भय से बड़ा कोई शत्रु नहीं
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भय से बड़ा कोई शत्रु नहीं

by
Sep 14, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 14 Sep 2013 15:36:52

जिस प्रकार भक्तियोगी प्रेम और भक्ति के द्वारा उस सर्वोपरि परम से पूूर्ण एकता की सिद्धि का अपना मार्ग ढूंढ निकालता है, उसी प्रकार ज्ञानयोगी विशुद्ध बुद्धि के द्वारा ईश्वर के साक्षात्कार का अपना मार्ग प्रशस्त करता है। उसे सभी पुरानी मूर्तियों को, सभी पुराने विश्वासों और अंधविश्वासों को और ऐहिक या पारलौकिक सभी कामनाओं को निकाल फेंकने के लिए तत्पर रहना चाहिए और केवल मोक्ष-लाभ के लिए कृतनिश्चय होना चाहिए। ज्ञान के बिना मोक्ष-लाभ नहीं हो सकता है। वह तो इस उपलब्धि में निहित है कि हम यथार्थत: क्या हैं और यह कि हम भय, जन्म तथा मृत्यु से परे हैं। आत्मा का साक्षात्कार ही सवोंर्त्तम श्रेयस है। वह इन्द्रियों और विचार से परे हैं।  वास्तविक ह्यमैंह्ण का तो ज्ञान नहीं हो सकता। वह तो नित्य ज्ञाता (विषयी) है और कभी भी ज्ञान का विषय नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान सापेक्ष का होता है, निरपेक्ष पूर्ण का नहीं। यह संसार एक सापेक्ष संसार है, यथार्थ सत्य की एक छाया या आभास मात्र है, तथापि चूंकि यह (संसार) संतुलन का ऐसा स्तर है कि जिस पर सुख-दु:ख प्राय: समान रूप से संतुलित हैं, इसलिए यही एक स्तर है जहां मनुष्य अपने यथार्थ स्वरूप का साक्षात्कर सकता है और जान सकता है कि वह ब्रह्म है।यह संसार प्रकृति का विकास और ईश्वर की अभिव्यक्ति है। वह माया का नाम-रूप के माध्यम से देखे हुए परमात्मा या ब्रह्म की हमारी व्याख्या है। संसार शून्य नहीं है, उसमें कुछ वास्तविकता है। संसार केवल इसीलिए प्रतीयमान होता है कि इसके पीछे ब्रह्म का ह्यअस्तित्वह्ण है।विज्ञाता को हम कैसे जान सकते हैं? वेदान्त कहता है, हम ह्यवहह्ण (विज्ञाता) हैं, किन्तु हम कभी उसे विषय के रूप में जान नहीं सकते, क्योंकि वह कभी ज्ञान का विषय नहीं हो सकता। फिर भी समय-समय पर हम उसकी झलक पा सकते हैं। संसार-भ्रम एक बार टूट जाने पर यह हमारे पास पुन: लौट आता है, किन्तु तब हमारे लिए उसमें कोई वास्तविकता नहीं रह जाती। हम उसे एक मृगतृष्णा के रूप में ही ग्रहण करते हैं। इस मृग तृष्णा के परे पहुंचना ही सभी धमोंर् का लक्ष्य है। वेदों ने निरन्तर यही उपदेश दिया है कि मनुष्य और ईश्वर एक है, किन्तु बहुत कम लोग इस पर्दे (माया) के पीछे प्रवेश कर पाते और परम सत्य की उपलब्धि कर          पाते हैं।जो ज्ञानी बनना चाहे, उसे सर्वप्रथम भय से मुक्त होना चाहिए। भय हमारे सबसे बुरे शत्रुओं में से एक है। इसके बाद, जब तक किसी बात को ह्यजान न लोह्ण उस पर विश्वास न करो। अपने से निरन्तर कहते रहो, ह्यमैं शरीर नहीं हूं, मैं मन नहीं हूं, मैं विचार नहीं हूं, मैं चेतना भी नहीं हूं, मैं आत्मा हूं।ह्ण जब तुम सब छोड़ दोगे तब यथार्थ आत्म-तत्व रह जाएगा। ज्ञानी का ध्यान दो प्रकार का होता है: (1) हर ऐसी वस्तु से विचार हटाना और उसको अस्वीकार करना जो हम ह्यनहीं हैह्ण (2) केवल उसी पर दृढ़ रहना जो कि वास्तव में हम ह्यहैंह्ण और वह है आत्मा-केवल एक सच्चिदानन्द परमात्मा। सच्चे विवेकी को आगे बढ़ना चाहिए और अपने विवेकी की सुदूरतम सीमाओं तक निर्भयतापूर्वक उसका अनुसरण करना चाहिए। मार्ग में कहीं रूक जाने से काम नहीं बनेगा। जब हम अस्वीकार करना प्रारम्भ करें तो, जब तक हम उस विषय पर न पहुंच जाएं। जिसे अस्वीकार  किया या हटाया नहीं जा सकता। जो कि यथार्थ ह्यमैंह्ण है, शेष सब हटा ही देना चाहिए। वही ह्यमैंह्ण विश्व का द्रष्टा है, वह अपरिवर्तनशील, शाश्वत और असीम है। अभी अज्ञान के परत पर चढ़े परत ही उसे हमारी दृष्टि से ओझल कि ए हुए है, पर वह सदैव वही रहता है।एक वृक्ष पर दो पक्षी बैठे थे। शिखर पर बैठा हुआ पक्षी शान्त, महिमान्वित, सुन्दर और पूर्ण था। नीचे बैठा हुआ पक्षी बार-बार एक टहनी से दूसरी पर फुदक रहा था और कभी मधुर फल खाकर प्रसन्न तथा कभी कड़वे फल खाकर दु:खी होता था। एक दिन उसने जब सामान्य से अधिक कटु फल खाया तो उसने ऊपर वाले शान्त तथा महिमान्वित पक्षी की ओर देखा और सोचा, ह्यउसके सदृश हो जाऊं तो कितना अच्छा होह्ण! और वह उसकी ओर फुदक कर थोड़ा बढ़ा भी। जल्दी ही वह ऊपर के पक्षी के सदृश होने की अपनी इच्छा को भूल गया और पूर्वत मधुर या कटु फल खाता एवं सुखी तथा दु:खी होता रहा। उसने फिर ऊपर की ओर दृष्टि डाली और फिर शान्त तथा महिमान्वित पक्षी के कुछ निकटतर पहुंचा। अनेक बार इसकी आवृत्ति हुई और अन्तत: वह ऊपर के पक्षी के बहुत समीप पहुंच गया। उसके पंखों की चमक से वह (नीचे का पक्षी) चौंधिया गया और वह उसे आत्मसात करता सा जान पड़ा। अन्त में उसे यह देखकर बड़ा विस्मय और आश्चर्य हुआ कि वहां तो केवल एक ही पक्षी है और वह स्वयं सदैव ऊपर वाला ही पक्षी था। पर इस तथ्य को वह केवल अपनी सर्वश्रेष्ठ कल्पना के अनुसार किसी सर्वोच्च आदर्श तक पहुंचने के प्रयत्न में निरन्तर लगा रहे तो वह भी इस निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि वह सदैव आत्मा ही था, अन्य सब मिथ्या या स्वप्न। भौतिक तत्व और उसकी सत्यता में विश्वास से अपने को पूर्णतया पृतक करना ही यथार्थ ज्ञान है। ज्ञानी को अपने मन में निरन्तर रखना चाहिए-  ह्यऊँ  तत् सत्, अर्थात् ऊँ  ही एकमात्र वास्तविक सत्ता है। तात्विक एकता ज्ञानयोग की नींव है। उसे ही अद्वैतवाद (द्वैत से रहित) कहते हैं। वेदान्त दर्शन की यह आधारशिला है, उसका आदि और अन्त। ह्यकेवलह्ण ब्रह्म ही सत्य है, शेष सब मिथ्या और मैं ब्रह्म हूं। जब तक हम उसे अपने अस्तित्व का एक अंश न बना लें, तब तक अपने से केवल यही कहते रहने से हम समस्त द्वैत भाव से शुभ तथा अशुभ से, सुख और दु:ख से, कष्ट और आनन्द दोनों ही से, ऊपर उठ सकते हैं। और अपने को शाश्वत, अपरिवर्तनशील, असीम, ह्यएक अद्वितीयह्ण ब्रह्म के रूप में जान सकते हैं।ज्ञानयोगी को अवश्य ही उतना प्रखर अवश्य होना चाहिए, जितना कि संकीर्णतम संप्रदायवादी किन्तु उतना ही विस्तीर्ण भी जितना कि आकाश। उसे अपने मन पर पूर्ण नियत्रंण रखना चाहिए, बौद्ध या ईसाई होने का सामर्थ्य रखना चाहिए तथा अपने को इन विभिन्न विचारों में सचेतन रूप से विभक्त करते हुए चिरंतन सामंजस्य में दृढ़ रहना चाहिए। सतत अभ्यास ही हमें ऐसा नियंत्रण प्राप्त करने का सामर्थ्य दे सकता है। सभी विविधताएं उसी एक में है, किन्तु हमें यह सीखना चाहिए कि जो कुछ हम करें उससे अपना तादात्म्य न करे दें, और जो अपने हाथ में हो, उसके अतिरिक्त, अन्य कुछ न देखें, न सुनें और न उसके विषय में बात करें। हमें अपने पूरे जी-जान से जुट जाना और प्रखर बनना चाहिए। दिन-रात अपने से यही कहते रहो-सोहं सोहं!  

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