोटी-मोटी जगह पर स्कूल जैसा भवन बना दिया जाये जहां पर बैठ कर सांसद बहस करेंगे या कानून बनायेंगे और देश का भाग्य तय करेंगे? और तो और गंगा-यमुना जैसी तमाम नदियों को कोका कोला-पेप्सी जैसी कंपनियों को दे देना चाहिए वे व्यापार करेंगी और उनके व्यापार से देश को लांभाश मिलेगा? लाल किले पर प्रधानमंत्री द्वारा झंडा फहराने की क्या आवश्यतकता है, लालकिले में शराब खाना खोल देना चाहिए, ताकि सरकार को राजस्व हासिल हो सके, हिमालय को तोड़कर करोड़ों घर एवं रैन-बसेरे बना देने चाहिए, ताकि विकास का मार्ग संभव हो और सरकार को राजस्व भी प्राप्त हो। इन सबके सहित देश के अन्य धर्मस्थलों और गौरव के चिन्हों व प्रतीकों को लेकर ऐसे ही प्रश्न खड़े हो सकते हैं?
आस्था और गौरव के प्रश्न को हम थोड़ी देर के लिए शिथिल भी कर दें, तो भी वैज्ञानिक ढंग से सेतुसमुद्रम परियोजना पर सवाल उठे हैं। सेतुसमुद्रम परियोजना की आयु व रख-रखाव पर अवैज्ञानिक दृष्टिकोण स्थापित करने की कोशिश हो रही है। आरके पचौरी समिति ने साफतौर पर कहा है कि यह सेतुसमुद्रम परियोजना तकनीकी और पर्यावरण की कसौटी पर भी हानिकारक है। थोड़े लाभ के लालच में ढ़ेर सारी समस्याओं की खतरनाक जमीन खड़ी करने की कोशिश हो रही है। सेतुसमुद्रम परियोजना की लम्बाई 167 किलोमीटर, चौड़ाई 30 मीटर और गहराई 12 मीटर रखी गयी है। आर. के. पचौरी समिति ने कहा है कि यह परियोजना गले की फांस होगी, हमेशा जहाजों के फंसने की जड़ बनेगी, पानी के जहाजों का आवागमन संभव नहीं हो सकता है। तेल और गैसों के रिसाव का खतरा हमेशा बना रहेगा, समुद्री जीवों के अस्तित्व पर भी खतरा बन जाएगा। समुद्र में पारिस्थितिकी संकट उत्पन्न हो जाएगा। समुद्री पारिस्थितिकी असंतुलन को आमंत्रण देना भी आत्मघाती कदम होगा। इतना ही नहीं बल्कि समुद्र के आसपास रहने वाली आबादी के जीवन को भी कई बीमारियों से ग्रसित करेगा। इस परियोजना की आयु भी कितनी होगी? ऐसे कई सवाल है? निष्कर्ष यह भी है, कि सेतुसमुद्रम परियोजना की आयु कम होने से दिखाये जा रहे दिवास्वप्न का पूरा होना संभव नहीं है। सच तो यह है कि रामसेतु को तोड़ने-विध्वंस करने के लिए विकास और उन्नति के ऐसे-अनेक सपने दिखाये जा रहे हैं, एवं दावे किये जा रहे हैं जिसकी उम्मीद ही नहीं बनती है। भविष्य में ये सभी दावे और सपने झूठे साबित होंगें।
धार्मिक पर्यटन और परमाणु संपदा के रूप में विख्यात थोरियम की कसौटी को यहां देखते हैं। पहले धार्मिक पर्यटन पर विचार करते हैं। रामेश्वरम स्थित समुद्र तट पर प्रत्येक साल लाखों-करोडों लोग देश-विदेश से डुबकी लगाने आते हैं। शास्त्रों मं वर्णित है कि रामसेतु के पास डुबकी लगाने से मुक्ति की प्राप्त होती है, एवं रामसेतु लोगों की आस्था का प्रतीक हैं। सरकार अगर देश-विदेश में रामसेतु को धार्मिक पर्यटन के रूप में प्रचारित करे और स्थापित करने की चाकचौबंद कोशिश करे तो निश्चित तौर पर यह आर्थिक प्रगति का एक बड़ा माध्यम हो सकता है। दुनिया भर में पर्यटन अर्थव्यवस्था ख्याति अर्जित कर रही है। फिर हमें क्यों नहीं इस नई आर्थिक अर्थव्यवस्था को मजबूत बल देने वाले आधार पर सोचना चाहिए। सरकारें रामसेतु को धार्मिक पर्यटन के रूप में प्रचारित-प्रसारित करेगीं नहीं? यह तय है, क्योंकि अगर सरकारें रामसेतु को धार्मिक पर्यटन के रूप में प्रचारित-प्रसारित करेगी तो उन पर हिन्दू समर्थक होने या फिर हिन्दुत्व की महिमा मंडित करने के आरोप लगेंगे जिससे उनकी तुष्टीकरण की नीति विध्वंस होगी, इस खतरे से कौन खेलना चाहेगा?यह भी हमें ध्यान रखना चाहिए कि रामसेतु के आसपास समुद्री खनिज संपदाओं का ही खाजाना नहीं छिपा हुआ है बल्कि थोरियम जैसे अति महत्वपूर्ण संपदा का भण्डार है। जानना यह भी जरूरी है कि थोरियम से परमाणु बम बनाने के साथ ही साथ उर्जा की नयी जरूरतें पूरी हो सकती है। अगर रामसेतु तोड़ा जायेगा तो थोरियम खनिज संपदा भी नष्ट हो सकती है।
सबसे पहले तो राम सेतु को नष्ट करने के किस प्रकार के हथकंडे अपनाये गये हैं, वह भी आप देख सकते हैं। यहां तक की राम के अस्तित्व को ही नकारने की कोशिश हुई। यह कोशिश कांग्रेस की सरकार ही नहीं बल्कि तमिलनाडु की तत्कालीन करुणानिधि सरकार की भी थी। तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार की विदाई हो गयी। केन्द्र सरकार ने अपने हलफनामे में कहा था कि राम भगवान थे, इसका कोई प्रमाणित आधार नहीं है, राम एक काल्पनिक शख्सियत हैं और मिथक हैं। जब इस पर हंगामा हुआ तब वह हलफनामा केन्द्र की कांग्रेसी सरकार वापस लेने के लिए बाध्य हुई थी। हथकंडे यहीं तक सीमित नहीं थे, यह भी कहा गया कि रामसेतु का कोई अस्तित्व ही नहीं है, सिर्फ पौराणिक मिथक भर है। इस पर वैज्ञानिक तथ्य खोजे गये। अमरीकी अंतरिक्ष संगठन ‘नासा’ ने अपने वैज्ञानिक सर्वेक्षण से प्रमाणित किया है, कि रामेश्वरम और श्रीलंका के बीच समुद्र में एक ऐसा सेतु है जो सदियों पुराना है। इतना ही नहीं बल्कि यह सेतु समुद्री गतिविधियों को भी नियंत्रित करता है। अगर अमेरिकी अंतरिक्ष संगठन नासा ने प्रमाणित वैज्ञानिक तथ्य उजागर नहीं किये होते तो केन्द्रीय सरकार और तत्कालीन तमिलनाडु की सरकार रामसेतु को तोड़ने की इच्छा शायद कब की पूरी हो चुकी होती।
दूसरी ओर हमारी समुद्री सुरक्षा पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा हो सकता है। भारतीय तट रक्षक बल की आपत्तियां और चिंता भी उल्लेखनीय हैं। भारतीय तटरक्षक बल की ओर से उठायी गयी आपत्तियां और चिंता क्यों खारिज की जा रही है? भारतीय तटरक्षक बल के मुख्य वाइस एडमिरल आर.एफ. कॉन्ट्रेक्टर ने साफतौर पर कहा है कि सेतुसमुद्रम परियोजना पूरी होने और रामसेतु के विध्वंस से देश की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है, और भारतीय तटरक्षक बल के सामने नई चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं। हमें ध्यान यह रखना चाहिए कि चीन ने श्रीलंका में नौ सैनिक अड्डे बना रखे हैं। रामसेतु के अस्तित्व में रहने से श्रीलंका से समुद्र के रास्ते कोई आक्रमण आसान नहीं हो सकता है।
हमने सुनामी जैसी विभीषिका भी देखी है। भविष्य में भी सुनामी जैसी विभीषिका से इन्कार नहीं किया जा सकता है। केरल और तमिलनाडु सिर्फ रामसेतु के कारण सुनामी की विभीषिका से बचे थे। रामसेतु का अवरोध नहीं होता तो सुनामी केरल और तमिलनाडु में भी भीषण तबाही मचाती। इतनी महत्वपूर्ण धरोहर को व्यापार और विकास के नाम पर नष्ट करने की कोशिश सिर्फ भारत जैसे देश में ही संभव हो सकती है।
रामसेतु का विघ्वंस करने की जगह केन्द्र सरकार को रामसेतु को धार्मिक पर्यटन के रूप में विकसित करने की योजना बनानी चाहिए। सेतुसमुद्रम परियोजना से कई लाख गुणा आय रामसेतु को धार्मिक पर्यटन के रूप में विकसित करने से होगी।
‘रामसेतु पर राम के चरण पड़े थे, मैं इसमें विश्वास करता हूं
इसलिए केन्द्र सरकार की तरफ से अदालत में प्रस्तुत नहीं हो सकता।’
देश के महाधिवक्ता मोहन परासरन ने राम सेतु मामले में केन्द्र सरकार की ओर से सर्वोच्च न्यायालय अन्दाज में पैरवी करने से इनकार कर दिया है। उन्होंने कहा है कि रामसेतु पर भगवान श्रीराम के चरण पड़े थे। परासरन ने कहा कि चूंकि वह खुद उस क्षेत्र से ही हैं इसलिए उनको विश्वास है कि रामसेतु राम का बनाया सेतु है। इस विश्वास को बनाए रखने की स्वंतत्रता उन्हें संविधान से मिली है। इसलिए महाधिवक्ता के नाते उन्होंने इस मामले में खुद को केन्द्र सरकार की वकालत करने से अलग कर लिया। अब वह सेतुसमुद्रम परियोजना पर सर्वोच्च न्ययालय में केन्द्र सरकार की पैरवी नहीं करेंगे। परासरन ने यह भी कहा कि सेतु का अस्तित्व नासा भी स्वीकार कर चुका है। परासरन को उम्मीद है कि सरकार पर्यावरण से जुड़े मुद्दे का भी ध्यान रखेगी। उल्लेखनीय है कि परासरन के पिता सेतुसमुद्रम परियोजना के याचिकाकर्ताओं के विरुद्ध अदालत में बतौर वकील लड़ चुके हैं इसलिए वे नहीं चाहते कि वे नहीं चाहते कि उस बात का उनके विरुद्ध इस्तेमाल किया जाए। विष्णुगुप्त
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