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ईसवी सन् 2013 में 20 सितम्बर से 4 अक्तूबर तक श्राद्ध का पक्ष है। आषाढ़ी पूर्णिमा से पांचवे पक्ष में जब सूर्य कन्या राशि पर स्थिर हो, तब जो मनुष्य एक दिन भी श्राद्ध करता है, उसके पितर निश्चित रूप से वर्ष भर संतृप्त रहते हैं।हिन्दू संस्कृति में श्राद्ध न करना एक बुरी बात समझी गयी है। जहां श्राद्ध नहीं होता, वहां न तो वीर पुरुष उत्पन्न होते हैं और न निरोग होते हैं और शतायु ही होते हैं । वे कल्याण की प्राप्ति भी नहीं करते हैं। मृत पूर्वजों का श्राद्ध करने के लिए वर्ष में दो दिन निर्धारित हैं। प्रथम मृत्यु-तिथि पर और दूसरे श्राद्ध के दिनों में उसी तिथि पर, जिस दिन मृत्यु हुई। यदि किसी की मृत्यु विदेश में हो जाए और मृत्यु की निश्चित तिथि ज्ञात न हो तो उसके लिए उसी माह अमावस्या को श्राद्ध करने की व्यवस्था है। श्राद्ध के लिए अमावस्या का विशेष महत्व माना गया है। श्राद्ध के दिनों में भी सभी भूले-बिसरे पितरों के लिए या जिनकी निश्चित मृत्यु-तिथि ज्ञात न हो, उनके लिए अमावस्या को ही श्राद्ध करने की व्यवस्था प्राचीन ग्रन्थों में दी गई है। कारण यह बताया गया है कि इस दिन पितृलोक हमारे काफी निकट रहता है। श्राद्ध के निश्चित दिन यदि कोई विघ्न उपस्थित हो जाए और उसकी वजह से श्राद्ध न किया जा सके तो उसके लिए एकादशी (श्राद्ध के दिनों में) को श्राद्ध किए जाने की भी व्यवस्था है।श्राद्ध तीन पीढि़यों तक सभी पितरों के लिए, किए जाने का विधान है। पितरों के अतिरिक्त गुरु, शिष्य, मित्र या अन्य किसी भी परिचित व्यक्ति का श्राद्ध किया जा सकता है। श्राद्ध करने का प्रथम अधिकार पुत्र या अन्य निकट के पुरुष परिजन को है। उसकी अनुपस्थिति में महिलाएं भी श्राद्ध-कार्य करने की अधिकारी हैं।श्राद्ध-कार्य में मुख्य बात है अपने पितरों का नाम लेकर उन्हें तिलांजलि देना। इसमें श्राद्ध करने वाले व्यक्ति से यह अपेक्षा की गयी है कि वह श्वेत वस्त्र धारण करके अपने हाथ में जल, तिल और फूल लेकर पितरों के लिए अंजलि दे। यह भी व्यवस्था है कि इस दिन उपयुक्त पात्रों को दान दिया जाए तथा उन्हें भोजन करवाया जाए। श्राद्ध कर्म के लिए केवल ऐसे ब्राह्मण को आमंत्रित करने की बात कही गई है, जो विद्वान, वेदों का ज्ञाता, तपोनिष्ठ, ईमानदार और निर्लोभी हो।श्राद्ध के साथ जुड़ी हुई मुख्य बात श्रद्धा और तदनुरूप भावना की है। शेष सब बातें गौण हैं। इसीलिए यह अपेक्षा की गई है कि श्राद्ध करने वाला व्यक्ति इस दिन न तो क्रोध करेगा, न अनावश्यक इधर-उधर जाएगा और न अन्य कोई अनुचित कार्य करेगा। श्राद्ध-कर्म में जो धन व्यय किया जाए, वह भी परिश्रम और ईमानदारी से कमाया हुआ होना आवश्यक है।भारतीय दर्शन के अनुसार मृत्यु के उपरान्त मनुष्य का स्थूल शरीर तो यहां पड़ा रह जाता है और सूक्ष्म शरीर अपने कार्यों के अनुसार फल भोगने के लिए परलोक में चला जाता है। इस सूक्ष्म शरीर की तृप्ति के लिए ही श्राद्ध की व्यवस्था है। श्राद्ध पितरों के प्रति हमारी श्रद्धा के प्रतीक हैं और इस रूप में यह कार्य हमें अवश्य करना चाहिए। प्रो. योगेश चन्द्र शर्मासबका भाग, सबका भोगश्राद्घ के दिनों में एक सनातनधर्मी अपने पितरों के साथ-साथ चीटियों को चीनी देता है,पक्षियों के सामने दाना-पानी रखता है,गाय के लिए गो ग्रास निकालता है,अन्य जीव-जन्तुओं,पेड़-पौधों,आकाश-पहाड़,जल-थल सबकी पूजा करता है। कुछ लोग पशु-पक्षियों की सेवा करते हैं। हालांकि चीटियों को चीनी देना या पक्षियों को दाना-पानी देना तो आम बात है। एक परोपकारी और धार्मिक व्यक्ति तो यह सब दिन करता है। शास्त्रों के अनुसार कोई सनातन-धर्मी यह सब इसलिए करता है कि वह यह मानता है कि न जाने उनके पूर्वज किस रूप में इस धरती पर आए हों।
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