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जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति पर राष्ट्रीय संविमर्श
जम्मू-कश्मीर किसी भी अन्य राज्य की तरह भारतीय संघ का अभिन्न अंग है। वहां का प्रत्येक निवासी भारतीय नागरिक है और उसे वे सभी अधिकार हासिल हैं जो भारत के किसी भी नागरिक को हैं। संविधान का कोई भी प्रावधान उसे मौलिक अधिकार प्राप्त करने से रोक नहीं सकता। किन्तु अनुच्छेद 370 की आड़ में अनेक बार नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर चोट होता है जिसका संवैधानिक हल खोजा जाना समय की मांग है।
जम्मू कश्मीर अध्ययन केन्द्र, मेवाड़ विश्वविद्यालय तथा अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद द्वारा संयुक्त रूप से जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक एवं विधिक स्थिति विषय पर 20-21 सितम्बर 2013 को वसुन्धरा, गाजियाबाद, उ़प्ऱ स्थिति मेवाड़ संस्थान में आयोजित राष्ट्रीय संविमर्श में बोलते हुए विभिन्न वक्ताओं ने उक्त विचार व्यक्त किये। संविमर्श को संविधान एवं न्यायिक क्षेत्र के जाने-माने विशेषज्ञों, अधिवक्ताओं, पत्रकारों, शिक्षाविदों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने संबोधित किया।
जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र के निदेशक श्री अरुण कुमार ने कहा कि भारत का संविधान अपने मूल स्वरूप में पंथनिरपेक्ष है। उसके किसी भी अनुच्छेद की व्याख्या जाति-पंथ-क्षेत्र के संदर्भ में किया जाना अवांछनीय है। दुर्भाग्य से अनुच्छेद 370 को एक विशिष्ट क्षेत्र और मजहब के साथ जोड़ कर देखने की राजनैतिक प्रवृत्ति ने स्थिति को जटिल बनाया है। इसके चलते अनुच्छेद 370 की वित व्याख्या की गयी। अनेक ऐसे प्रावधान राज्य में लागू किये गये जो भारतीय संविधान की भावना से मेल नहीं खाते। लोकहित के उन अनेक कानूनों के लागू नहीं होने पर चिंता जताते हुए श्री कुमार ने कहा कि इसके कारण राज्य के निवासी उन प्रावधानों से वंचित हैं जिनका लाभ देश के सभी नागरिक उठा रहे हैं।
न्यायमूर्ति (से़नि़) जी डी शर्मा ने कहा कि भारतीय संविधान की प्रथम अनुसूची में भारतीय संघ में शामिल सभी राज्यों की सूची है जिसमें जम्मू-कश्मीर 15वें स्थान पर है। जम्मू-कश्मीर राज्य का संविधान उपरोक्त तथ्य की पुष्टि करता है। इस संविधान का अनुच्छेद 3 कहता है कि जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। अनुच्छेद 4 के अनुसार जम्मू-कश्मीर राज्य का अर्थ वह भू-भाग है जो 15 अगस्त 1947 तक राज्य के राजा के आधिपत्य की प्रभुसत्ता में था। अनुच्छेद 147 कहता है कि अनुच्छेद 3 कभी नहीं बदला जा सकता।
मेवाड़ विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्री अशोक कुमार गदिया ने कहा कि अगर अनुच्छेद 370 अपने ही नागरिकों को इन अधिकारों से वंचित करता है तो इस पर विमर्श होना चाहिये। लोकतंत्र में यह विभिन्न मंचों पर बहस के द्वारा ही संभव है।
जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री सदानंद झा ने बताया कि भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 एक अस्थायी उपबंध के रूप में जोड़ा गया। इसे जोड़ने की जरूरत क्यों अनुभव की गयी, यह जानने के लिये संविधान की कार्यवाही को देखना जरूरी है।
गोपालस्वामी आयंगर ने जब यह अनुच्छेद प्रस्तुत किया तो अकेले हसरत मोहानी ने इसकी जरूरत पर सवाल उठाया। जवाब देते हुए आयंगर ने कहा कि राज्य में युद्घ जैसी स्थिति है, कुछ हिस्सा आक्रमणकारियों के कब्जे में है, संयुक्त राष्ट्र संघ में हम उलझे हुए हैं और वहां फैसला होना बाकी है, इसलिये यह अस्थायी प्रावधान किया जा रहा है। जम्मू-कश्मीर के प्रतिनिधि के रूप में वहां नेशनल कांफ्रेंस के सदस्य मौजूद थे जो इस पर खामोश रहे।
न्यायमूर्ति (से़नि़) पर्वतराव ने कहा कि 6 सितम्बर 1952 के अपने पत्र में तत्कालीन राष्ट्रपति ड राजेन्द्र प्रसाद ने इसके प्रावधानों द्वारा संसद के अधिकारों के अतिक्रमण और राष्ट्रपति को दी गयी असीमित शक्तियों पर चिंता व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री नेहरू को पत्र लिखा । अनुच्छेद में प्रयुक्त शब्दावली का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा कि संविधाननिर्माताओं के अभिप्राय से अलग भी इनकी व्याख्या और क्रियान्वयन संभव है। इसके निवारण के लिये उन्होंने महाधिवक्ता और विधिमंत्री की राय जानने का भी सुझाव दिया।
राजनैतिक विश्लेषक प्रो़ हरिओम के मतानुसार 63 वर्ष बाद आज यदि किसी अनुच्छेद का मूल्यांकन करना हो तो दो बातों को आधार बनाया जाना चाहिये। पहला, जब वह अनुच्छेद संविधान में जोड़ा गया तो संविधान निर्माताओं की मंशा क्या थी। दूसरा, उक्त प्रावधान क्या अपने उद्देश्य में सफल हो सका। संविधान निर्माताओं की मंशा तो इस से ही जाहिर है कि उन्होंने उसे अस्थायी की श्रेणी में रखा। इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता तत्कालीन राष्ट्रपति को लागू होने के कुछ समय बाद ही अनुभव होने लगी। स्वयं विधि मंत्री डॉ. अम्बेडकर ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा देते समय जो कारण गिनाये, नेहरू की जम्मू-कश्मीर नीति से असहमति उनमें से एक था।
राज्यसभा सांसद अविनाशराय खन्ना ने अनुच्छेद 370 के कारण राज्य की शेष देश से दूरी बढ़ने, विकास के बाधित होने, विस्थापितों और शरणार्थियों के संविधानप्रदत्त मौलिक अधिकारों से वंचित रहने जैसे सवाल खड़े किये। श्री खन्ना के अनुसार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़े वर्ग, महिलाओं, तथा अल्पसंख्यकों के लिये भारतीय संविधान में किये गये संरक्षणात्मक प्रावधान तथा आरक्षण की सुविधा से भी राज्य की बड़ी जनसंख्या वंचित है। 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन जो शासन का विकेन्द्रीकरण कर पंचायती राज को सशक्त बनाते हैं, का रास्ता भी रुका हुआ है।
सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता राजीव पांडे के अनुसार देश के 134 कानून जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं हैं। यदि वे शेष देश के नागरिकों के हितों पर चोट नहीं करते तो किसी राज्य विशेष के लिये कैसे नुकसानदेह हो सकते हैं, लेकिन अनुच्छेद 370 पर क्षेत्रीय और मजहबी पहचान का लबादा डाल कर अलगाव की राजनीति को धार दी जाती रही है।
सिक्किम उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश (से़ऩ) श्री प्रमोद कोहली ने जम्मू-कश्मीर राज्य में प्रशासनिक स्तर पर जम्मू व लद्दाख से भेद-भाव का मुद्दा उठाया। वहीं संविधान विशेषज्ञ प्रो. के एल भाटिया ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की अपील, पाकिस्तान की प्रतिक्रिया तथा सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों पर विस्तार से प्रकाश डाला। श्री भाटिया के अनुसार सुरक्षा परिषद में भारत का वाद दशकों पहले समाप्त हो चुका है। शिमला समझौते में भारत और पाकिस्तान द्वारा यह निश्चित किया जा चुका है कि सभी मामले द्विपक्षीय बात-चीत द्वारा हल किये जायेंगे। इसके बावजूद जो लोग जनमतसंग्रह की बात करते हैं वे केवल भ्रम फैलाने का काम कर रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने कहा कि बिना किसी संदर्भ के जब प्रधानमंत्री की मौजूद्गी में मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला 370 हटाने के लिये हमारी लाशों पर से गुजरना होगा। तो वह जम्मू-कश्मीर की अवाम को चार दशक पीछे ले जाने की कोशिश कर रहे होते हैं। उमर अब्दुल्ला तीसरी पीढ़ी के नेता हैं और उनसे उम्मीद की जाती है कि वे आधुनिक होंगे, लेकिन वह अतीत में लौटना चाहते हैं। इंदिरा-शेख समझौते के बाद से क्षेत्रीय स्वायत्तता का सवाल धीरे-धीरे हल हो रहा है। एकीकरण का रास्ता खुला है। लेकिन उमर का बयान इस प्रक्रिया पर चोट करता है।
राज्य की राजनीति में उमर की प्रतिस्पर्धा भाजपा से नहीं बल्कि पीडीपी से है। इस लड़ाई में वे अपने-आप को ज्यादा बड़ा कट्टरपंथी साबित कर अपनी राजनैतिक हैसियत बरकरार रखना चाहते हैं, लेकिन अलगाव की यह राजनैतिक पैंतरेबाजी बहुत दूर तक साथ नहीं देगी और बहुत संभव है कि इस कोशिश में उमर हाशिये पर चले जायें।
अनुच्छेद 35 ए को अनुच्छेद 370 की आड़ में किया गया धोखा बताते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता एवं पूर्व सांसद सतपाल जैन ने उसके दुष्परिणामों को रेखांकित किया। बचनलाल कनगोत्रा बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर के मामलों को इतना संवेदनशील बना दिया गया है कि उस पर फैसला देते समय सर्वोच्च न्यायालय की कलम भी ठिठक जाती है।
अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद के महामंत्री डी़ भरत कुमार ने कहा कि यह दावा गलत है कि जम्मू-कश्मीर के साथ भारत का रिश्ता केवल अनुच्छेद 370 से निर्धारित होता है और इसके न रहने पर भारत के साथ उसका सैधानिक संबंध ही समाप्त हो जायेगा।
पूर्व केन्द्रीय मंत्री जगदीप धनखड़ का मानना था कि जम्मू-कश्मीर के अलगाव और पीड़ा को संबोधित करना है तो राजनीति को परे कर ईमानदार पहल जरूरी है। राज्य को यदि विकास के रास्ते पर आगे बढ़ना है तो उसके लोकतांत्रिक उपायों से मुंह मोड़ना असंभव है। इसके लिए जनता के हाथों पंचायती राज सौंपना होगा, केन्द्रीय मानवाधिकार आयोग, केन्द्रीय अल्पसंख्यक आयोग, केन्द्रीय महिला आयोग, केन्द्रीय अनुसूचित जाति आयोग, केन्द्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, लोकसभा विधानसभा हेतु परिसीमन आयोग तथा सर्वोच्च न्यायालय आदि के लिये दरवाजे खोलने होंगे ताकि कोई भी नागरिक अपने अधिकारों के लिये सीधे इन संस्थाओं तक पहुंच सके।
संविमर्श में अनुच्छेद 370 की उत्पत्ति एवं प्रति, जम्मू-कश्मीर के संवैधानिक एकीकरण की प्रक्रिया, अनुच्छेद 370 के परिणाम, जम्मू-कश्मीर और संयुक्त राष्ट्र संघ तथा संवैधानिक विसंगतियां पर विभिन्न सत्रों में चर्चा हुई। अनुच्छेद 35 ए के कारण उत्पन्न संवैधानिक विभेद पर भी गहन चर्चा हुई। राष्ट्रीय संविमर्श को शिक्षा क्षेत्र, राजनैतिक क्षेत्र, पत्रकारिता तथा न्यायपालिका के विशिष्ट विद्वानों ने संबोधित किया।
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