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सम्पादकीय: रिझाने की डुग्गी, डुबाने का खेल

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Aug 30, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 30 Aug 2013 15:45:57

 हर चेहरे पर लाली हो, जेब में हजार का नोट हो, घर में फर्श पर ईरानी कालीन हो, छत में बेल्जियन ग्लास के झाड़-फानूस लटके हों, कितना सुंदर कायाकल्प होगा! है ना!  दरअसल, खाद्य सुरक्षा योजना को सच के दर्पण में पढ़ने के लिए आनंद का अतिरेक जगाते शब्दों की ऐसी झूठी चमक पैदा करना जरूरी हो जाता है। उपरोक्त  कल्पना का झूठ ही इस योजना का सच है।
सोना बेचकर रोटी का जुगाड़ किस समृद्घि का संकेत है!! दिन-महीने नहीं, हर घंटे रसातल में जाते रुपए को थामने में लाचार सरकार जब भविष्य के सुनहरे सपने दिखाए तो चेत जाना चाहिए।  योजना और चुनावी पैंतरे का फर्क समझना हो तो यह जानना जरूरी है कि खाद्य सुरक्षा की जो सपनीली गाजर जनता के सामने लटकाई गई है उसके लिए पैसा कहां से आएगा यह खुद यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी संसद को बता नहीं पाईं।
 कहते हैं, स्मृति ठीक रहे तो फैसले आसान हो जाते हैं। याद कीजिए वर्ष 2009, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के दोबारा आने के बाद राष्ट्रपति का पहला संसदीय संबोधन। 100 दिनों के भीतर उठाए जाने वाले कदमों में खाद्य सुरक्षा विधेयक का भी जिक्र था। इस पूरे कार्यकाल, भ्रष्टाचार की अकथ कथाएं कहने के बाद चलाचली की बेला में थाली में रोटी चमकाना बताता है कि  चुनाव से महज 8 माह पहले जनता के सामने टुकड़े फेंकने का बेशर्म खेल शुरू हो गया है।
वैसे, छत्तीसगढ़, पंजाब और दक्षिण के कुछ राज्य वास्तव में पहले ही इस योजना से आगे बढ़कर काम कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ में जहां कानून बनाकर सूबे की 90 प्रतिशत जनसंख्या को सस्ते अनाज की राहत दी गई है वहीं पंजाब में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत दालें भी बांटी जाती हैं जोकि गरीब आबादी के लिए प्रोटीन का सहज और सबसे बड़ा स्रोत हैं। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि जो चावल इस योजना के तहत तीन रुपए किलो मिलना है वही चावल दक्षिण के कुछ राज्यों में पहले से एक-दो रुपए के भाव बंट रहा है! गेंहू, चावल के अतिरिक्त मोटा अनाज क्या होगा, कितना मिलेगा और क्या गारंटी की चावल के बजाय बाजरा नहीं थमा दिया जाएगा ऐसे असहज करने वाले मौलिक सवालों पर बोलने को केंद्र सरकार तैयार नहीं है।
 इस योजना की राह में पैसे के बाद दूसरी सबसे बड़ी बाधा है सार्वजनिक वितरण व्यवस्था में पैठा भ्रष्टाचार। घपलेबाजी की पर्याय कांग्रेस जनता के हक पर सेंधमारी को बढ़ाएगी या रोकेगी यह सोचने वाली बात है। नीयत पर सवाल अच्छी बात नहीं मगर कांग्रेस के मामले में यह जरूरी हो गया है। संसद में सोनिया गांधी का वक्तव्य था, ह्यखेती और किसान हमारी नीतियों के प्रमुख अंग हैं और हमने उनकी जरूरतों को हमेशा सबसे ऊपर रखा है।ह्ण विडंबना देखिए, अगले ही दिन गांधी परिवार के दागी दामाद को हरियाणा के मुख्यमंत्री द्वारा ह्यकिसानह्ण होने का प्रमाणपत्र दे दिया जाता है। किसानों की आड़ में राबर्ट वाड्रा जैसों के काले कारनामों को उजला बनाने वाले वास्तव में कृषकों की कितनी परवाह करते हैं यह भी जान लीजिए। यूपीए  सरकार से जुड़ा डरावना तथ्य है कि सिर्फ वर्ष 2009 में 17,368 किसानों ने अंधकारमय परिस्थियों के चलते आत्महत्या कर ली थी।
 वैसे भी, इस योजना के संदर्भ में कृषक हितों की चिंता बेमानी नहीं है क्योंकि सरकारी दाम पर, भले ही सड़ने के लिए, उपज उन्ही से खरीदी जानी है। असल में देशभर का पेट भरने और सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले इस क्षेत्र पर अब तक सबसे ज्यादा अत्याचार हुआ है। सोने सी फसल जब न्यूनतम समर्थन मूल्य के तराजू पर मिट्टी सी तुलती है तो किसान का दिल कैसा रोता है यह योजनाकार नहीं समझ सकते। ना ही योजनाकारों के पास इस बात का जवाब है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य का कोड़ा किसानों के ह्यउत्पादह्ण पर ही क्यों फटकारा जाता है?
जो सरकार रुपए के स्तर पर कुछ कहने की हालत में नहीं है, सुरसा की तरह बढ़ती महंगाई का जिक्र करने में जिसकी जीभ तालू से जा चिपकती है, शीर्ष परिवार का भ्रष्टाचार जिसके गले में पत्थर की तरह बंधा है, उस सरकार को खाद्य सुरक्षा बिल जैसा छद्मावरण बचा लेगा यह सोचना भी जाग्रत, आक्रोशित जनता से विश्वासघात लगता है। वैसे मराठी की एक कहावत है, ज्याच मनी कपट, त्याच होते तलपट यानी जिसके मन में कपट होता है उसका काम चौपट हो जाता है। देखिए, किस मंशा से फेंके दाने इस सरकार को कहां ले जाएंगे।

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