लक्ष्मण रेखा पार करने वालों को वे छोड़ते नहीं थे
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लक्ष्मण रेखा पार करने वालों को वे छोड़ते नहीं थे

by
Sep 21, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 21 Sep 2013 15:59:56

दीनदयाल जी की स्मृति में विशेष 

भारतीय जनसंघ की स्थापना दिल्ली में 21 अक्तूबर 1951 में हुई थी। पं. दीनदयाल जी उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे। गुरुजी ने डा. मुखर्जी के आग्रह पर संघ के कुछ प्रचारक जनसंघ में दिए थे, जिनमें दीनदयाल जी प्रमुख थे। 1952 में वह जनसंघ के महामंत्री बने। दीनदयाल जी 1967 तक 15 वर्ष जनसंघ के महामंत्री रहे। यद्यपि संवैधानिक दृष्टि से उस समय भी अध्यक्ष के पास प्रमुख अधिकार थे, परन्तु कम्युनिस्ट पार्टी की तरह महामंत्री ही पार्टी का संचालन करता था।पार्टी की नीति रीति, संगठन, चुनाव, संघर्ष, आन्दोलन सबका संचालन दीनदयाल जी ही करते रहे।दीनदयाल जी की मृत्यु हुए 45 वर्ष बीत गए हैं, परन्तु उनके सम्पर्क में आए कार्यकर्ताओं व अन्य असंख्य व्यक्तियों को उनके साथ बिताए कम-अधिक अवसरों की स्मृतियों की सोंधी महक आज भी सुवासित करती है, प्रेरणा देती है।श्री दीनदयाल जी का स्पष्ट मत था कि नीतियां तो समय सापेक्ष होती हैं और समय के साथ-साथ बदलती रहती हैं, परन्तु जिन सिद्धान्तों के लिए जनसंघ का गठन हुआ था उन पर अपनी पार्टी को अडिग रहना चाहिए। इसलिए उन्होंने जनसंघ के सिद्धांत और नीतियां दस्तावेज तैयार करने में अत्यधिक मानसिक श्रम किया था।सिद्धान्त नीति दस्तावेज को उन्होंने कार्यसमिति व निर्वाचित प्रतिनिधियेां के समक्ष रखा और लम्बी चर्चा के बाद उसे स्वीकार किया गया।साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद आदि के समकक्ष श्री दीनदयाल जी ने एकात्म मानवतावाद की मौलिक परिकल्पना की।दीनदयाल जी का अन्त्योदय पर विशेष बल था। उन्होंने कार्यकर्ताओं, नेताओं, निर्वाचित प्रतिनिधियों और मंत्रियों को सदैव पंक्ति में खड़े अन्तिम व्यक्ति तथा जिसके पांव में बिवाई पड़ गई उनकी पीड़ा और कल्याण का विचार सब सरकारें और कार्यकर्ता करें, इस पर उनका विशेष आग्रह था।1967 में चुनावों में जनसंघ को अच्छी सफलता प्राप्त हुई थी। दिल्ली महानगर परिषद व दिल्ली नगर निगम में उसे स्पष्ट बहुमत मिला था। किसी राज्य में जनसंघ को स्पष्ट बहुमत पहली बार मिला था और वह भी राजधानी दिल्ली में। साथ ही पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश में संयुक्त विधायक दलों की संविदा सरकारें बनीं, जिनमें भारतीय जनसंघ घटक दल था और उसके मंत्री सब सरकारों में थे। उत्तर प्रदेश में तो श्री रामप्रकाश गुप्ता उपमुख्यमंत्री थे और दिल्ली में मैं मुख्य कार्यकारी पार्षद (प्रोटोकोल में मुख्यमंत्री) था। मार्गदर्शन के लिए सब दीनदयाल जी की ओर देखते थे। अभी तक किसी ने दीनदयाल जी की पार्टी में सर्वोच्चता को चुनौती नहीं दी थी। परन्तु अब अध्यक्ष ने नीतिगत निर्णय स्वयं करने प्रारंभ कर दिए थे जो पार्टी की रीति-नीति से मेल नहीं खाते थे। सभी ने मिलकर निर्णय किया कि इसका एकमात्र हल है कि दीनदयाल जी को ही अध्यक्ष बना दिया जाए। दीनदयाल जी इसके लिए कतई तैयार नहीं  थे। पूर्णतया अनिच्छा से एक वर्ष के लिए उन्होंने अध्यक्ष पद स्वीकार किया, पर नियति को शायद यही मंजूर नहीं था। एक वर्ष की अवधि पूरी करने से पूर्व ही 11 फरवरी, 1968 को उनकी अकाल मृत्यु हो गई।वैसे तो उनका अपना आवास, निवास था ही नहीं, परन्तु जनसंघ का महामंत्री बनने के बाद उनका स्थायी ठिकाना दिल्ली ही बन गया था। वर्षों तक अजमेरी गेट स्थित जनसंघ कार्यालय के एक कमरे में उनका निवास था। बाद में अटल जी के संसद सदस्य बनने पर वे 30, राजेन्द्र प्रसाद रोड पर रहने चले गए थे।दीनदयाल जी अंत तक कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों, नेताओं को साथ रखने का प्रयत्न करते थे। परन्तु एक  सीमा तक लक्ष्मण रेखा किसी ने पार की तो निर्णय करने में भी वे निर्मम थे। विचार भिन्नता, मतभिन्नता का आदर करते थे, परन्तु पार्टी को धमकी देकर पार्टी का भयादोहन कर अपनी बात मनवाने का प्रयास करने वाले को उन्होंने दृढ़तापूर्वक कुचल दिया।लाला हरीचन्द दिल्ली के प्रमुख नेता थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वर्षों तक प्रांत संघचालक थे। 1958 के नगर निगम के चुनावों में वह सदस्य निर्वाचित हुए थे।लाला हरीचन्द जी पार्टी में सबसे वरिष्ठ थे। अत: उन्हें निगम दल का संरक्षक मनोनीत किया गया।1959-60 वर्ष के लिए निगम की समितियों के चुनाव होने थे। निगम की सबसे महत्वपूर्ण समिति स्थायी समिति है। विचार किया गया कि या तो सर्वसम्मति से समितियों के अध्यक्षों का चुनाव कर दिया जाए अथवा स्वतंत्र सदस्यों से मिलकर चुनाव लड़ा जाए। लाला हरीचन्द समिति का चुनाव लड़ना चाहते थे। उन्होंने आवेश में आकर कह दिया कि यदि उन्हें चुनाव न लड़ाया गया तो वह पार्टी छोड़ देंगे। हम सब के हाथ-पांव फूल गए। दीनदयाल जी को इसका पता चला। उन्होंने तुरन्त अपने हाथ से दल के नेता श्री केदार नाथ साहनी को एक चिट्ठी लिखी। वह चिट्ठी लाला हरीचन्द जी को मिली तो उनकी आंखों से आंसू छलक गए और उन्होंने तुरन्त दीनदयाल जी को पत्र लिखकर सफाई दी। प्रो. विजय कुमार मल्होत्रा 

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