|
गणेश चतुर्थी पर विशेष
राजस्थान के रणथम्भोर के गणेशजी तो ऋद्धि-सिद्धि और भण्डार को भरने वाले विघ्न हरण मंगलकरण देवता हैं। लोक आस्था खासकर राजपूताना की रियासती मीणा, जाट, गुर्जर, अहीर जाति के लोगों में इन गणेशजी के प्रति अटूट श्रद्धा है। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के अवसर पर दिल्ली-मुम्बई रेलवे लाइन पर स्थित सवाई माधोपुर जंक्शन के पास दुर्ग रणथम्भोर में स्थित गणेश मंदिर पर विशाल मेला लगता है। मेले में रंग-विरंगे परिधानों से सजे-धजे ग्रामीणों की उमंग तथा श्रद्धा और लोक भजनों की स्वर लहरी आध्यात्मिक चेतना की एक नई लहर उत्पन्न कर देती है। पढ़े-लिखे ही नहीं ठेठ ग्रामीण अंचल का अंगूठा छाप देहाती जीव भी ठप्पे से कनक दण्डवत करता अथवा परिक्रमा करता हुआ 'रणभवर सूं आओ जी गजंनद जी' की टेर लगाता है।
मेला के दिनों में पूरा दुर्ग क्षेत्र हरियाली से आच्छादित पर्वत श्रेणियों का अजीब-सा नयन रंजक दृश्य प्रस्तुत करता है। दुर्ग के वीरान खंडहर भजनानंद लोगों के सान्निध्य में जीवंत और आबाद हो उठते हैं। मीलों दूर तक रंग-बिरंगी चलती-फिरती इन्द्रधनुषी आभा देखने को मिलती है।
रणथम्भोर के गणेश जी का दुर्ग पर अवस्थित यह विग्रह चौहान कालीन, ऐतिहासिक गरिमा युक्त विग्रह है। हिन्दू कुल तिलक 'तिरिया तेल हमीर हठ चढ़े न दुजी बार' वाली कहावत के नायक महाराजा हम्मीर इन गणेश जी का प्रथम पूजन करते हैं। जन श्रुतियों के आधार पर कई ऐतिहासिक कथाओं में यह तथ्य भी मिलता है कि महाराजा हम्मार की महारानी और पुत्र भी इनका प्रथम पूजन विधि-विधान से करके ही शेष काम करते थे।
इस मूर्ति के प्राकृट्य को लेकर भी कई लोक कथायें प्रचलित हैं। कहा जाता है कि जब यह मूर्ति एक शिला खण्ड से स्वयं प्रकट हो रही थी तब किसी महिला ने चक्की चलाकर अनाज पीसना शुरू कर दिया। गणेशजी चक्की की स्वर लहरी पर मुग्ध होकर वहीं ठिठक कर रुक गये। तब से यह प्रतिमा उसी अर्द्ध विकसित स्थिति में पूज्य है। वैसे यह त्रिनेत्र धारी गणेश प्रतिमा पर्वत में ही लटके एक बहुत भारी शिलाखण्ड में ही प्राकृतिक रूप से बनी हुई है। उसी के आगे कालान्तर में मंदिर का निर्माण किया गया है।
वैसे तो रणथम्भोर दुर्ग अपने आप में ऐतिहासिक महत्व रखता है। यहां पर बांदा परियोजना का राष्ट्रीय उद्यान है। प्राकृतिक सौन्दर्य लुटाता वैभव है तथा लाखों श्रद्धालु भक्त तो रणथम्भोर गणेश जी को ही ध्यावे, विवाह के अवसर पर सपरिवार न्योतने के लिए आते हैं। वैवाहिक निमंत्रण पत्रों का तो यहां देश-विदेश तक से तांता लगा रहता है। भावुक भक्त गणेशजी को विवाह में आमंत्रित करते हैं। पुजारी नित्य इन सभी निमंत्रण पत्रों को गणेशजी को सुनाता है। भक्तों की आस्था देखिये कई तो ऋद्धि-सिद्धि सहित गणेश जी को विवाह में बुलाने के लिए किराया तक भेजते हैं। वे मानते हैं कि प्रथम निमंत्रण गणेशजी को देकर सारा काम विघ्नहारी से सफलता से पूरा करवा लेंगे। भेंट-पूजा भी काफी चढ़ती है। यदि यह मंदिर नहीं होता तो रणथम्भोर का दुर्ग अपनी ऐतिहासिक गरिमा को उभारने में शायद ही सफल होता। श्रद्धालुजन अनेक तरह की यात्रागत परेशानियों को सह कर भी अपनी अटूट श्रद्धा और विश्वास व्यक्त करने यहां आते हैं।
परिक्रमा का हिस्सा विभिन्न धर्मावलंबियों के मंदिरों, देवरों, मस्जिदों से भरा पड़ा है। जिनमें दिगम्बर जैन मंदिर, रघुनाथ जी, शिव, कालीमाता तथा पीर जी का दरवाजा मुख्य हैं। विविधता में एकता का पोषक हिन्दू धर्मावलंबी सभी धर्मस्थलों पर अपनी श्रद्धा के अनुरूप पूजा-पाठ करता हुआ परिक्रमा पूर्ण करता है।
यहां अपार श्रद्धालु पहुंचते हैं। घंटों पंक्ति में खड़े रहने के बाद ही भक्त गणेश जी के दर्शन कर पाते हैं। रणथम्भोर के गणेश जी के प्रति भक्तों की श्रद्धा को बताया है। ल्ल विवेक त्रिवेदी
स्वास्थ्य चर्चा
सूर्य मुद्रा से मोटापा कम होता है
सूर्य-मुद्रा
विधि-अनामिका अँगुली को अँगूठे के मूल पर लगाकर अँगूठे से दबायें।
लाभ-शरीर संतुलित होता है, वजन घटता है, मोटापा कम होता है। शरीर में उष्णता की वृद्धि, तनाव में कमी, शक्ति का विकास, खून का कोलस्ट्रॉल कम होता है। यह मुद्रा मधुमेह, यकृत् (जिगर) के दोषों को दूर करती है।
सावधानी- दुर्बल व्यक्ति इसे न करें। गर्मी में ज्यादा समय तक न करें।
वरुण-मुद्रा
विधि-कनिष्ठा अँगुली को अँगूठे से मिलाकर मिलायें।
लाभ-यह मुद्रा शरीर में रूखापन नष्ट करके चिकनाई बढ़ाती है, चमड़ी चमकीली तथा मुलायम बनाती है। चर्म-रोग, रक्त-विकार एवं जल-तत्व की कमी से उत्पन्न व्याधियों को दूर करती है। मुँहासों को नष्ट करती और चेहरे को सुन्दर बनाती है।
सावधानी-कफ-प्रकृतिवाले इस मुद्रा का प्रयोग अधिक न करें।
अपान-मुद्रा
विधि-मध्यमा तथा अनामिका अँगुलियों को अँगूठे के अग्रभाग से लगा दें।
लाभ-शरीर और नाड़ी की शुद्धि तथा कब्ज दूर होता है। मल-दोष नष्ट होते हैं, बवासीर दूर होता है। वायु-विकार, मधुमेह, मूत्रावरोध, गुर्दों के दोष, दाँतों के दोष दूर होते हैं। पेट के लिये उपयोगी है, हृदय-रोग में फायदा होता है तथा यह पसीना लाती है।
सावधानी-इस मुद्रा से मूत्र अधिक होगा।
अपान वायु या हृदय-रोग-मुद्रा
विधि-तर्जनी अँगुली को अँगूठे के मूल में लगायें तथा मध्यमा और अनामिका अँगुलियों को अँगूठे के अग्रभाग से लगा दें।
लाभ-जिनका दिल कमजोर है, उन्हें इसे प्रतिदिन करना चाहिये। दिल का दौरा पड़ते ही यह मुद्रा कराने पर आराम होता है। पेट में गैस होने पर यह उसे निकाल देती है।
सावधानी-हृदय का दौरा आते ही इस मुद्रा का आकस्मिक तौर पर उपयोग करें।
टिप्पणियाँ