‘मेरे राजनीतिक अनुभवों से मेरी फिल्मों का कोई ताल्लुक नहीं’
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‘मेरे राजनीतिक अनुभवों से मेरी फिल्मों का कोई ताल्लुक नहीं’

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Sep 7, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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राजनीतिक विद्रूपता पर चोट करती है ‘सत्याग्रह’

दिंनाक: 07 Sep 2013 14:39:57

 

प्रकाश झा की सत्याग्रह एक राजनीतिक फिल्म है। अन्ना आंदोलन और उससे उपजे कई सवाल इस फिल्म की पृष्ठभूमि में हैं। हालांकि झा ने शुरू से इंकार किया है कि फिल्म उस आंदोलन से कोई ताल्लुक रखती है। अंबिकापुर के अवकाश प्राप्त स्कूल प्रिंसिपल द्वारका आनंद (अमिताभ बच्चन) और टेलीकॉम उद्योगपति से जनता का सेवक बने मानव राघवेन्द्र (अजय देवगन) सामयिक, सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे उठाने वाली इस फिल्म के मुख्य किरदार हैं। अपने समकालीन और मौजूदा फिल्मकारों के मुकाबले राजनीति की बेहतर समझ रखने वाले प्रकाश झा ने फिल्म की पटकथा को कई वास्तविक घटनाओं जैसे टूजी स्कैम, खनन घोटाला, गठजोड़ की राजनीति के खतरे, दलालों और मंत्रियों के बीच की डील, भ्र्रष्टाचार के खिलाफ लोगों के गुस्से, खराब सरकार के खतरे और इन सबसे लड़ने के लिए  एक हथियार के तौर पर सोशल मीडिया की संभावनाओं के इर्द-गिर्द समेटा है।
कमोबेश वे अपने इस प्रयास में सफल रहे हैं।  फिल्म सभी सही मुद्दे उठाती है और यह भी बताती है कि भ्र्रष्ट और लगभग सड़ चुकी व्यवस्था के खिलाफ अब जनता को अपने गुस्से का इजहार सिर्फ आपसी बहसों के जरिए नहीं, बल्कि सड़क पर उतर कर करना होगा। फिल्म की कुछ समस्याएं (उदाहरण के लिए, कुछ चरित्रों के भाषणनुमा लंबे संवाद जहां वे आपस में संवाद करते नहीं बल्कि भाषण देते से लगते हैं।) भी हैं, लेकिन वे इस फिल्म के बड़े संदेश के पीछे छुप जाते हैं।
अभिनय की दृष्टि से अमिताभ बच्चन कई जगहों पर लाजवाब हैं। खासकर अपने पुत्र की मृत्यु के बाद, बिना किसी संवाद के भी उनका भावप्रवण अभिनय फिल्म के दूसरे लंबे संवादों पर भारी पड़ता है।  अंबिकापुर के एमएलए और राज्य के गृह मंत्री बलराम सिंह की भूमिका में मनोज बाजपेयी अपनी भूमिका की सीमाओं के बावजूद प्रभावी हैं। अजय देवगन और एक टीवी पत्रकार के तौर पर करीना कपूर अपनी सीमाओं  के साथ प्रभावी हैं।
हिन्दी सिनेमा को राजनीतिक फिल्मों से क्यों है परहेज?
हिन्दी सिनेमा में राजनीतिक फिल्मों का झंडा पिछले कुछ समय से अकेले फिल्मकार प्रकाश झा ने उठाया हुआ है। राजनीति के बाद आरक्षण और अब सत्याग्रह जैसी फिल्मों के साथ झा ने राजनीतिक फिल्मों की उस धारा को एक अच्छा अवसर उपलब्ध कराया है जो हिन्दी सिनेमा में लगभग नगण्य रहा है। लेकिन झा की नजर में  भारत में राजनीतिक फिल्में बनाना आसान नहीं है और ऐसे में अगर वे लगातार ऐसी सफल कोशिशें कर रहे हैं तो इसे बड़ी उपलब्धि मानना चाहिए।
संयोग ही है कि सत्याग्रह के पहले  सुजीत सरकार ने अपनी ‘पालिटिकल थ्रिलर’ मद्रास कैफे  बनाकर यह दिखा दिया कि अगर फिल्म अच्छी हो तो भले ही वह किसी भी विषय पर हो, चलती है। राजीव गांधी हत्या और उसके पीछे के षड्यंत्रों की पृष्ठभूमि वाली इस फिल्म के विषय को लेकर ज्यादातर प्रोड्यूसरों ने रुचि नहीं दिखाई। अंतत: जॉन अब्राहम तैयार हुए जो इसके प्रोड्यूसर भी हैं।
सुजीत सरकार कहते हैं कि मद्रास कैफे जैसी पालिटिकल फिल्म या पालिटिकल थ्रिलर बनाना काफी चुनौतियों भरा काम है। शायद इसकी वजह हमारे देश की विविधता वाली पृष्ठभूमि है। दर्शक ऐसी फिल्मों के लिए अभी पूरी तरह से तैयार नहीं हैं और इसमें अभी वक्त लगेगा।  उनकी योजना एक और राजनीतिक फिल्म बनाने की है जिसकी कहानी आजादी के पहले की घटनाओं से जुड़ी है। यह पूरी तरह राजनीतिक फिल्म होगी जिसमें वे अमिताभ बच्चन को लेना चाहते हैं।
राजनीतिक विरोध?
भारत में राजनीतिक फिल्मों को बनाने के पीछे के संकोच या डर के पीछे की एक बड़ी वजह ऐसी फिल्मों को लेकर राजनीतिक पार्टियों या संगठनों का विरोध रहा है। प्रकाश झा की ही आरक्षण को लेकर विरोध ने ऐसा जोर पकड़ा कि उत्तरप्रदेश, पंजाब, आंध्रप्रदेश जैसे राज्यों में इस फिल्म के प्रदर्शन पर राज्य सरकारों ने प्रतिबंध तक लगा दिया। सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ही यह फिल्म चल पाई थी।
ऐसे दौर में जहां किसी फिल्म की शुरुआती तीन दिन की कमाई ही सबसे महत्वपूर्ण होती है, ऐसे विरोधों को व्यापार के लिहाज से खतरनाक माना जाता है। यही कारण है कि सत्याग्रह के रिलीज होने के पहले झा लगातार मीडिया में यह बयान देते रहे कि इस फिल्म का अन्ना आंदोलन से कोई लेना देना नहीं है या यह फिल्म अन्ना से प्रेरित नहीं है।
हमारे यहां  राजनीतिक फिल्मों के रिलीज पर सेंसरशिप का भी इतिहास रहा है। इंदिरा गांधी के चरित्र से प्रेरित फिल्मकार गुलजार और लेखक कमलेश्वर की आंधी पर आपातकाल के दौरान प्रतिबंध लगा दिया गया तो सांसद अमृत नाहटा की किस्सा कुर्सी का पर,  जो कि इंदिरा गांधी और संजय गांधी की राजनीति पर एक व्यंग्यात्मक फिल्म थी, इमरजेन्सी के दौरान प्रतिबंध लगाया गया। इसके मूल प्रिंट तक जला दिए गए।
कई ऐसी फिल्में आज भी अधर में हैं जो महत्वपूर्ण राजनीतिक चरित्रों पर आधारित हैं। जगमोहन मुंदड़ा अपने जीते जी सोनिया गांधी पर सोनिया नाम की फिल्म बनाने के अपने सपने को पूरा नहीं कर पाए। इतालवी अभिनेत्री मोनिका बलूची को सोनिया गांधी की भूमिका में लेने की मीडिया घोषणाओं और इन दावों के बावजूद कि सोनिया गांधी को इस फिल्म को लेकर कोई समस्या नहीं है, फिल्म आगे नहीं बढ़ पाई। बंगलादेश निर्माण की पृष्ठभूमि में इंदिरा गांधी   के राजनीतिक जीवन पर आधारित फिल्म बर्थ अफ ए नेशन नाम की एक फिल्म को अस्ट्रेलियाई निर्देशक बेरेसफोर्ड बनाने वाले थे। फिल्म के निर्माता अमरीका में रहने वाले भारतीय मूल के कृष्णा शाह थे। लेकिन फिल्म घोषणाओं से आगे बढ़ नहीं पाई। पिछले हफ्ते गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर 50 करोड़ रुपये की लागत से एक अनिवासी भारतीय फिल्मकार मितेश पटेल ने फिल्म बनाने की घोषणा की है जिसमें परेश रावल के मोदी की भूमिका निभाने की चर्चा है। देखना यह होगा कि यह फिल्म किस स्तर तक आगे बढ पाती है। अमिताभ पाराशर

इन दिनों बॉलीवुड में प्रकाश झा ही शायद एक ऐसे फिल्मकार हैं, जो राजनीति पर केन्द्रित फिल्में बनाते हैं। कुछ वर्ष पहले प्रकाश झा ने लोकसभा का चुनाव भी लड़ा था, किन्तु वे असल की राजनीति में टिक नहीं पाए थे। यहां प्रस्तुत हैं उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश-

एक सोच यह है कि चंूकि फिल्म इंडस्ट्री में राजनीतिक सोच वाले फिल्मकार कम हैं, इसलिए राजनीतिक फिल्में कम बनती हैं। आपकी क्या राय है?
शायद यह कुछ हद तक सच है। लेकिन ऐसी फिल्मों के कम या न बनने के और भी कारण हैं। फिल्में सिर्फ अपने लिए नहीं बना सकते। उन्हें दर्शक चाहिए। बड़े बजट की फिल्मों को बड़ा दर्शक समुदाय चाहिए ताकि पैसे वापस आएं। ऐसी फिल्मों के लिए यह जरूरी है कि वे लोगों को थियेटरों तक खींच सकें। लेकिन एक बड़ी वजह यह भी है कि राजनीतिक संगठन और दल ऐसी फिल्मों के प्रति ज्यादा ही संवेदनशील हैं। मैंने भी अपनी कुछ फिल्मों को लेकर उनका विरोध   झेला है।
  ‘राजनीति’ आपकी सफल फिल्मों में से है। ‘सत्याग्रह’ भी

राजनीतिक धारा की आपकी फिल्मों की अगली कड़ी है। राजनीति में अपने अनुभवों और निराशाओं का कितना इस्तेमाल हो रहा है आपकी कहानियों में?
मैंने देश के मौजूदा सिस्टम में बेहतर बदलाव लाने के मकसद से राजनीति में आने का फैसला लिया था। चुनावी राजनीति में मैं असफल रहा। लेकिन उसके पहले से भी मैं राजनीतिक दृष्टि से सजग रहा हूं और आज भी हूं। इसलिए मेरे अपने खट्टे-मीठे राजनीतिक अनुभवों से मेरी फिल्मों की कहानियों का कोई सीधा ताल्लुक नहीं है।
सत्याग्रह के प्रति दर्शकों की प्रतिक्रिया कैसी लग रही है?
मैं काफी खुश हूं। पहले सप्ताहांत में इस फिल्म ने भारत में करीब 50 करोड़ रुपये से अधिक की कमाई की जो मेरे हिसाब से काफी अच्छा आंकड़ा है। इस तरह की सफलता से एक बात साफ होती है कि दर्शक हर तरह की फिल्में पसंद करने लगे हैं अगर वे अच्छी फिल्में हों तो।
आगे की क्या योजना है?
हम राजनीति-2 की योजना बना रहे हैं। सत्याग्रह के आगे  भी एक फिल्म बनाने की  योजना है।

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