|
16-17 जून को केदारनाथ घाटी में मंदाकिनी नदी में आये सैलाब ने हजारों जिंदगियों को अपनी आगोश में ले लिया। हजारों लोग भारतीय सेना, आईटीबीपी, स्वयंसेवी संस्थाओं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मदद से बचा लिये गए। लेकिन तबाही के ढाई-तीन महीने बीत जाने के बाद भी भारी संख्या में शवों का मिलना इस बात को जाहिर करता है कि तबाही के बाद प्रशासन और उत्तराखंड सरकार इस आपदा में अपने निकम्मेपन की सारी हदें पार कर गया। पिछले दिनों उत्तराखंड पुलिस उपमहानिरीक्षक गणेश सिंह अपने दल-बल के साथ केदारनाथ घाटी के जंगलों में गये, तब उन्हें जो मंजर दिखाई दिया वह दिल दहला देने वाला था। इस टीम को जंगलों में चारों तरफ लाशों के ढेर मिले। बताया गया कि ये वे लोग थे जो कि 16-17 जून को मंदाकिनी नदी में आये सैलाब से जान बचाने के लिए ऊपर जंगलों की तरफ चले गये और रास्ता भटकने के दौरान भूख-प्यास-सर्दी की वजह से मर गये। पुलिस सूत्रों के मुताबिक इन शवों के खुले में बरामद होना इस बात को जाहिर करता है कि ये लोग जलप्रलय-गाद-मलबे में दबकर नहीं मरे। जानकारी के मुताबिक इन शवों में कुछ कंकाल दशा में जरूर चले गये, जिन्हें संभवत: जंगली जानवरों ने अपना शिकार बना डाल।केदारनाथ तबाही में हजारों लोगों की जान क्या बचायी जा सकती थी? अब ये सवाल पूछा जा रहा है। आपदा के चार दिनों बाद तक केदारघाटी की तरफ प्रशासन की बेरूखी, पुलिस-राजस्वकर्मी अर्द्धसैनिक बलों को वहां भेजे जाने में सरकार की लापरवाही साफ तौर पर सामने आयी है। पुलिस अधीक्षक रुद्रप्रयाग अपने नौ कर्मचारियों की मौत की सूचना के बावजूद मौके पर नहीं गये।भारतीय सेना सूत्रों ने अपने बचाव अभियान में ही स्पष्ट कर दिया था कि उनका आपरेशन लोगों की जिंदगी बचाने का है न कि शवों को उठाने का। वैसे भी शवों को उठाने, पहचान करने, पंचनामा भरने या कहें डीएनए टेस्ट करने की जिम्मेदारी पुलिस और राजस्व कर्मियों की होती है। हमें एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने महत्वपूर्ण जानकारी दी कि केदार घाटी में राजस्व पटवारी पुलिस व्यवस्था है यानी वहां नागरिक पुलिस का राज नहीं है। ये व्यवस्था ब्रिटिश शासनकाल से उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों मेंअपराध संख्या नगन्य होने की वजह से लागू है। यहां पटवारी को पुलिस दरोगा की ताकत या हैसियत दी गयी है। पटवारी राज होने की वजह से पुलिस विभाग ने शवों को खोजने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। बाद में शासन स्तर पर हुई महत्वपूर्ण बैठक के बाद पहले डीआईजी संजय गुंजयाल और बाद में गणेश सिंह मर्तीलिया के नेतृत्व में शवों को खोजने और उनके अंतिम संस्कार करने का काम शुरू हो पाया। पांच से नौ सितम्बर तक ही 195 शवों को जंगलों से बरामद कर उनका अंतिम संस्कार किया गया। यह रपट लिखे जाने तक शवों का मिलना जारी है। यहां बताते चलें कि सरकार भी कह चुकी है कि करीब पांच हजार लोग आपदा के दिन से लापता हैं। यह वह संख्या है जो कि लापता लोगों के परिजनों की तरफ से दर्ज प्रथम सूचना रपट किए जाने पर सामने आयी है। खास बात यह है कि ऊखीमठ-रामबाड़ा आदि क्षेत्रों में यात्रा के अवसर पर काम करने वाले खच्चर और उनके मालिकों का कहीं पता नहीं है। यह संख्या करीब तीन हजार बतायी जा रही है। केदारनाथ मार्ग पर सैकड़ों साधुओं की मौजूदगी रहती है उनका अता-पता नहीं है। सैकड़ों की संख्या में नेपाली कुली माल ढुलाई का काम करते हैं वे कहां गये? सरकार खामोश है, नेपाल से मात्र नब्बे लोगों की सूची लापता व्यक्तियों की मिली है, जिनमें श्रद्धालुओं के नाम ज्यादा हैं। बड़ा सवाल यह है कि आखिर ये लोग कहां गए, गंगा में बह गए? सैलाब के मलबे में दब गये? या ये भी जंगलों में मौत की नींद सो गये?बहरहाल उत्तराखंड सरकार औरजिला रुद्रप्रयाग प्रशासन की कारगुजारियों से लोगों में गुस्सा है। बेशक केदारनाथ को श्मशान भूमि माना जाता है। लोग मानते हैं यहां प्राण त्यागने वाला तर जाता है। लेकिन यहां मरने वालों के परिवारजनों में ये कसक रह गई कि अगर वो अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार कर लेते तो उन्हें संतोष सा हो जाता। सरकारी महकमों की संवेदनहीन कार्यप्रणाली, लोगों में बहुगुणा सरकार के प्रति नाराजगी-गुस्से का कारण बनी। देश भर से लोगों ने अपनी नाराजगी भरी प्रतिक्रियाएं दी हैं। बहरहाल यह वक्त अब शोक करने का भी नहीं रह गया। उत्तराखंड पुलिस में कुछ ऐसे अधिकारी और कर्मी भी हैं जो केदारघाटी की कठिन परिस्थितियों में शवों की खोज करने और उनका अंतिम संस्कार करने का काम बेहद ही मेहनत से कर रहे हैं। उन्हें इस काम को और आगे करने के लिए हौंसला दिये जाने की भी जरूरत है।बिना श्रद्धालु ह्यसरकारी पूजाह्णकेदारनाथ मंदिर के कपाट 11 सितम्बर को शुद्धिकरण के साथ खोले गए और विधिवत पूजा की गई। यह पूजा भैया दूज तक जारी रहेगी। पुजारियों, नेताओं और पत्रकारों का दल हैलीकाप्टर से केदारनाथ गया। इस पूजा में केवल पुजारियों का एक दल वहां रहेगा, जिसकी हर दस दिन में अदला बदला होगी। यहां यह कहना जरूरी है कि सौ साल में पहली बार ऐसा होगा जब पंडों और श्रद्धालुओं के बिना पूजा होगी। केदारनाथ मंदिर के आसपास बेशक सफाई हो गयी है लेकिन कस्बे में गिरी इमारतों का मलबा अभी तक हटाया नहीं जा सका है। इस वजह से अभी सरकार ने वहां बाहरी लोगों के जाने पर पाबंदी लगायी हुई है। इस पूजा को इसीलिए ह्यसरकारी पूजाह्ण नाम दिया गया है। पुजारियों के बीच भी इस सरकारी पूजा का विरोध हो रहा है। सरकार दावा कर रही है कि सब कुछ ठीक हो गया है। लेकिन सच कुछ और ही है। लगातार बारिश से मलबे में दबे नरकंकाल बाहर आने लगे हैं। तीन दिन में 194 नरकंकाल मिले हैं। केदारघाटी के 22 गांवों में अभी तक कोई राहत नहीं पहुंची है। सच को छिपाने के लिए सरकार ने वहां अघोषित कर्फ्यू लगा रखा है। पूरा इलाका बन्द कर दिया गया है। वहां ले गए पत्रकारों पर भी नजर रखी गई, ताकि वे वहां किसी शव का फोटो न खींच लें। रुद्रप्रयाग के डीएम डी.जवाइकर ने कहा कि हमें सरकार से निर्देश मिले हैं कि किसी को भी सोनप्रयाग से आगे नहीं जाने दिया जाए। पुरोहित, लोग-केदारनाथ में श्रद्धालुओं की पाबंदी हटाने की मांग कर रहे हैं, जबकि सरकार को भय है कि कहीं शवों की खोज में उनके परिजन यहां न आ जाएं।भाजपा ने जताया विरोधकेदारनाथ में सरकार द्वारा घोषित पूजा पर उत्तराखंड भाजपा अध्यक्ष तीर्थ सिंह रावत, पूर्व मुख्यमंत्री डा.रमेश पोखरियाल, नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा है कि इस पूजा में जब श्रद्धालु नहीं तो उसका महत्व खत्म हो जाता है। भाजपा ने सरकार से लापता व मृतक व्यक्तियों पर श्वेत पत्र जारी करने और चारधाम यात्रा खोले जाने की मांग की है। उत्तराखंड से दिनेश
टिप्पणियाँ