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प्रथम और द्वितीय महायुद्ध यूरोप की धरती पर लड़े गए। उसके आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिणामों पर चर्चा करने के लिए होनालुलु में तत्कालीन महाशक्तियों की बैठक हुई थी। चर्चिल, रूजवेल्ट, जनरल डिगाल और स्टालिन सभी एक मुद्दे पर सहमत थे कि अब तीसरा महायुद्ध यूरोप की धरती पर नहीं होना चाहिए। यह उनकी कल्पना नहीं, बल्कि यथार्थ था। इसलिए इन देशों के बीच चाहे जितने मनमुटाव हों लेकिन वे इस मुद्दे पर अब भी अटल हैं। दूसरे महायुद्ध के पश्चात एशिया, अफ्रीका और एशिया के देशों में जो उथलपुथल मचती है उसका सिरा कहीं न कहीं इन चारों में से एक के साथ जाकर मिलता है। राजनीति हो या फिर आर्थिक मामले अथवा हथियारों की होड़, यह सब मिल कर दुनिया को बताते रहते हैं कि हम तो विकासशील राष्ट्रों की सहायता में अपना योगदान करते हैं लेकिन असलियत यह है कि इस समर्थन की आड़ में ही कभी मध्य पूर्व सुलगता है और दक्षिण पूर्वी एशिया में खींचतान बढ़ती है। अफ्रीकी देशों का तो चाहे जैसा बंटवारा हो जाता है। पिछले कुछ समय से सीरिया के मामले में जो नए मोड़ आए हैं उनमें भी यही गंध आती है कि खनिज तेल उत्पादक अरब देशों पर उनका कब्जा किस प्रकार बना रहे। पश्चिमी राष्ट्र हथियारों पर प्रतिबंध लगा कर उन्हें मर्यादित करने तक की सीख तो देते हैं, लेकिन उनके पीछे उनकी एक ही गणना होती है कि उनके हथियार अधिक से अधिक किस प्रकार बिकें? इन दिनों सीरिया में जो हो रहा है वह सब उन्हीं का बुना जाल है। तेल के भंडार पर तो कब्जा होगा ही उनके बनाए हथियार धड़ल्ले से बिकेंगे। बीच-बीच में वे परमाणु बम और रासायनिक हथियारों की बातें भी करेंगे, जिससे उनके कोष छलकते रहें और दुनिया में अपनी चौधराहट का झंडा बुलंद करते रहें। जिस तरह से विश्व की शक्तियां सीरिया में एकत्रित हो रही हैं और वहां के सत्ताधीश बशरूल असद से उसे बचाने के लिए खतरनाक हथियारों का उपयोग होने लगा है उसे देखते हुए एक बार फिर यह प्रश्न प्रासंगिक बन गया है कि क्या सीरिया अपने वर्तमान स्वरूप में बना रहेगा या फिर उसका भी विभाजन हो जाएगा? एक समय था कि सीरिया मध्य पूर्व का सबसे बड़े क्षेत्रफल वाला देश था, लेकिन वह लगातार बंटता रहा और उसमें से अनेक देश बनते रहे। इस्लाम के जन्म के पश्चात सन् 634 में खालिद बिन वलीद नामक जनरल ने सीरिया की वर्तमान राजधानी दमिश्क पर कब्जा कर लिया था। 1918 में तुर्की की उस्मानी खिलाफत के साम्राज्य से अलग होकर अमीर फैसल ने ब्रिटिश सेना की सहायता से दमिश्क पर कब्जा कर लिया। अभी तीन महीने भी व्यतीत नहीं हुए थे कि फ्रांसीसियों ने सीरिया को तीन भागों में विभाजित कर दिया। उन्होंने सीरिया और लेबनॉन पर कब्जा जमा लिया और फिलीस्तीन को ब्रिटेन के हवाले कर दिया। इसके उपरांत भी सीरिया का बंटवारा समाप्त नहीं हुआ। उसे दुरूज एवं अलवी में बांट दिया। फिलीस्तीन पर ब्रिटिश कब्जा बना रहा। आज जिस सीरिया की समस्या को हल करने के लिए ब्रिटेन और फ्रांस में मित्रता है, वे ही भूतकाल में उसे बांटने के लिए अपनी रणनीति बना रहे थे। वहां ब्रिटेन कमजोर पड़ता चला गया और फ्रांस की पकड़ मजबूत होती चली गई। अब सीरिया फ्रांस से स्वतंत्र होने की लड़ाई लड़ने लगा। 1946 में मुस्लिमों की ताकत के कारण फ्रांस को सीरिया से निकलना पड़ा। सीरिया की आजादी के बाद वहां अरब सोशलिस्ट बाअस पार्टी की नींव रखी गई। 1957 तक वहां लड़ाइयां जारी रहीं, लेकिन 1958 में कर्नल नासिर सीरिया और मिस्र दोनों के संयुक्त नेता हो गए। नासिर ने बाअस पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया। इसलिए 1961 में मिस्र और सीरिया के बीच का समझौता टूट गया। 1963 में बाअस पार्टी की सरकार कायम हो गई। बगावत का दौर चलता रहा, लेकिन 1970 में हाफिज असद सीरिया के राष्ट्रपति बन गए।आगे का इतिहास बताता है कि सीरिया के पड़ोसी देश इस्रायल ने उसे पांच बार धूल चटा दी। इस्रायल का तो वह कुछ नहीं बिगाड़ सका लेकिन वह अपने पड़ोसी मुस्लिम देशों की पीठ में बार-बार छुुरा भोंकता रहा। जब ईरान में इस्लामी क्रांति हुई तो वह ईरान का शत्रु बन गया। ईरान-इराक युद्ध के समय वह सद्दाम का विरोधी बन गया और ईरान की हिमायत करने लगा। लेकिन जब इराक ने कुवैत पर हमला किया तो वह अमरीका का पक्षधर बन गया। 1980 में इखवानियों को मौत के घाट उतार दिया। 2000 में हाफिज असद की मौत के बाद उसके बेटे बशरूल असद ने दमिश्क की गद्दी संभाल ली। जब अरब वसंत की लहर चली तो वह भी सीरिया में पहुंच गई। इस कारण 2011 में दोनों के बीच टकराव शुरू हो गया। पहले तो बशरूल असद ने नरमी दिखाई लेकिन 2011की जुलाई आते-आते बशरूल असद के विरुद्ध एक सीरियन काउंसिल कायम हो गई। उसके नतीजे में इखवानियों ने नवम्बर में दमिश्क के कुछ ठिकानों पर हमला करना शुरू कर दिया। उस समय बशरूल असद की सरकार का तख्ता पलटा जा सकता था, लेकिन चीन और रूस ने सीरिया के विरुद्ध किसी कार्रवाई के लिए वीटो कर दिया। अरब लीग को भी असद ने मानने से इंकार कर दिया। 2012 में इस्लामी मुजाहिदीन ने उत्तर के कुछ भागों पर कब्जा कर लिया। अगस्त में बशरूल के प्रधानमंत्री ने बगावत कर दी। राष्ट्र संघ ने बशरूल असद से त्यागपत्र देने को कहा। 2012 के दिसम्बर में अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, तुर्की और खाड़ी के देशों ने बशर के विरोधियों को सीरिया की जनता का प्रतिनिधि स्वीकार कर लिया और गुस्सान हुत्तू को प्रधानमंत्री की मान्यता प्रदान कर दी। इतना ही नहीं डेढ़ मीलियन डॉलर की सहायता देने का वादा भी किया। लेकिन अप्रैल 2013 में विरोधियों के नेता मआजुल खतीब ने यह आरोप लगा कर त्यागपत्र दे दिया कि बाहर के समर्थक कोई षड्यंत्र रच रहे हैं। इसलिए उनके स्थान पर प्रसिद्ध समाजवादी नेता जोर्ज साबिर को नेता बना दिया। जुलाई में सऊदी अरब की हिमायत से अहमद जरबा ने जोर्ज साबिर का स्थान ले लिया। इस बीच कार्यकारी प्रधानमंत्री गुस्सान हुत्तू ने स्वतंत्र कराए गए भागों में अपनी सरकार स्थापित करने में अपनी असफलता को लेकर त्यागपत्र दे दिया। दोनों के टकराव का लाभ अलबशर ने उठाया और बाजी पलट दी। मई और जून में उसने लेबनॉन और हमस के बीच अपनी ताकत मजबूत कर ली। अमरीका ने इन्हें बदनाम करने के लिए यह अफवाह फैला दी कि बशरूल असद के समर्थकों ने रासायनिक हथियारों का उपयोग शुरू कर दिया है। अमरीका ने यही दांव इराक में भी खेला था। उस समय उसने सद्दाम पर यह आरोप लगाया था। भूतकाल में जो गलती जॉर्ज बुश ने की थी, वही इस बार ओबामा ने दोहराई है। अमरीका जानता है कि सीरिया में सेना उतारना विएतनाम, अफगानिस्तान और इराक की हार जैसी हार की पुनरावृत्ति करना है। लेकिन ओबामा का यह कदम बशरूल असद की स्थिति को मजबूत करने वाला है। यह भी पाठकों को याद दिला दें कि सद्दाम पर हमला करने के समर्थन में 65 प्रतिशत अमरीकी थे, लेकिन सीरिया पर हमले के पक्ष में 35 प्रतिशत अमरीकी भी नहीं हैं। एक अन्य सर्वेक्षण में केवल 16 प्रतिशत अमरीकी ही इस बात के पक्षधर हैं कि बशरूल असद को सत्ता से हटा दिया जाना चाहिए।
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