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बच्चो! जल अमूल्य है, यह हम जानते हैं, जल ही जीवन है, परन्तु जल का कितना मूल्य है यह हम नहीं जानते, क्योंकि हम उसे पैसा देकर नहीं खरीदते। यह प्रकृति की ऐसी अमूल्य निधि है, जो हमें बिना कोई मूल्य चुकाये और बिना किसी श्रम के प्राप्त होती है, इसीलिए हम इसका वास्तविक मूल्य नहीं जानते। जिस वस्तु का वास्तविक मूल्य पता न हो और वह हमें जीवन भर सहजता से उपलब्ध होती रहे, तो क्या हम उसका संरक्षण कर सकते हैं… नहीं। यह निर्विवाद सत्य है कि जिस वस्तु को हम मूल्य देकर प्राप्त नहीं करते, उसको नष्ट करने का कोई मौका हम नहीं चूकते और जाने-अनजाने उसका दुरुपयोग करते हुए विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर देते हैं। प्रकृति के अन्य अनमोल धरोहरों के साथ-साथ हमने जल को नष्ट और प्रदूषित करने का कोई भी मौका नहीं गंवाया।
आज हमारे सामने संकट की घड़ी है। आवश्यकता के अनुरूप हमारे पास जल के स्रोत नहीं हैं। कहीं भी पर्याप्त पानी नहीं है। आज हम पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहे हैं। हम चीखते-चिल्लाते हैं और सरकार को कोसते हैं, परन्तु जल को नष्ट करने में हमारी क्या भूमिका रही है, इसकी तरफ कभी निगाह उठाकर नहीं देखते। मनुष्य का सहज स्वभाव ही है कि वह अपने दोष सदा दूसरों पर थोपता रहता है।
हमारी उस पीढ़ी के लोग, जिन्होंने कुएं और तालाबों को जल से लबालब देखा है, स्वच्छ जल के झरने और नदियां देखी हैं, उनमें स्नान किया है, आज इस बात से चिंतित हैं कि वर्तमान पीढ़ी को जल की एक-एक बूंद के लिए तरसना पड़ रहा है। शहर की बात तो बहुत दूर की है, गांवों में भी अब कुएं नहीं हैं, तालाब पट चुके हैं। अगर कहीं दिखाई देते हैं, तो उनमें जल नहीं है, क्योंकि उनका धरातल इतना सपाट है कि उनमें बरसात का भी पानी नहीं रुकता।
गर्मी के दिनों में जल के लिए त्राहि-त्राहि मचती है, परन्तु हमारी आंखों का पानी इस कदर मर चुका है कि हमें उसकी कोई चिन्ता नहीं है। जब जल नहीं मिलता, तब हम चिल्लाते हैं, परन्तु जब मिलता है तो हम उसका इतना दुरुपयोग करते हैं, जैसे यह कभी खत्म न होने वाला स्रोत हो। क्या आपने नहीं देखा कि शहरों में हम किस तरह पानी का पाइप लगाकर मोटर गाडि़यों को धोते हैं और अपने घरों के आगे सुबह-शाम मिट्टी धोने के नाम पर सड़क पर बहुमूल्य पानी बहाते हैं।
एक युग था जब हम जल के उपयोग के लिए लोटा और बाल्टी प्रयोग में लाते थे। बाद में लोटे की जगह हम मग प्रयोग में लाने लगे। सभी जानते हैं कि कुल्ला करते समय हम अधिक से अधिक दो लोटा या मग जल का उपयोग करते थे और नहाते समय अधिक से अधिक दो बाल्टी पानी से स्नान कर लेते थे। परन्तु आज हम पानी की टोंटी और फव्वारे से यह सभी कार्य करते हैं और बीसियों लीटर पानी कुल्ला करने और कई गैलन पानी हम नहाने में खर्च कर देते हैं। फर्श और मोटर गाडि़यां धोना तो आम बात है, जिसमें अथाह पानी व्यर्थ बह जाता है। क्या यह शिक्षित, सुसंस्कारित और सभ्य मनुष्यों की मूर्खता नहीं है?
उत्तर भारत में नदियों की प्रचुरता थी और पर्याप्त वर्षा होने के कारण यहां की भूमि अत्यधिक उपजाऊ थी। यहां संपन्नता थी। इतिहास गवाह है कि इसी कारण सर्वाधिक विदेशी आक्रमण इसी तरफ से हुए और विदेशी शासकों ने यहीं पर अपनी राजधानियां बनाकर पूरे भारत पर शासन करना उपयोगी समझा। गंगा-यमुना का दोआब पूर्णतया खेतिहर क्षेत्र है और यहां पर सभी प्रकार की फसलें होती हैं। यहीं जनसंख्या का अत्यधिक दबाव है। जल और अन्न की उपलब्धता के कारण ही जनसंख्या का घनत्व बढ़ता है, परन्तु अब इस क्षेत्र की क्या दशा है? क्या यह किसी से छिपा है? यहां सबसे अधिक जनसंख्या है, परन्तु जल के समस्त स्रोत सूख चुके हैं, नहरों का जाल रेगिस्तान में बदल चुका है, क्योंकि जब नदियों में जल नहीं है तो नहरों में कहां से आएगा? पूरा आषाढ़ बीत जाता है और मानसून की आहट तक सुनाई नहीं देती। सावन और भादो भी मनुष्य को रुलाकर चले जाते हैं, परन्तु घटाओं के दरवाजे कभी-कभार ही खुलते हैं।
पूर्वोत्तर भारत, विशेषतया असम और बंगाल में, जहां अत्यधिक वर्षा होती है, जल संरक्षण के उपाय लगभग हर व्यक्ति अपनाता है। शहरों की बात छोड़ दें, तो भी हर ग्रामीण व्यक्ति के घर के सामने पिछवाड़े एक पोखरी (छोटा तालाब या तलैया) होती है, जिसमें वह मछली पालन करते हैं, बत्तखें पालते हैं और पूरे वर्ष वह उसी से नहाते-धोते हैं और कपड़े धोते हैं। ऐसी परम्परा उत्तर भारत में नहीं है।
जल-संरक्षण के लिए हमें सरकार का मुंह नहीं ताकना है, व्यक्तिगत स्तर पर हमें इसके बारे में गंभीरता से सोचना ही नहीं, कुछ करना है। तमाम गैर सरकारी संस्थाएं और सरकार भी नागरिकों को इस संबंध में जागरूक कर रही है कि अपने घरों में जहां अनुपयोगी भूमि पड़ी है, उसमें छोटे टैंक बनाकर आप जल-भराव करके उसका संरक्षण कर सकते हैं। वह जल आपकी आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त तो नहीं होगा, परन्तु जब जल के अन्य स्रोत अनुपलब्ध हों तो वही जल आपके काम आ सकता है।
जल जीवन ही नहीं, बहुमूल्य भी है और एक दिन इसके समस्त स्रोत सूखने वाले हैं। अत: हमें बहुत सूझ-बूझ से इसका उपयोग करना है और इसके संरक्षण के लिए व्यक्तिगत स्तर पर योगदान भी देना है, ताकि अनन्त काल तक हम इसका उपयोग करते हुए अपनी सभ्यता और संस्कृति की रक्षा कर सकें और मानव-जीवन के साथ समस्त प्राणी जीवन को भी बचाने में अपना कुछ योगदान दे सकें। हमारा छोटा-सा योगदान बहुमूल्य जल को बचाने के लिए पर्याप्त होगा। राकेश भ्रमर
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